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“क्या टीवी डिबेट्स में ज़ोर-ज़ोर से चीखना-चिल्लाना ही पत्रकारिता है?”

फोटो साभार- Flickr

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आज से कुछ साल पहले जब देश को आज़ादी मिली तो सभी ने मिलकर एक उज्ज्वल भारत का सपना देखा। सभी ने आज़ाद भारत में गुलामी मुक्त देश का सपना देखा।

लेकिन सच्चाई इससे थोड़ी अलग है। शायद देश उन्नति की राह पर होगा पर देश आज़ाद होने के बाद भी हम किसी-ना-किसी तरीके से गुलाम ही रहे हैं। कहीं पूंजीपतियों की गुलामगिरी, तो कहीं जातिवाद की गुलामगिरी, तो कहीं अफसरों की या नेताओं की। हम गुलामगिरी से मुक्त नहीं हो पाए हैं।

हमें विकास तो चाहिए पर सिर्फ अपना

आज़ादी के बाद देश में सत्ता आई, लोकतंत्र आया, एक संविधान बना, न्यायपालिका बनी, कानून बना और हमारा देश विकसित होता रहा, विकासशीलता की और बढ़ता रहा, भले ही अब विकास की गति धीमी हो या रूक चुकी हो। हम तो मानते हैं कि विकास तो हुआ है पर यह गुलामगिरी की जो आदत है, ये अब भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है। वजह, हमको तो विकास चाहिए पर विकास देश का नहीं सिर्फ अपना विकास।

पत्रकारिता में गुलामी का दौर

फोटो प्रतीकात्मक है। फोटो सोर्स- Getty

पत्रकारिता हमेशा से देश के लोकतंत्र का चौथा स्तंभ रहा है। ऐसी ताकत, जिसने अंग्रेज़ी अफसरों की कुर्सियां तक हिला दी थीं, जिसने जन-जन की आवाज़ पूरे देश में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में फैलाई। जिसकी वजह से कभी किसी को न्याय मिला, तो कभी किसी ने सच को पहचाना। एक वक्त में पत्रकारिता, पत्रकार और उसकी कलम का लोहा सभी ने माना। बदकिस्मती से आज यह पत्रकारिता और पत्रकार भी गुलामी की शिकंजे में हैं।

सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए किसी-ना-किसी ने अपना ज़मीर, अपना देश भुलाकर, अपनी आवाज़, अपनी शख्शियत को ही बेच दिया है, जिस पर जनता विश्वास करती है।

यकीन नहीं होता कि पत्रकारिता का स्तर इतना गिर चुका है कि सिर्फ ऊंची आवाज़ों को, ज़ोर-ज़ोर से चीखने को पत्रकारिता का नाम दे दिया गया है।

हर दिन डिबेट के नाम पर यहां चीखना-चिल्लाना होता है। जनता को सच से परे रखा जाता है। ये सवाल उनसे पूछते हैं, जो बखूबी अपना काम कर रहे हैं, उनसे नहीं, जिन्होंने अपना काम ठीक तरीके से नहीं किया है।

इन्हें देश से ज़्यादा अपने चैनल की TRP की चिंता है। कितनी संस्थाएं बाढ़ में फंसे लोगों की मदद कर रही है, देश के युवा बाढ़ और पटना में लगे जलजमाव में मदद कर रहे हैं, इन्हें वह सब नहीं दिखता। हां अगर कहीं कोई नेता उस प्रभावित इलाके में आ जाए तो इनके कैमरे और माइक वहां ज़रूर पहुंच जाते हैं, क्योंकि इन्हें तो नेताओं के प्रचार के लिए रखा गया है ना।

दुख होता है यह जानकर कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ इतना खोखला हो चुका है, जो देश को झुकाए जा रहा है। अगर कहीं कोई पत्रकार सच दिखा भी दे, तो या तो दिन दहाड़े उसकी हत्या हो जाती है या उसे देशद्रोही कह दिया जाता है। आशा है कि एक दिन इन पत्रकारों की आंखें खुले। काश इनकी आंखों से यह TRP का काला धुंआ हटे और ये देशहित में चीख चिल्ला सकें, ज़िम्मेदार लोगों से सवाल पूछ सकें।

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