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लोहिया ज़िंदा होते तो झूठे राष्ट्रवादियों को कभी ना बख्शते

सड़क वीरान ही जाएगी तो संसद आवारा हो जाएगी

यह सौ आने सही बात करने वाले थे महान समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया। महात्मा गाँधी की ज़िंदगी से प्रेरित वह राजनेता जिनकी पूरी राजनीति सड़क की लड़ाई और लोकतंत्र में वाद-विवाद को बचाये रखने की थी।

ऐसा नेता, जिसे जब लगा की कोई व्यक्ति कोई गलत काम कर रहा है, तो उसकी आलोचना की। फिर चाहे वे देश के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू हो या महान चिंतक डॉ. कार्ल मार्क्स।

अगर डॉ. लोहिया को देखें तो उनकी विरोध करने की राजनीति आज के भारत के झूठे धर्म निर्पक्षियो, कट्टरवादी वामपंथियों और फासीवादियों जितनी गिरी हुई नही थी। वे जब बोलते थे, तो एक आम आदमी दुख और तकलीफों पर बोलते थे।

उन्होंने जात धर्म की राजेनीति कभी नहीं की, जिसे आज खुद को उनका अनुयायी बताने वाले करते हैं।

डॉ. लोहिया के शुरुआती जीवन पर प्रकाश

फरुखाबाद और कन्नौज से सांसद रहे डॉ. राम मनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 को अकबरपुर में हुआ था, जो वर्तमान में भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का हिस्सा है। 12वी तक की पढ़ाई बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और कलकत्ता यूनिवर्सिटी के विद्यासागर कॉलेज से बी. ए की पढ़ाई की। उसके बाद वे बर्लिन चले गए जहां उन्होंने हुमबोल्डत यूनिवर्सिटी ऑफ बर्लिन से डॉक्टरेट की।

लोहिया ने भारत में नमक कराधान के विषय पर अपना पीएचडी थीसिस पेपर लिखा जो गांधी के सामाजिक-आर्थिक सिद्धांत पर केंद्रित था। फिर कांग्रेस में आए और देश की आज़ादी में जुट गए।

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी बड़ी भूमिका थी। जब देश आज़ाद हुआ, तब सब लोग जश्न मना रहे थे। उस वक्त डॉ. लोहिया महात्मा गाँधी  के साथ नोआखाली में थे, जहां दंगो में हज़ारो लोग मारे गए थे और गांधी जी के आमरण अनशन जिसने इस नफरत को खत्म किया उस में भी एक मुख्य भूमिका निभाई थी।

वे उन 3 लोगों में भी शामिल थे जिन पर आचार्य कृपलानी ने कहा था,

ये आखिरी वक्त तक भारत का बंटवारा रोकने की कोशिश करते रहे।

जब किया अपने साथी पंडित नेहरू का विरोध

डॉ. लोहिया पहले ही पंडित नेहरू की सरकार में मंत्री बनने का ऑफर ठुकरा चुके थे क्योंकि सत्ता की मुखालफत करने वालों को सत्ता का मोह नहीं होता। उस ज़माने में सूचना का अधिकार कानून था ही नहीं। पर फिर भी डॉ. लोहिया ने यह पता करना चाहा कि इस देश के प्रधानमंत्री पर हर दिन कितना खर्चा होता है और आम आदमी कितना कमाता या खर्च करता है।

जब उन्होंने आंकड़े निकाले तो बतौर सांसद उन आंकड़ो को संसद में पेश किया ओर एक सवाल पूछा,

इस देश में जहां एक आम आदमी हर दिन मुश्किल से 2-3 आने ही कमा या खर्च कर सकता है वहां के प्रधानमंत्री के ऊपर हर दिन 25000 रुपए का खर्चा क्यों हो रहा है?

यह बहुत बड़ी बात थी क्योंकि उस वक्त 25000 रुपए बहुत बड़ी रकम थी।

हिंदी से था प्यार

मेरा यह भी मानना है कि धोती-कुर्ता पहन कर सादी हिंदी में भारतीय राष्ट्रवाद की वकालत करने वाले डॉ. लोहिया को ना तो ये हर धर्म और जाति में फैले कट्टरवादी समझ सकते हैं और ना ही लिबरल के नाम पर माइनॉरिटी की राजनीति करने वाले क्योंकि लोहिया दोनों के विरोधी थे।

उनकी अंग्रेज़ी के प्रति कोई नफरत नहीं थी क्योंकि वे खुद अंग्रेज़ी में 9 किताबें लिख चुके थे। पर हिंदी के लिए बहुत प्यार था।

अंत में आज ही के दिन वर्ष 1967 में डॉ. लोहिया ने इस दुनिया को अलविदा कहा। आज उनके द्वारा दिये गए लोकतंत्र में सत्तावाद की ही नहीं बल्कि विरोध की राजनीति का स्तर भी बहुत गिर गया है।

मुझे कोई शक नहीं यह कहते हुए कि आज लोहिया ज़िंदा होते तो ना तो वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बख्शते और ना ही खुद को लोहिया का चेला बोलने वालों को बख्शते। वे सबकी आलोचना करते और भारतीय राष्ट्रवाद का सही मतलब बताते और वह राष्ट्रवाद भारत और गाँधी का राष्ट्रवाद होता ना कि कोई धार्मिक राष्ट्रवाद या झूठा लिबरल राष्ट्रवाद।

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