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अरावली की पहाड़ियों में बसे गाँवों की लड़कियों की मजबूरी बन गई है बकरी चराना

बकरी चराती लड़की

बकरी चराती लड़की

भारत सांस्कृतिक, भौगोलिक एवं पर्यावरणीय विविधिताओं का एक अनोखा देश है, जहां विभिन्न जाति, धर्म एवं संप्रदाय के आधार पर सामाजिक परिवेश का गठन होता है। इसके साथ-साथ देश में सुविधाएं भी सामाजिक स्तर और जातीय समीकरण के आधार पर उपलब्ध होती है।

सामाजिक विषमता का शिकार देश आज भी एक क्रांति के इंतज़ार में है, जहां एक ओर कल्पना चावला और चंदा कोचर का नाम लेकर हम खुश होते हैं कि हमारे समाज में महिलाएं भी शीर्ष स्थान हांसिल कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर 21वीं सदी के इस दौर में राजस्थान के अरावली की पहाड़ियों में बसे गाँवों की लड़कियां अपने सपनों को आज भी पंख देने के बजाय स्कूल के चारदीवारों के पीछे बकरियां चराने को मजबूर हैं।

बकरी चराती आदिवासी लड़की।

देश में शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE), को लागू करने और नीति एवं व्यवस्था सुदृढ़ कर सरकार आज हर गाँव और फली तक पहुंच बना चुकी है और एक नया मुकाम देने को हर संभव तत्पर है। इन चीज़ों से साक्षरता दर में भी काफी सुधार आया है। साल 2011 की जनगणना के अनुसार आज भारत की साक्षरता दर 74% और सेक्स अनुपात 943 है।

वहीं, राजस्थान के आदिवासी बाहुल्य सिरोही ज़िले की बात करें, तो यहां की हकीकत बेहद दयनीय है। राजस्थान का साक्षरता दर 66%,(महिला- 52%) के सापेक्ष में सिरोही का साक्षरता दर 78% है, जिसमें साक्षर महिलाओं की संख्या काफी कम है। आप समझ सकते हैं कि जिस समाज मे औसत महिलाएं पढ़ना-लिखना ना जानती हों, ऐसे में उनका भविष्य कौन और कैसे निर्धारित करेगा?

राजस्थान राज्य के सापेक्ष में आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र सिरोही का सेक्स अनुपात (1000/951) बेहतर है। इन दोनों के कारणों को जानने की कोशिश की तो एक बेहद चौंकाने वाला सच सामने आया। समुदाय के अधिकांश लोगों का मानना है कि लड़की को पढ़ाने से कोई फायदा नहीं है, क्योंकि इसे तो शादी करके कहीं और चले जाना है।

बकरी चराती देवी बाई।

दूसरी तरफ एक सच यह भी है कि परिवार में औसतन 5-6 बच्चे होते हैं, जिनमें लड़कियों पर मूलतः बकरी चराने की ज़िम्मेदारी होती है। इस तरह उन्हें लगता है कि लड़कियों को स्कूल भेजने पर उनका अपना व्यवसाय ठप हो जाएगा।

यहां लड़कियां 6 साल से 14 साल तक बकरी चराती हैं और उसके बाद 15 से 16 साल की उम्र में शादी कर लेती हैं। इस नाज़ुक उम्र में शादी और अशिक्षा आने वाली  नई पीढ़ी को भी असुरक्षित भविष्य देने को तत्पर है और यही कारण है कि पीढ़ी दर पीढ़ी यह समस्या जटिलता की ओर बढ़ती जा रही है। स्वास्थ्य और कुपोषण एक उपहार के रूप में इनको मिला है, जो गरीबी के दुश्चक्र को और जटिल करता जा रहा है।

सेक्स अनुपात का बेहतर होना यह ज़रूर दर्शाता है कि लड़कियों की भ्रूण हत्या कम हो रही है मगर इसका मतलब यह नहीं है कि लोगों ने अब लड़कियों के बारे में बेहतर सोचना शुरू कर दिया होगा।

हां, यह ज़रूर है कि लोग अब उनके जन्म से दुखी नहीं हैं लेकिन इसकी खास वजह इस समुदाय का स्वार्थ है, क्योंकि आदिवासी परिवार में लड़कियों की शादी में ज़्यादा खर्च नहीं होता है और साथ ही साथ ये लड़कियां शादी से पहले परिवार के भरण-पोषण का मुख्य श्रोत होती हैं। जैसा कि मैंने पहले कहा कि बकरियां चराना इनकी प्रमुख ज़िम्मेदारी होती है।

ऐसे बच्चों से मिलकर एक अजीब असंतोष होता है, जहां एक बच्ची दूसरों की बात समझ नहीं सकती, किसी से कुछ बोल नहीं सकती और हम अपने आप को बदलते भारत के अग्रणी नागरिक के रूप में देखते हैं। एक भारत जो इन गाँवों में है, इसका  विकास कब होगा? कैसे होगा? कौन करेगा? इसी मर्म के साथ घर वापस आ जाता हूं।

यह एक बहुत जटिल समस्या है, जहां पुरुष शराब के नशे में धुत रहता है और महिला कोसों दूर से पानी लाती है या फिर बकरी चराती हैं। इस समाज को एक स्थाई दिशा देने के लिए शिक्षा और महिला सशक्तिकरण के सार्थक प्रयास के लिए आगे आना होगा।

नोट: YKA यूज़र विद्या भूषण सिंह समाजिक चिंतक हैं, जिन्होंने अरावली की पहाड़ियों में भ्रमण के आधार पर यह स्टोरी की है।

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