महात्मा गाँधी के 150 वी जयंती के अवसर पर शहडोल नगर स्थित मानस भवन में राष्ट्रीय युवा संगठन, सदगुरु मिशन व एसोसिएशन फॉर एडवांसमेंट ऑफ़ सोसाइटी थ्रू हूयुमनिटेरियन एक्शन की ओर ‘महात्मा गांधी व भारत का विभाजन’ नाम का व्याख्यान आयोजित हुआ।
इस व्याख्यान में प्रसिद्ध गाँधीवादी, विचारक, लेखक, वरिष्ट पत्रकार व गाँधी शांति प्रतिष्ठान के राष्ट्रीय अध्यक्ष कुमार प्रशांत ने बताया कि 70 साल पहले देश को आज़ाद करने की पृष्ठभूमि बन चुकी थी, पर देश के विभाजन के लॉर्ड माउन्टबेटन के प्रस्ताव पर भी गाँधी को छोड़कर सारे नेताओं के बीच सहमति बन चुकी थी। तमाम बड़े नेताओं ने गाँधी को अंधेरे में रखते हुए इसके लिए सहमति दे दी थी।
इतिहास का सच
व्याख्यान में कुमार प्रशांत ने इतिहास का सच बताते हुए कहा,
आज़ादी मिलने के कुछ दिन पहले नवाखौली में दंगा भड़का था। गाँधी दिल्ली में हो रही घटनाओं से अनभिज्ञ थे। आज़ादी के आंदोलन के पांच-सात बड़े नेताओं के बीच वॉयसराय लॉर्ड माउंटबेटन की डील हो चुकी थी। गाँधीजी दिल्ली लौटकर आये तो दो दिन तक उनसे कोई मिलने के लिए ही नहीं पहुंचा ।
कुमार प्रशांत ने गाँधी जी द्वारी लिखी एक चिट्ठी का भी ज़िक्र किया। उन्होंने बताया कि जब गाँधी के साथ यह सब घटित हुआ तब उन्होंने सरदार पटेल को एक चिट्टी लिखी, जिसमें गाँधी ने कहा,
मैं दो दिन से यहां आ चुका हूं पर ऐसा लगता है कि मेरे पास कोई काम नहीं है और दुनियाभर के सारे काम आप लोगों के पास है।
तब शाम के वक्त मौलाना अब्दुल कलाम ‘आजाद’ गांधीजी से मिलने के लिए पहुंचते हैं । गाँधी जी मौलाना आजाद से पूछते हैं,
मैंने सुना है आप लोगों ने माउन्टबेटन के सारे प्रस्ताव स्वीकार कर लिये हैं, जिसमें देश का विभाजन भी शामिल है।
आज़ाद ने कहा,
नहीं गाँधी जी, इतना बड़ा फैसला आपसे बिना पूछे कोई कैसे कर सकता है?
गाँधी ने तब लालटेन के नीचे दबे कागज का एक पुर्जा आज़ाद के सामने रख दिया जिसमें मौलाना ने लार्ड माउन्टबेटन के साथ भारत के विभाजन के लिए समझौते पर हस्ताक्षर किये थे। अगले दिन काँग्रेस कार्यसमिति की बैठक में पं. जवाहर लाल नेहरू ने कहा,
हमने कोशिश की आपको बताने की लेकिन आप इतनी दूर थे कि आप तक बात नहीं पहुंचाई जा सकी।
गाँधी हरगिज़ नहीं चाहते थे कि भारत का विभाजन हो। पर सभी नेताओं ने अपनी पोज़िशन तय कर ली थी।
गाँधी का विभाजन रोकने का अंतिम प्रयास
गाँधी अंतिम प्रयास के रूप में लॉर्ड माउन्टबेटन से मिलने गये। उन्होंने निवेदन किया कि विभाजन पर फैसला लेने में जल्दबाज़ी ना करें। लॉर्ड माउन्टबेटन ने कैलेंडर की ओर इशारा करते हुए कहा कि उनके लौटने की तारीख तय हो चुकी है।
गाँधी ने जिन्ना से कहा,
तुम्हारा पाकिस्तान तुम्हें मिलेगा बस अंग्रेज़ों से कह दो कि वे बीच में ना पड़ें। हम लोग प्यार से बंटवारा कर लेंगे।
जिन्ना ने कहा,
हमें अंग्रेज़ों की उपस्थिति में ही बंटवारा चाहिए। कल को आप अपनी बात से पलट गये तो?
तब गांधी ने कार्यसमिति के समक्ष सुझाव रखा कि सारा पावर जिन्ना को सौंप दिया जाऐ। उनका मानना था कि एक बार अंग्रेज़ निकल जायें तो फिर वे आपस में तय कर लेंगे कि क्या करना है। पं. नेहरू भी इस बात से सहमत हो गए लकिन उनका कहना था कि ठीक है जिन्ना को पावर सौंप देते हैं पर इसकी देश में जो प्रतिक्रिया होगी उसे गाँधी संभालेंगे।
गाँधीज ने कहा था कि विभाजन मेरी लाश पर होगा। वे दक्षिण अफ्रीका का जातीय संघर्ष देख चुके थे। भारत पाकिस्तान के बंटवारे से पैदा होने वाली भयावह परिस्थिति का वे अनुमान लगा चुके थे। हुआ भी यही। यह मानव इतिहास की दरिंदगी का सबसे बड़ा उदाहरण था। गाँधी समझ रहे थे कि अब आज़ादी मिल चुकी है अब ना उनका काँग्रेस में प्रभाव रह गया है ना मुसलमानों में। लाखों लोगों की लाश पर भारत का विभाजन तय है।
70 साल हो गये, जिन लोगों ने उस विभाजन को भोगा है वे आज भी सिहर जाते हैं। जिन्ना ने भी बाद में इस विभाजन का परिणाम देखकर सिर पीट लिया था। उसने इसे अपनी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी भूल माना।
यही हाल पटेल और नेहरू का था। जिन मुसलमानों के नाम पर अलग पाकिस्तान बनाया गया उनसे ज़्यादा मुसलमान तो हिन्दुस्तान में ही रह गये। यह विभाजन दो सभ्यताओं, दो भविष्यों और दो जुड़वा बच्चों को काटने जैसा था।
सावरकर ही एक अपवाद थे
आज़ादी के आन्दोलन के इतिहास की बात करते हुए बीच में सावरकर का ज़िक्र आया। कुमार प्रशांत ने सावरकर के बारे में कहा कि विनायक दामोदर राव सावरकर ही एक अपवाद थे, जो हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के होते हुए भी अंग्रेज़ों के खिलाफ आंदोलन में शामिल हुए।
पुणे में उन्होंने एक अंग्रेज़ अधिकारी की हत्या कराई थी। सावरकर को इंग्लैंड में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें पानी के जहाज से भारत लाया जा रहा था तो वे जहाज से कूदकर भागे और फ्रांस की धरती पर पहुंच गये। अंग्रेज़ सिपाहियों ने उन्हें फिर अपनी गिरफ्त मे ले लिया। उन्हें काला पानी की सज़ा दी गई और अंडमान की काल कोठरी में डाल दिया गया।
उन्होंने कैद से छुटकारा पाने के लिए अंग्रेज़ सरकार को चिट्ठी लिखी और माफी मांगी तथा सम्राट के प्रति भक्ति का वचन दिया। बहुत कम उदाहरण हैं जब सेल्यूलर जेल से कोई रिहा हुआ हो। सावरकर रत्नागिरी के जेल में लाये गये और कुछ दिन बाद उन्हें छोड़ दिया गया । सावरकर ने रिहा होने के बाद अंग्रेजों से किया गया वचन निभाया और दोबारा फिर कभी उनके खिलाफ कोई आंदोलन नहीं किया।
जेल से बाहर निकलने के बाद उनके तीन ही काम थे, हिन्दुत्व का प्रचार, मुसलमानों के प्रति द्वेष और महात्मा गाँधी की छवि को खराब करना । ये उनके ही शब्द थे । ऐसे में यदि सावरकर को वीर कहा जाता हो तो वीरता की परिभाषा बदलनी पड़ेगी।