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“जब दिल्ली के SP चाहकर भी नहीं तोड़ पाए बिस्मिल-अशफाक की दोस्ती”

पंडित बिस्मिल और अश्फाउल्लाह खान

पंडित बिस्मिल और अश्फाउल्लाह खान

महान क्रांतिकारी अशफाकुल्लाह खान भारत माँ के वह लाल हैं, जो आज़ादी के लिए हंसते हुए पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के साथ फांसी पर चढ़ गए थे और यही कारण है कि उनकी देशभक्ति हमेशा हम हिन्दुस्तानियों में जोश भरती रहती है। 

आज कुछ लोग धर्म के नाम पर उन्हें लड़वाने की राजनीति करते हैं। इसलिए इन दोनों की दोस्ती को समझना बहुत ज़रूरी है कि कैसे एक जनेऊधारी पंडित और पांच वक्त नमाज़ी दोस्त बने और कैसे अंग्रेज़ी राज के खिलाफ जंग लड़ी तथा शहीदी पाई।

इतिहास गवाह है कि भारत की आज़ादी किसी एक धर्म, जाति या संप्रदाय की देन नहीं है, बल्कि सबकी समान साझेदारी से ही भारत आज़ाद हुआ है और आज तक इसी समान साझेदारी की वजह से चल रहा है, जिसमें अशफाकुल्लाह और पंडित रामप्रसाद बिस्मिल की दोस्ती इसके प्रतीक हैं।

कैसे हुई इन दोनों की दोस्ती?

अशफाकउल्लाह खान अपने 6 भाई बहनों में सबसे छोटे थे और उत्तर प्रदेश के शाहजनपुर में रहते थे। उनके बड़े भाई पंडित राम प्रसाद बिस्मिल स्कूल के सहपाठी थे। कहते हैं, जब कभी भी अशफाकउल्लाह के यहां शेरो-शायरी पर बात होती थी, तब उनके बड़े भाई हमेशा पंडित बिस्मिल का ज़िक्र करते थे। यही एक वजह थी कि पंडित बिस्मिल की देशभक्ति के कारनामे अपने भाई के मुंह से सुनकर अशफाक खान उनके कद्रदान बन गए थे।

पंडित बिस्मिल और अश्फाउल्लाह खान। फोटो साभार- Google Free Images

मैनपुरी में जब पंडित बिस्मिल द्वारा अंग्रेज़ी सरकार के खिलाफ पर्चा बांटने और खुले आम प्रचार के लिए अंग्रेज़ों के चमचे बने हुए ज़मीदारों के घर डाका डालने की खबरें आम हुईं, तो अशफाक ने पंडित बिस्मिल से मिलने का फैसला किया। जब गाँधी ने असहयोग आंदोलन की नींव रखी और आंदोलन चरम पर पहुंचा तो पंडित बिस्मिल शाहजहांपुर आए, जहां अशफाक ने उनसे मुलाकात की और उनको अपना परिचय दिया।

पंडित और अशफाक साहब की दोस्ती यहां से शुरू हुई, जो मरते दम तक बनी रही। जब चौड़ी-चौड़ा कांड के बाद गाँधी ने असहयोग आंदोलन वापिस लिया तब भगत सिंह, राजगुरु और अन्य युवाओं की तरह पंडित बिस्मिल और अशफाक में भी गुस्सा भर गया तथा दोनों ने हथियार उठाने का फैसला लिया।

अशफाक का दिल्ली के एसपी को जवाब

एक बार रंग दे बसंती फिल्म में एक सीन देखा था, जिसके बारे में बाद में कहीं पढ़ा भी। उसमें पता चला कि यह किस्सा सही था जो भारत के इन दोनों महा सपूतों की दोस्ती को पक्का करता था।

उस समय दिल्ली के एसपी तस्द्दुक हुसैन हुआ करते थे। उन्होंने जब अशफाक और पंडित बिस्मिल की दोस्ती के बारे में सुना, तब हिन्दू-मुस्लिम का कार्ड खेलकर उसे तोड़ने और उनके मुंह से सच निकलवाने की कोशिश की मगर अशफाक हर बार इनकी बात को यह कहकर टाल देते थे कि वह किसी अंग्रेज़ की गुलामी करने वाले गद्दारों की नहीं सुनेंगे।

एक बार तो एसपी ने हद कर दी। उन्होंने अशफाक से यह झूठ बोला कि बिस्मिल सरकारी गवाह बन गया है और यह काफिर तुम्हारे खिलाफ गवाही देगा। इस पर अशफाक ने जो जवाब दिया वह किसी सच्चे इंसान का ही हो सकता है, जो विश्वास से भरा हो।

उन्होंने कहा, “मैं पंडित राम प्रसाद बिस्मिल को आपसे अच्छी तरह जानता हूं। खान साहब और जैसा आप कह रहे हैं, वह वैसे आदमी नहीं हैं और अगर आप सही भी हो तो भी एक हिंदू होने के नाते वह ब्रिटिशों जिनके आप नौकर हैं, उनसे बहुत अच्छे होंगे।

बाद में दोनों को फांसी की सज़ा हुई

ज़िंदगी भर दोस्त रहे अशफाक और बिस्मिल दोनों को अलग-अलग जगह पर फांसी दी गई। अशफाक को फैज़ाबाद में और बिस्मिल को गोरखपुर में फांसी दी गई मगर तारीख एक ही थी। 19 दिसंबर 1927 को दोनों शहीद हो गए। यह ज़रूरी कहूंगा कि धर्म के नाम पर नफरत फैलाने वालों के लिए नसीहत है पंडित बिस्मिल और अश्फाउल्लाह खान की दोस्ती।

धर्म के नाम पर नफरत फैलाने वालों, ज़रा इनकी कहानी भी सुनो। जिन्होंने अपने धर्म और विश्वास को तो निभाया ही मगर देशभक्ति को उससे भी ऊपर रखा।

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