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“बंगाली समाज में नारी की अहमियत स्थापित करने का बेजोड़ उदाहरण है दुर्गा पूजा”

कोलकाता दुर्गा पूजा

कोलकाता दुर्गा पूजा

संस्कृति और सभ्यता के बीच के सम्बन्धों को परिभाषित करने के प्रयास में रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं कि दोनों ही एक-दूसरे को प्रभावित करती है। मौजूदा संदर्भ में बंगाल का दुर्गा पूजा एवं बंगाली समाज में महिलाओं की सामाजिक स्थिति और उनकी चेतना इस बात का शानदार उदाहरण हो सकता है।

कोई भी प्रभावशाली संस्कृति निरंतर अपने प्रभाव का विस्तार करती है। ऐसा करने के लिए उसे एक विचारधारा की ज़रूरत होती है जिससे उसे वैधता मिलती है। बंगाल को यह विचारधारा नवजागरण के आधुनिक आंदोलन के दौरान तब मिली, जब बंगाल के समाज ने अपनी आधुनिक चेतना में परंपरा का बेहतर प्रयोग किया और परंपरा में सांस्कृतिक प्रयोग से आधुनिकता को स्थापित किया।

महिलाओं के प्रति सम्मान का पर्व है दुर्गा पूजा

बंगाल जैसा प्रयोग महाराष्ट्र के नवजागरण में लोकमान्य तिलक द्वारा किया गया जिसके बाद प्रतिष्ठित गणेशोत्सव का पर्व प्रारंभ हुआ। 20वीं सदी में प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया ने चित्रकूट में रामायण मेला की स्थापना की। तिलक और लोहिया भारतीय आधुनिकता के विकास के प्रखर समर्थक थे लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर पारंपरिक भी थे।

परंपरा की बात की जाए तो गणेशोत्सव और रामायण मेला, आधुनिकता का दुर्लभ उदाहरण तो हैं मगर वे बंगाल की तरह समाज में सामाजिक चेतना के निर्माण का संदेश नहीं दे पाते हैं। हां, समाज को एक पहचान के आधार पर संगठित ज़रूर करते हैं।

कोलकाता दुर्गा पूजा। फोटो साभार- Flickr

बंगाल में नारी-पूजा की परंपरा प्राचीन समय से प्रचलित है। वहां शक्ति की पूजा करने वाले शाक्त संप्रदाय का काफी असर है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि अन्य किसी भी पूजा के बनिस्पत बंगाली समाज में शक्ति यानि नारी की अहमियत स्थापित करने का बेजोड़ उदाहरण है दुर्गा पूजा।

इसका प्रभाव पूरे बंगाली समाज पर भी है। बंगाली समाज में महिलाओं की सामाजिक स्थिति अन्य प्रांतिय समाज से थोड़ी अधिक सशक्त और जागरूक दिखती है। दुर्गा पूजा बंगाली समाज के जनमानस को महिलाओं के प्रति सम्मान के लिए भी ज़िम्मेदार बनाता है।

सेक्स वर्कर्स और ट्रांसजेंडर्स को मुख्यधारा में लाने की कोशिश

बंगाली समाज में दुर्गा पूजा वहां के सामाजिक जीवन में सामाजिक न्याय की तरह स्थापित है। दुर्गा शक्ति, न्याय और हर अन्याय के विरुद्ध ना सिर्फ प्रतिकार का प्रतीक है, बल्कि औरत के भीतर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार का भी धधकता लावा है।

कोलकाता के पूजा पंडाल में सिंदुर खेला। फोटो साभार- Flickr

दुर्गा जैसी महाशक्ति बंगाली समाज और सांस्कृतिक जीवन में अन्याय के विरुद्ध एक सार्थक हस्तक्षेप का प्रतीक है। इसके साथ-साथ समय-समय पर बंगाली समाज अपनी सामाजिक चेतना के ज़रिये नई संस्कृति को रचकर भी दुर्गा पूजा के उत्सव में सामाजिक समानता की चेतना की कोशिश करता रहा है।

सिंदुर खेला, सोनागाछी में देह व्यापार करने वाली महिलाओं को मुख्यधारा में लाने का प्रयास और ट्रांसजेंडर वर्ग के लोगों को समाज के सदस्य के रूप में साथ लाने की कोशिशें दुर्गा पूजा के ज़रिये बंगाल में होती रही है।

घर वापसी की भावना का जुड़ाव

बंगाली समाज दुर्गा पूजा से व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों रूपों से जुड़ा हुआ है। इसलिए बंगाल में दो तरह के दुर्गा पूजा का चलन है। पहला- “पारा दुर्गा पूजा” यानि स्थानीय पूजा जो रौशनी, डिज़ाइन, थीम और विचारों का एक भव्य शो है। यह पूजा पंडालों और कम्युनिटी हॉल्स में होती है। दूसरा, “बारिर पूजा”, बारिर मतलब घर में पूजा।

फोटो साभार- Flickr

इस पूजा का एक घरेलू प्रभाव होता है, जो घर वापसी की भावना (बंगाल से बाहर या घर से बाहर रह रहे लोगों के लिए घर वापसी की भावना) के साथ लोगों को अपनी जड़ों के करीब लाता है। यह उत्तरी कोलकत्ता के पुराने घरों या दक्षिणी कोलकाता के धनी घरों में होता है।

ज़ाहिर है कि बंगाली समाज ने शक्ति के रूप में दुर्गा पूजा को केवल आस्था से जोड़कर देखने के साथ-साथ प्रगतिशील चेतना को प्रधानता देते हुए समाज में हो रहे बदलावों को स्वीकार करने का प्रयास किया है। इसी के साथ यह सिद्ध भी किया है कि परंपरा तभी सर्वमान्य हो सकती है, जब वह आधुनिकता के साथ कदमताल करे।

यदि देश के अन्य सास्कृतिक पर्व-त्यौहारों या आयोजनों में इस चेतना का विकास नहीं किया जाएगा, तब आने वाली पीढ़ियों का परंपराओं से मोहभंग होने लगेगा।

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