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क्या आर्टिकल 370 के रहने ना रहने से कश्मीर पर कोई फर्क पड़ता था?

कश्मीर

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लेखक अनुराग पांडेय दिल्ली यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। कश्मीर के इतिहास और वर्तमान स्थिति पर उनके लेखों की शृंखला की यह चौथी कड़ी है।

लेख के पिछले तीन भागों में प्राचीन कश्मीर, मध्यकालीन कश्मीर और औपनिवेशिक कश्मीर पर चर्चा की गई। चौथा भाग आर्टिकल 370 पर चर्चा करता है, आने वाले भागों मे समाज में कश्मीर को लेकर कई भ्रांतियों से पर्दा उठाने का प्रयास किया गया है।

पिछले कुछ वर्षों से रेडियो पर वार्ताओं में, चुनावी सभाओं में, किसी पत्रकार को अकेले दिए साक्षात्कार में, किसी सम्मेलन इत्यादि में झूठ बोला जा रहा था जो अनवरत जारी है। जनता, जिसे सवाल पूछना चाहिए, वह इन झूठों पर ताली बजाती है, खुश होती है। वहीं पत्रकार कड़े सवाल सरकार से नहीं, विपक्ष से पूछते हैं और आज की हर गलती की ज़िम्मेदारी 70 सालों पर या नेहरू पर डाल दी जाती है।

अब यह झूठ देश की संसद तक पहुंच गया है, लोग खुश हैं। सच्चाई कोई नहीं जानना चाहता। जो कह दिया गया वही सच है। कम शब्दों में कहा जाये तो,

बोली जाती है नीति की बात, लिखी जाती है नीति की बात, लेकिन की जाती है अनीति, क्योंकि यही है सच्ची राजनीति।

जनता खुश होती है, क्योंकि उससे सच छुपाया जाता है। जी, संसद में आर्टिकल 370 को हटाये जाने के जितने भी कारण गिनाए गए या बताए गए हैं, वे सब झूठे हैं, तथ्यविहीन हैं। चिंतित होना स्वाभाविक है, झूठ संसद तक पहुंच चुका है।

फोटो साभार – Getty Images

आर्टिकल 370 से जुड़े तथ्य और मिथक

सन 1947 में भारत को आज़ादी मिलने के बाद माउण्टबेटन योजना के तहत राजा हरि सिंह ने कश्मीर को एक आज़ाद देश घोषित किया और खुद को राजा। कश्मीर की सीमा पाकिस्तान से सीधे तौर पर मिलती है, आज़ादी घोषित होने के बाद पाकिस्तान ने यह माना कि सीमाएं मिलने की वजह से और मुस्लिम बहुल होने से कश्मीर पाकिस्तान में विलय करेगा लेकिन कश्मीर के राजा हरि सिंह ने कश्मीर को एक आज़ाद मुल्क घोषित किया।

इसी बात से रुष्ट होकर पाकिस्तानी काबाइलियों (सेना) ने सन 1947 में एक आज़ाद मुल्क कश्मीर पर आक्रमण कर दिया, जो भारत और पाकिस्तान की ही तरह अपना संविधान बनाने वाला था। कश्मीर के राजा और उनकी सेना इस पाकिस्तानी हमले का जवाब देने मे असमर्थ थी, इसी वजह से हरि सिंह ने नेहरू या भारत से नहीं बल्कि लॉर्ड माउण्टबेटन से मदद मांगी क्योकि कश्मीर को एक आज़ाद मुल्क घोषित किया गया था।

लॉर्ड माउण्टबेटन ने ब्रिटिश सहायता देने में असमर्थता दिखाई और कश्मीर को भारत में विलय का सुझाव दिया, राजा हरि सिंह ने माउण्टबेटन का प्रस्ताव स्वीकार किया और भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवहरलाल नेहरू से संपर्क किया और भारत सशर्त मदद करने के लिए तैयार हुआ।

क्या थी शर्त?

इस शर्त के अनुसार कश्मीर का भारत में विलय सुनिश्चित किया गया। उस समय कश्मीर में दो प्रमुख राजनीतिक पार्टियां थीं, एक नेशनल कॉन्फ्रेंस और दूसरी मुस्लिम कॉन्फ्रेंस। जहां नेशनल कॉन्फ्रेंस कश्मीर का भारत मे विलय चाहती थी, धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त पर आधारित थी और आपसी भाई चारे और कश्मीरियत की प्रबल समर्थक थी, तो वहीं मुस्लिम कॉन्फ्रेंस धर्म पर आधारित एक संकीर्ण विचारों वाली पार्टी थी।

नेशनल कॉन्फ्रेंस के लीडर शेख अब्दुल्लाह ने कश्मीर का भारत मे विलय का प्रस्ताव रखा वहीं दूसरी ओर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के लीडर चौधरी गुलाम अब्बास ने कश्मीर का पाकिस्तान मे विलय का प्रस्ताव दिया।

मुस्लिम कॉन्फ्रेंस सिर्फ जम्मू और सीमावर्ती क्षेत्र मे ही थोड़ी स्वीकृत थी। कश्मीर के इसी हिस्से की बहुत थोड़ी जनसंख्या पाकिस्तान मे शामिल होना चाहती थी लेकिन जम्मू, लद्दाख और कश्मीर घाटी की जनसंख्या भारत मे विलय का समर्थन करती थी।

फोटो साभार- flicker

अंगीकार पत्र पर हस्ताक्षर

इस घटना ने मुस्लिम एकजुटता के सिद्धान्त को भी चोट पहुंचाई क्योंकि जम्मू और कश्मीर की बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी जम्मू कश्मीर के पाकिस्तान में विलय का विरोध करती थी और भारत मे विलय का समर्थन। नतीजा, भारत में विलय करने के लिए शेख अब्दुल्लाह को कश्मीर का कार्यवाहक प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया, मुस्लिम कॉन्फ्रेंस और चौधरी गुलाम अब्बास कश्मीर राजनीति में हाशिये पर आ गए।

दूसरी तरफ राजा हरि सिंह अमृतसर की संधि को खत्म ना किए जाने पर अड़ गए और साथ ही अपने द्वारा जारी किए उस फरमान पर भी जिसमें कश्मीर की लड़की बाहरी लड़के से शादी करने पर संपत्ति से वंचित कर दी जाती है। हरि सिंह की ज़िद्द का और कश्मीर की स्वायत्ता का सम्मान करते हुए शेख अब्दुल्लाह ने जम्मू कश्मीर का भारत में विलय कराने का प्रस्ताव दिया।

27 अक्टूबर 1947 को राजा हरि सिंह ने अंगीकार पत्र (Instrument of Accession) पर हस्ताक्षर किए और कश्मीर का भारत मे विलय सुनिश्चित हुआ।

राजा हरि सिंह और तत्काल प्रधानंमत्री नेहरू, फोटो साभार- सोशल मीडिया

इस अंगीकार पत्र के आर्टिकल 3 के द्वारा राजा ने यह भी प्रावधान किया कि भविष्य मे इस अंगीकार पत्र को आधार बना कर डॉमिनियन सभा कानून बना सकती है लेकिन वह कानून तभी मान्य होगा जब राजा उस कानून पर अपनी सहमति दे।

इसी आर्टिकल 3 में राजा हरि सिंह ने यह भी प्रावधान रखा कि इस अंगीकार को भारत के भविष्य में लागू होने वाले संविधान के लिए प्रतिबद्ध नहीं माना जाएगा और कश्मीर का अपना एक अलग संविधान होगा, नागरिकता होगी। भारत सिर्फ रक्षा, बाहरी मामले और संचार के क्षेत्र में ही कानून बना सकता है, बाकी किसी भी मुद्दे पर कश्मीर कानून बनाने के लिए स्वतंत्र होगा।

राजा हरि सिंह डोगरा शासन और कश्मीर की स्वायत्ता को लेकर ज्यादा चिंतित थे और इसीलिए अमृतसर की संधि और अपने फरमान जिसमें कश्मीरी लड़की को संपत्ति से वंचित किया जाना अगर वो बाहरी से शादी कर लेती है, को जीवित रखने का प्रयास किया।

कश्मीर में जनमत संग्रह जो कभी ना हो सका

अक्टूबर 1949 में कश्मीर के मुद्दे पर भारतीय संविधान सभा में भी चर्चा हुई। उस वक्त आर्टिकल 370 नहीं थी, कश्मीर के विलय का मुद्दा आर्टिकल 306 A के ज़रिए संविधान सभा में रखा गया और चर्चा हुई।

इस आर्टिकल 306 A में सभी सदस्यों ने राजा हरि सिंह की बात का समर्थन किया और भारत को सिर्फ रक्षा मामले, विदेश और संचार के क्षेत्र में ही हस्तक्षेप करने का अनुमोदन किया।

ऐसा माना जाता है कि नेहरू संयुक्त राष्ट्र संघ मे कश्मीर का मुद्दा लेकर गए, संयुक्त राष्ट्र संघ ने यथापूर्व स्थिति की कश्मीर में घोषणा की और एक अध्यादेश जारी किया जिसमें यह प्रावधान किया गया कि कश्मीर मे एक जनमत संग्रह कराया जाए ताकि यह जाना जा सके कि जनता भारत के साथ विलय चाहती है या पाकिस्तान के साथ या फिर एक स्वतंत्र कश्मीर राज्य का निर्माण करना चाहती है।

यह जनमत संग्रह आज तक नहीं कराया जा सका, भारत और पाकिस्तान अपने-अपने तर्क रखते हैं लेकिन जम्मू कश्मीर की जनता क्या चाहती थी, आज तक जाना नहीं जा सका।

राजा हरि सिंह ने अपने पुत्र करण सिंह को कश्मीर का उत्तराधिकारी घोषित किया। करण सिंह ने सन 1951 में कश्मीर का संविधान बनाने के लिए कश्मीर में चुनाव की घोषणा की। इस चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस सभी 75 सीट पर विजयी हुई, जनता का पूर्ण समर्थन शेख अब्दुल्लाह को मिला।

सन 1952 मे शेख अब्दुल्लाह ने आर्टिकल 306 A के अन्तरिम प्रावधान को स्थायी किया और भारतीय संविधान में आर्टिकल 370 को जोड़ा, जिससे कश्मीर का भारत में विलय सुनिश्चित हुआ। सन 1954 तक आते-आते भारत ने रक्षा मामले, विदेश मामले और संचार के जितने भी प्रावधान भारतीय संविधान में विद्यमान थे, उन सभी कानूनों को जम्मू कश्मीर पर वैसे ही लागू किया जैसे भारत में लागू थे।

श्रीनगर में कश्मीर राष्ट्रीय सम्मेलन की वार्षिक बैठक की कार्यवाही के दौरान पंडित जवाहरलाल नेहरू शेख अब्दुल्ला, अमृत कौर, सरदार वल्लभभाई पटेल, और भारत के उप प्रधान मंत्री, बलदेव सिंह, फोटो साभार- Flicker

आर्टिकल 370 और कश्मीर की स्वायत्ता पर पहला प्रहार

इसी समय सन 1953 मे राजा करण सिंह ने शेख अब्दुल्लाह को प्रधानमंत्री पद से हटा दिया। आरोप था कि अब्दुल्लाह सदन मे विश्वासमत खो चुके थे और बिना बहुमत खुद को साबित करने का मौका दिये शेख अब्दुल्लाह को पदमुक्त कर दिया गया।

सन 1953 में शेख अब्दुल्लाह को कश्मीर के खिलाफ षड्यंत्र करने के आरोप मे जेल भेज दिया गया। उन पर पाकिस्तानी समर्थक होने का आरोप लगाया गया और पाकिस्तान से मदद लेकर कश्मीर मे अशांति फैलाने का भी आरोप लगा। तर्क था कि अब्दुल्लाह कश्मीर का पाकिस्तान में विलय करवाना चाहते हैं।

अब्दुल्लाह को पदमुक्त करके बक्शी गुलाम मोहम्मद को प्रधानमंत्री बनाया गया। गुलाम मोहम्मद की सरकार ने अब्दुल्लाह को उनके खिलाफ लगे आरोपों के आधार पर गिरफ्तार किया। प्रधानमंत्री नेहरू को शेख अब्दुल्लाह के खिलाफ सुबूत दिखाये गए जिसको देखकर नेहरू असमंजस मे पड़ गए और अब्दुल्लाह की गिरफ्तारी के आदेश पर हस्ताक्षर किए।

इन आरोपों की वजह से शेख अब्दुल्लाह 11 साल जेल में रहे और (1953 से 1964)। इसी दौर में कई भारतीय कानून, जिसमें भारतीय दंड संहिता भी शामिल है, को कश्मीर में लागू किया गया।

शेख अब्दुल्लाह पर मुकदमा भी भारतीय दंड संहिता के आधार पर ही चला और 1963 में जब देश अब्दुल्लाह की सज़ा के ऐलान का इंतज़ार कर रहा था तब नेहरू और तत्कालीन कश्मीर के प्रधानमंत्री गुलाम मोहम्मद सादिक ने शेख अब्दुल्लाह पर लगे सभी इल्ज़ामों को वापस ले लिया और केस खत्म हो गया।

कश्मीर की इसी स्थिति को देखते हुए रक्षा, विदेश और संचार से संबन्धित समस्त भारतीय कानून कश्मीर पर लागू किए गए। इसके साथ ही साथ सन 1954 तक भारत के कुछ और कानून भी कश्मीर में लागू किए गए, जिसका विरोध हरि सिंह ने किया था और आर्टिकल 370 भी इन कानूनों को कश्मीर पर लागू करने से रोक लगाती है।

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भारत की यूनियन लिस्ट में वर्णित सभी कानून कश्मीर पर लागू किए गए और सन 1954 के एक आदेश से मौलिक अधिकारों को, भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को सुरक्षा के नाम पर लागू किया गया। आर्टिकल 370 ऐसे किसी भी कानून को कश्मीर पर लागू करने की कोई बात नहीं करती है।

कुल मिलाकर दस साल से भी कम समय में भारत के कई कानून और संविधान की विभिन्न आर्टिकल्स को कश्मीर पर लागू किया गया। कभी विदेश, कभी रक्षा और कभी संचार का हवाला देकर। इन सभी कानूनों को जम्मू-कश्मीर की विधानसभा ने अनुमोदित भी किया, अकेले ना राष्ट्रपति ने ना ही संसद के किसी भी अध्यादेश ने कोई भी कानून घाटी में लागू किया।

सन 1957 में कश्मीर विधान सभा, जिसके प्रमुख बक्शी गुलाम मुहम्मद थे, उन्होंने कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग घोषित किया। इससे साफ ज़ाहिर होता है कि कश्मीर ने कभी भी खुद को भारत से अलग नहीं समझा।

कश्मीर की जनता को नेहरू के नेतृत्व और भारतीय राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर पूरा भरोसा था। कुछ समय के अंदर ही कई और भारतीय कानून भी कश्मीर पर लागू किए गए, जिनका आर्टिकल  370 पूरी तरह से निषेध करती है।

इनमें प्रमुख हैं, केंद्रीय प्रशासनिक सेवाओं का लागू किया जाना, सन 1964-65 में आर्टिकल 356 और 357 को लागू किया जाना (जिसका प्रयोग 1980 के दशक में हुआ और कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगाया गया), आर्टिकल 249 के ज़रिये भारतीय संसद को जम्मू-कश्मीर राज्य मामलों की प्रांतीय सूची में से भी कानून बनाने का अधिकार मिला, अन्य राज्यों की तरह।

आर्टिकल 370 सिर्फ नाम के लिए ही रह गया और जिन प्रावधानों के साथ ये लागू किया गया था, 1970 का दशक आते आते लगभग सभी प्रावधान अपना महत्व खो चुके थे। आर्टिकल 370 के अनुसार भारतीय संसद रक्षा, विदेश और संचार के अलावा भी कश्मीर के किसी मुद्दे पर कानून बना सकती है, लेकिन जम्मू कश्मीर की संविधान सभा का अनुमोदन आवश्यक है, जिसे बाद मे जम्मू कश्मीर संविधान सभा खत्म कर देने के बाद जम्मू कश्मीर विधान सभा माना गया।________________________________________________________________________________

यह लेख पूर्व में 14 अगस्त 2019 को डॉ अनुराग पांडेय द्वारा “इंडियन डेमोक्रेसी” में  प्रकाशित हुआ है।

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