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“गाँधी के वे दिन”

गाँधी तेरी गांँधीवादी चली गई,

घर-घर से अब खादी भी चली गई।

जिसे पहन गोरों की वर्दी पर चढ़ा गई,

आज मसलसन वह भी घर से चली गई।

 

सत्य अहिंसा के पथ पर जब दांडी तोड़ी थी,

हुक्मरानों में प्रतिरोध की ज्वाला फोड़ी थी।

एक-एक, दो-दो करके सौ की भीड़ जोड़ी थी,

दासत्व भरी ज़िंदगी को आज़ादी में मोड़ी थी।

 

अस्त्र-शस्त्र सब त्यागकर चल पड़े थे शोलों में,

दीन दुखी किसानों को संजोग लेते झोलों में।

उसी दुहाई के मंज़र में छाया जग में नाम है,

इसलिए आज विदेशों में करते लोग प्रणाम हैं।

 

अफसोस धरा पर कुछ तो दुश्मन पाए गए,

नवयुग की इस श्रेणी में गोडसेवादी पा गए।

जिन्हें देख युवा अपने में कट्टरता लहराते हैं,

तथाकथित उद्घोषों से दीनों को डराते हैं।

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