Site icon Youth Ki Awaaz

“विधानसभा चुनावों में मोदी के नाम पर कब तक जीतेंगे स्थानीय उम्मीदवार?”

मनोहर लाल खट्टर और नरेन्द्र मोदी

मनोहर लाल खट्टर और नरेन्द्र मोदी

हरियाणा एवं महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम आते ही देश की राजनीतिक बहस की दिशा काफी भटकी हुई नज़र आ रही है। दोनों ही राज्यों में सरकार तो भाजपा की बन सकती है मगर भाजपा में आंतरिक परीक्षण का दौर शुरू हो चुका है। काँग्रेस को मिली वोट संख्या ने निश्चित ही पार्टी को उत्थान का एक मौका दिया है।

रोचक बात यह है कि दोनों ही दल दबी ज़ुबान में यह मानते हैं कि हरियाणा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिले मतों की संख्या का श्रेय प्रधानमंत्री मोदी को जाता है। ऐसे में प्रश्न यह बनता है कि पिछले पांच वर्षों में मुख्यमंत्री खट्टर की सरकार ने क्या ऐसा कोई भी काम नहीं किया है, जिसके आधार पर वह चुनाव में अपनी रिपोर्ट कार्ड के ज़रिये पुनः बहुमत प्राप्त कर सकें? अगर ऐसा है तो यह कितना वांछनीय, नैतिक एवं दीर्घकालिक प्रासंगिकता रखता है?

भीड़ को भावनात्मकता के आधार पर वोट बैंक बनाने की कोशिश

हरियाणा में इलेक्शन कैंपेन के दौरान प्रधानमंत्री मोदी। फोटो साभार- Twitter

वास्तव में कभी-कभी ऐसा लगता है कि आज के इस भारत में डिबेट मोदी से शुरू होती है ओर मोदी पर ही खत्म हो जाती है। नेताओं के भाषण में अपने काम से ज़्यादा मोदी के काम का ज़िक्र होता है और मोदी जब जनता के सामने होते हैं तो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर की बात करते हैं। अतः उनका अनुसरण करने वाले लोग भी उन्हीं मुद्दों को उठाने की बेवकूफाना हरकत कर रहे हैं।

हद तो तब हो गई जब यही ट्रेंड दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनाव प्रचार में भी देखने को मिली। अध्यक्षी पद का उम्मीदवार राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के आधार पर अपनी उम्मीदवारी तय करना चाहता था। ठीक उसी प्रकार, राज्यों में होने वाले चुनावों में जनता के ना चाहते हुए भी अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को उठाने की कोशिश होती रही है। हरियाणा उसका ताज़ा उदाहरण है।

अगर इस चुनावी नतीजे का विश्लेषण चुनाव प्रचार के दौरान नेताओं द्वारा उठाए गए मुद्दों के परिपेक्ष्य में गहराई से की जाए, तो उससे ऐसा प्रतीत होता है मानो जनता कह रही हो कि विधानसभा के चुनावों में स्थानीय मुद्दों हेतु ज़मीन पर लड़ने वालों को ही वोट मिलेगा। यह एक संकेत राजनीतिक पार्टियों के लिए स्पष्ट है कि भीड़ को भावनात्मकता के आधार पर वोट में तब्दील करने के दिन चले गए।

हालांकि यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हमारे देश के नागरिकों के पास सरकारी कामकाज को मापने का कोई फ्रेमवर्क नहीं है, जिसकी वजह से चुनाव के दौरान होने वाली घटनाएं मतदान की दिशा को काफी प्रभावित करती हैं। किसी तरह का असेस्मेंट फ्रेमवर्क नहीं होना हमारे लोकतंत्र को एक ‘पार्टी-तंत्र’ बना रहा है।

मुद्दों पर हावी है मोदी फैक्टर

पार्टियां मुद्दे लाती हैं, बहस की गहराई एवं दिशा तय करती हैं, उसी आधार पर “संकल्प पत्र” अर्थात मैनिफेस्टो जारी करती हैं, सत्ता में आने के बाद उसी आधार पर कार्य करती है और खुद ही रिपोर्ट भी जारी कर देती है। पार्टियां मुद्दों को पुन: प्रायोजित कर देती हैं और यह चक्र चलता रहता है।

भाजपा की रैली में शामिल होते लोग। फोटो साभार- फेसबुक पेज बीजेपी

अगर पार्टियों का यह कहना है कि मैनिफेस्टो बनाने में जनता की राय पूछी जाती है, तो पुनः प्रश्न यह आएगा कि हर मैनिफेस्टो में “कानून का शासन बहाल करेंगे, अपराध कम करेंगे, शिक्षा व्यवस्था सुधारेंगे और रोज़गार सृजन जैसे कई वादे किए जाते हैं। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ रहा है कि देश में हत्याओं की संख्या बढ़ रही हैं।

पंचायत चुनाव हो, नगरपालिका चुनाव हो या विधानसभा चुनाव हो, तमाम भाजपा प्रत्याशी सिर्फ मोदी के नाम पर वोट मांगते हैं। अन्य दलों की बात करें तो ज़रूरी मुद्दों के अलावा मोदी विरोध पर ही बात होती है। जन-सम्पर्क एजेंसियों ने स्टार प्रचारकों की प्रथा को बल देते हुए उन्हें सेलिब्रिटी बनाया है। ग्लोबल मार्केटिंग के ज़रिये इमेज बिल्डिंग की गई है मगर सवाल यह है कि यह अर्ध सत्य कब तक चलेगा?

वोटरों में बढ़ रही हैं आकांक्षाएं

भारत एक बहुत विशाल देश है, एक जीवंत लोकतंत्र है जो परिपक्वता की तरफ तेज़ी से बढ़ रहा है। ऐसे में यह बिल्कुल ही वाजिब नहीं है कि व्यक्ति आधारित मुद्दे देश के नेतृत्व निर्वाचन में हावी हों। हमें याद रखना होगा कि औरंगज़ेब ने भारत को अपने अनुसार मोड़ने की कोशिश की और उसका पतन हो गया।

इसका मतलब यह नहीं है कि आज की सत्तारूढ़ दल की तुलना औरंगज़ेब से हो रही है, बल्कि अर्थ यह है कि भारत की विशालता को देखते हुए देश के सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्तियों को स्थानीय नेतृत्व को मज़बूत करने का माहौल बनाना चाहिए।

फोटो साभार- Getty Images

एक सामान्य वोटर के रूप में मैं यह बिल्कुल नहीं चाहता कि माननीय प्रधानमंत्री सरकारी खर्च पर निर्वाचन प्रक्रिया में विधानसभा के सदस्य के लिए चुनाव प्रचार करने  आएं। यही बात अन्य पार्टियों के उन सदस्यों पर भी लागू होती है, जो उस विधानसभा के प्रति जवाबदेह नहीं होने के बावजूद भी चुनाव प्रचार में आ जाते हैं।

यह बिल्कुल अतार्किक है कि केंद्र में किए गए कार्यों का रिपोर्ट कार्ड विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पेश करें और लोग उस रिपोर्ट कार्ड के आधार पर विधानसभा बनाएं जिसके साथ प्रधानमंत्री की प्रत्यक्ष जवाबदेही स्थापित नहीं है।

यह प्रक्रिया विधानसभा के सदस्यों को गैर-ज़िम्मेदार बनाती है, जिसका गंभीर खतरा यह है कि केंद्र सरकार चाहे जो योजना बना ले मगर एक गैर-ज़िम्मेदाराना विधानसभा के साथ वह योजना अपने अपेक्षित उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकती।

देश की राजनीतिक केंद्र बिंदुओं को यह समझना होगा कि बढ़ती जागरूकता के साथ आम लोगों में बेहतर जीवन की आकांक्षाएं भी बढ़ रही हैं। ऐसे में जहां एक प्रभावशाली विदेश नीति, उद्योग नीति एवं सुरक्षा नीति की ज़रूरत केंद्र में है, उसी प्रकार सामाजिक सुरक्षा, त्वरित न्याय, लघु उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य, आधारभूत संरचना इत्यादि मुद्दों का स्थानीय राजनीति के केन्द्र में होना ज़रूरी है। प्रभावशाली राजनीतिक व्यक्तियों द्वारा स्थानीय मुद्दों के लिए जगह नहीं छोड़ना, लोकतंत्र को धोखा देने के बराबर ही है।

Exit mobile version