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दुनियाभर में हर साल करीब 940 बिलियन डॉलर खाना होता है बर्बाद

भारत हमेशा से अनाज के उत्पादन में अव्वल रहा है। हमारे यहां इतना अनाज है कि 6 महीने तक भारत पूरी दुनिया का पेट भर सकता है। कई सारे फलों और खाद्य सामग्री के उत्पादन के लिए भारत पूरी दुनिया में पहले स्थान पर है।

खुद इसी साल लोकसभा में उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय ने कहा था कि देश के गोदामों में अभी 1150 मीट्रिक टन अनाज रखा है। फिर भी देश में हर रोज करीब 19 करोड़ लोग भूखे सोते हैं।

आखिर इतना अनाज होने के बावजूद  हमारा देश वैश्विक भूख सूचकांक यानी कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स (Global Hunger Index) में 117 देशों की रैंकिंग में 102वें पायदान पर क्यों है?

अनाज और खाद्य उत्पादन में इतने सक्षम होने के बावजूद ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 102वें पायदान पर होना यह साफ- साफ दर्शाता है कि खाने की कमी ना होने के बावजूद भी देश के लोग कुपोषित और भूखे हैं।

फोटो साभार- Flicker

हंगर इंडेक्स का पैमाना क्या होता है?

ग्लोबल हंगर इंडेक्स की सूची में मौजूद देशों की स्थिति को चार पैमानों पर मापा जाता है। यह चार पैमाने हैं

  1. कुपोषण,
  2. चाइल्ड वेस्टिंग (लंबाई के अनुपात में बच्चों का वज़न),
  3. चाइल्ड स्टंटिंग (उम्र के अनुपात में बच्चों की लंबाई), और
  4. चाइल्ड मॉर्टेलिटी रेट शामिल है।

बच्चों के स्वास्थ और शारीरिक विकास के आधार पर यह रैंकिंग तैयार की जाती है। देश की मौजूदा रैंकिंग इस बात को दर्शाती है कि भारत के बच्चे भूखे और कुपोषित हैं।

जीएचआई (GHI) में भारत पीछे क्यों?

भुखमरी और कुपोषण के मामले में भारत अपने पड़ोसी देश, जिन्हें हम अपने से कम विकसित समझते हैं जैसे कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल, उनसे भी पीछे हैं। 2019 में आई ग्लोबल हंगर इंडेक्स में  भारत 117 देशों में से 102वें स्थान पर है।

2014 में आई जीएचआई (GHI) की रिपोर्ट में भारत  55वें स्थान पर था। वहीं आज 2019 में 102वें स्थान पर पहुंच गया है। हालांकि, इस बीच सूची में रेजिस्टर्ड देशों की तादाद हर साल घट-बढ़ रही है।

वर्ष 2014 में भारत 76 मुल्कों की लिस्ट में 55वें पायदान पर था। वर्ष 2017 में बनी 119 देशों की फेहरिस्त में उसे 100वां पायदान हासिल हुआ था और 2018 में वह 119 देशों की सूची में 103वें स्थान पर था। अब इस साल की रिपोर्ट में 117 देशों के सैम्पलों का आकलन किया गया था, जिसमें भारत को 102वां स्थान मिला है।

रिपोर्ट के मुताबिक, 30.3 के स्कोर के साथ भारत भुखमरी के ऐसे स्तर से जूझ रहा है, जिसे विश्व स्तर पर गंभीर माना जाता है। भुखमरी का यह स्तर हमारे देश के नौनिहालों के शारीरिक विकास को भी दर्शाता है। रिपोर्ट स्पष्ट तौर पर कहती है कि भारत उन देशों में से एक है जहां बच्चे कुपोषित हैं।

अगर हम उत्पादम में पीछे नहीं है तो ज़ाहिर सी बात है कि हमारी 102वां स्थान किसी और ही तरफ इशारा करता है जिसे अन्न की बर्बादी कहते हैं।

अन्न की बर्बादी कैसे होती है?

अन्न या खाने की बर्बादी दो तरह से होती है। एक फार्म स्तर पर और दूसरा हमारी प्लेट में। फूड सेफ्टी ऑफिसर गणेश कंडवाल, खाद्य सुरक्षा एवं इसकी बर्बादी के विषय के बारे में बताते हैं,

भारत में बहुत सारे क्रॉप्स मंडी में पहुंचने से पहले ही बर्बाद हो जाते हैं। इसका कारण है कि हमारे पास उचित स्टोरेज व्यवस्था नहीं है। मंडी तक आते-आते बहुत बड़ी मात्रा में यह अन्न बर्बाद होता है। अगर पर्वतीय इलाकों की बात करें तो कभी आपदा है, कभी रोड की समस्या है।

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खाने की बर्बादी का मसला विभिन्न देशों में अलग-अलग तरह से दिखता है। मसलन

2017 की सीएसआर की एक रिपोर्ट के मुताबिक हर साल जितना यूनाइटेड किंगडम खाता है, उतना अन्न हर साल हमारे देश में बर्बाद हो जाता है। अब इस बरबाद होते खाने से हमारी बर्बादी को कैसे बचाया जाए यह सबसे बड़ा सवाल है।

बर्बाद किया हुआ खाना हो रहा है खतरनाक

खाने की बर्बादी का मसला जहां भुखमरी और कुपोषण का मुद्दा है वहीं यह जलवायु परिवर्तन के लिए भी ज़िम्मेदार है।

वर्ल्ड रिसोर्सेज़ इंस्टीट्यूट (WRI) ने रॉकफेलर फाउंडेशन की मदद से एक रिपोर्ट जारी की है। जिसके अनुसार खाने की बर्बादी की वजह से ग्रीन हाउस गैसों में 8 फीसदी का इज़ाफा होता है। मतलब खाने की बर्बादी को लेकर अब मुद्दा सिर्फ कुपोषण और भुखमरी का ना रहकर उस जलवायु परिवर्तन का भी हो गया है जो कि एक ग्लोबल समस्या है।

WRI की रिपोर्ट यह भी कहती है कि पूरी दुनिया में जितने भी खाद्य या अन्न का उत्पादन होता है, उसका एक तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है।  यानी एक तिहाई खाना बिना खाए फेंक दिया जाता है या वो बर्बाद चला जाता है।

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अगर बर्बाद खाने की कीमत के बारे में पता करें तो पूरी दुनिया में हर साल करीब 940 बिलियन डॉलर का खाना बर्बाद होता है अर्थात विश्व की अर्थव्यवस्था में से 67 लाख करोड़ रुपए बर्बाद हो जाते हैं। 

खुद कृषि मंत्रालय के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में करीब 92 हजार करोड़ की कीमत का अन्न हर साल बर्बाद होता है।  इतना अन्न बिहार जैसे राज्य की कुल आबादी को एक साल तक भोजन उपलब्ध करवा सकता है।

अन्न की बर्बादी कैसे जलवायु परिवर्तन करती है?

सुनने में अजीब लगता है लेकि यह सच है कि खाने की बर्बादी जलवायु में परिवर्तन करती है।

दरअसल, जब हम खाना बर्बाद करते हैं तो हम उसमें मौजूद तमाम उर्जा और पानी को भी बर्बाद कर रहे होते हैं जो उसके पूरे उत्पादन से लेकर हमारी प्लेट में आने तक लगती है। यह उर्जा या संसाधन जो अन्न के उत्पादन में प्रयोग होते हैं उनमें भी कार्बन मौजूद होता है। जब यह खाना बर्बाद होने पर लैंडफिल में जाता है और सड़ जाता है तब यह मिथेन प्रड्यूस करता है, जो कि तमाम ग्रीनहाउस गैसों में सबसे खतरनाक होती है।

ग्रीनहाउस गैस पृथ्वी को गर्म करती है। आपको बता दें कि वर्तमान में पृथ्वी का तापमान 1.5 डिग्री है। अगर यह 1 डिग्री भी बढ़ा तो इस दुनिया को बचाना नामुमकिन है। तेज़ी से पिघल रहे गलेशियर्स जल-स्तर बढ़ा रहें हैं और अगर भारत कि बात करूं तो एक प्राय द्वीप होने के नाते बढ़े हुए जल स्तर से हमें कोई नहीं बचा सकता और इस खतरे में हमारे फेंके गए खाने का बहुत बड़ा योगदान है।

क्लाइमेट चेंज को मानवता के सामने आई अब तक की सबसे बड़ी चुनौती माना जा रहा है।

क्या हैं समाधान?

इन सवालों के जवाब भी हमें ही ढूंढने होंगे जिसमें सरकार और आम जनता के तालमेल से ही समाधान निकलेगा। इसके लिए निम्न स्तरों पर कार्य करने की ज़रूरत है। जैसे-

भारत जैसे देश में हर समस्या का निवारण है, बशर्ते नीतियां और लोग समाधान निकालने और उनपर अमल करने के लिए प्रतिबद्ध हो। फिल्हाल ग्लोबल हंगर इडेक्स की यह रिपोर्ट हमारे संपन्न-खुशहाल भारत का स्वप्न तोड़ती नज़र आ रही है।

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