भारतीय सिनेमा हमेशा से लोगों के दिलों पर राज करता रहा है और समाज का हर तबका फिल्मों से प्रभावित होता है। लोगों में सिनेमा का जादू इस कदर रहता है कि लोग फिल्मों में दिखाए गए सीन, गानों और डायलॉग को अपनी ज़िंदगी में उतारने लगते हैं। इससे एक बात तो ज़ाहिर है कि सिनेमा लोगों के रहन-सहन को काफी प्रभावित करता है।
सिनेमा में विभिन्न मुद्दे
आजकल विभिन्न मुद्दों पर फिल्में बन रही हैं, जिनमें कई विषय शामिल होते हैं। फैंटेसी, रोमांस, कॉमेडी के साथ ही कई सामाजिक मुद्दों पर फिल्में बन रही हैं।
सिनेमा और जलवायु परिवर्तन
बदलते क्लाइमेट चेंज अर्थात जलवायु परिवर्तन से आज हम सब परिचित हैं। एक ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते यह हमारा और हर तबके का दायित्व होता है कि वह इस विषय पर गंभीरता से सोचे तथा इसके प्रचार-प्रसार पर ध्यान दे, ताकि इस दिशा में एक चर्चा का माहौल बन सके। मीडिया और फिल्म इंडस्ट्री इस विषय में काफी बेहतर हस्तक्षेप कर सकती है, क्योंकि आज उसकी पहुंच हर तबके तक है।
सिनेमा की पहुंच को देखते हुए, हम यह कह सकते हैं कि अगर आज जलवायु परिवर्तन पर फिल्म आती है तो उसे लोगों का अच्छा रिस्पॉन्स मिल सकता है। हालांकि बॉलीवुड में काफी ऐसी फिल्में आई हैं, जिसने जलवायु के मुद्दे को दिखाया है। जैसे- लगान और सत्यम शिवम् सुन्दरम।
हालांकि अभी की जो स्थिति है, वह पहले से काफी अलग हो गई है। पहले ना तो प्रदूषण का स्तर ऐसा था और ना ही जलवायु परिवर्तन पर चर्चा का माहौल बना था कि लोग इस विषय पर बात करते। अब समय काफी बदल गया है और चर्चा का स्तर भी विशाल हो गया है, इसलिए अब इस मुद्दे को सीधे दिखाने की ज़रूरत है।
हॉलीवुड के मुकाबले बॉलीवुड में क्यों नहीं बन पा रही हैं इस मुद्दों पर फिल्में
हॉलीवुड में जलवायु परिवर्तन पर काफी फिल्में बनी हैं, जैसे- An Inconvenient Sequel: Truth to Power, Before the Flood , The 11th Hour , The Antarctica Challenge । ये फिल्में जलवायु परिवर्तन की ओर लोगों को जागरूक करती हुई दिखती हैं। इन फिल्मों की तुलना अगर बॉलीवुड की फिल्मों से करें तो हमें निराशा हाथ लगती है मगर ऐसा नहीं है कि बॉलीवुड इन विषयों को लेकर सेंसिटिव नहीं है।
हाल में आई मूवी ‘केदारनाथ’ ने बाढ़ की त्रासदी को लोगों के सामने रखने का एक बेहतरीन प्रयास किया था। इसी तरह महाराष्ट्र में वर्ष 2005 के बाढ़ पर आधारित मूवी ‘तुम मिले’ आई थी, जिसमें बाढ़ की त्रासदी को दिखाने का प्रयास किया गया था। इसी तरह रण ऑफ कच्छ में आए सूखे पर आधारित मूवी थी ‘जल’, जिसमें एक ऐसे इंसान की कहानी दिखाई गई थी, जो रेगिस्तान में पानी की तलाश के लिए भटकता है।
इसके साथ ‘कड़वी हवा’ में जलवायु परिवर्तन का किसानों पर होने वाले प्रभाव को दिखाया गया था। 1957 में आई ‘मदर इंडिया’ ने भी जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को दिखाने का प्रयास किया था। हालांकि इन सबकी कहानी और जलवायु परिवर्तन को सामने लाने का तरीका अलग-अलग था।
लेकिन या तो ये फिल्में जलवायु परिवर्तन की दिशा में लोगों को जागरूक करने में सफल नहीं रहीं या फिर जो फिल्में इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती थीं, उन फिल्मों को दर्शक नहीं मिल सकें।
जलवायु परिवर्तन पर बड़े स्तर पर क्यों नहीं बन पा रही हैं फिल्में
अगर जलवायु और सिनेमा के ज़रूरी पहलूओ पर गौर किया जाए तो एक बात जो बेहद ज़रूरी है, वह है कमाई। जलवायु परिवर्तन पर बनी फिल्में उतनी ज़्यादा कमाई नहीं कर पाती हैं। वजह इस तरह की फिल्मों को दर्शकों का उतना सपोर्ट नहीं मिल पाता है। आज भी दर्शक इन मुद्दों को लेकर इतने जागरूक नहीं हुए हैं।
मैंने जलवायु परिवर्तन पर भारतीय सिनेमा के नज़रिये को और भी बेहतर तरीके से जानने के लिए मुंबई फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े शख्सियतों से बात की, जिसमें सिनेमेटोग्राफर अक्षय ने बताया,
बेसिकली फिल्म मेकर्स सेंसिटिव टॉपिक लेते नहीं हैं। मार्केट ही कुछ ऐसा बना हुआ कि मेन स्ट्रीम मीडिया और थिएटर तक ऐसी फिल्में पहुंच नहीं पाती हैं। ऐसी फिल्मों को फिल्म फेस्टिवल में उतनी तवज्जो नहीं दी जाती है और वेब प्लैटफॉर्म्स जैसे- अमेज़न प्राइम, नेटफ्लिक्स या हुलू पर भी इन फिल्मों को स्पेस नहीं मिल पाता है।
अक्षय ने आगे बताया,
अगर ऐसी फिल्में बन भी जाती हैं तो उसके प्रमोशन में काफी दिक्कतें आती हैं। डिस्ट्रीब्यूटर की मोनोपॉली ही कुछ ऐसी होती है कि इन फिल्मों का प्रमोशन बाकि फिल्मों की तरह नहीं हो पाता है और उसे बड़ी संख्या में दर्शक नहीं मिल पाते हैं।
अक्षय का कहना है कि लोगों में भी इन विषयों से जुड़ी अवेयरनेस होनी चाहिए, क्योंकि इन विषयों पर फिल्में तभी चलेंगी जब दर्शक भी उसे एक्सेप्ट करेंगे और उसके प्रति संवेदनशील होंगे। हर तबके को जलवायु परिवर्तन की ओर जागरूक होना होगा और हर स्तर की मीडिया को बढ़-चढ़कर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को सामने लाना होगा।
इसी कड़ी में मेरी बात राइटर और डायरेक्टर अविनाश दास से भी हुई। अविनाश दास ने बताया,
हर मूवी एक कहानी पर बनती है और किसी कहानी पर मूवी बनाने के लिए समाज से ही कहानी को उठाना पड़ता है, जिसे खासतौर पर हाइलाइट किया जा सके। अभी क्लाइमेट चेंज पर डिबेट का स्तर बहुत अधिक नहीं है, इसके साथ ही इससे जुड़ी कोई कहानी नहीं है और जब तक कोई बेजोड़ कहानी ना मिले तब तक उस विषय पर जोड़ नहीं दिया जाता।
उन्होंने आगे बताया हुए कहा,
हालांकि सत्यम शिवम् सुंदरम और लगान जैसी फिल्मों ने समाज को एक आईना दिखाने का प्रयास किया है। सिनेमा आज भी पूरी तरह से रियलिस्टिक नहीं हो पाया है, वह आज भी रियलिटी और फैंटेसी के बीच जूझ रहा है।
शायद यही कारण है कि निर्माता जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दे पर फिल्म बनाने का रिस्क नहीं उठाना चाहते हैं। अगर उन्होंने फिल्म बनाई और वह दर्शकों को आकर्षित नहीं कर पाई तो फिल्म के बजट के साथ सारी मेहनत भी डूब जाती है।
इन सब बातों पर गौर करते हुए हम यह कह सकते हैं कि जलवायु परिवर्तन की दिशा में लोगों को जागरूक करने में सिनेमा एक महत्वपूर्ण भूमिका तो निभा सकता है मगर शायद अभी कुछ वक्त है।