हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावी नतीजों ने ना केवल राजनीतिक पंडितों को बल्कि पक्ष-विपक्ष दोनों को असमंजस की स्थिति में लाकर छोड़ दिया है। राजनीतिक पंडित यह नहीं समझ पा रहे हैं कि इसे बीजेपी का घटता हुआ ओहदा कहें या लंबे विजयी सियासी सफर में पड़ने वाला एक हिचकोले मात्र।
बीजेपी के लिए मुश्किल यह है कि वह अब उग्र राष्ट्रवाद और कठोर हिंदुत्व के सहारे आगे बढ़े या अर्थव्यवस्था, रोज़गार और किसानों के मुद्दों के आधार पर, क्योंकि पूरे चुनाव प्रचार में बीजेपी ने इस बात पर पूरा ध्यान लगाया कि कैसे इन चुनावों को राष्ट्रवाद और हिंदुत्व रूपी अपने पसंदीदा पिच पर लाया जाए। किन्तु नतीजे उनके मुफीद नहीं आए।
विशाल जीत के लिए बीजेपी ने ना केवल इतिहास के सर्वाधिक जटिल किरदारों में से एक विनायक दामोदर सावरकर को भारत रत्न देने का ऐलान कर डाला, बल्कि प्रधानमंत्री ने तो महाराष्ट्र की रैली में यह तक कह दिया कि जो नेता या पार्टी अनुच्छेद 370 हटाने के विरुद्ध हैं, उनको डूब मरना चाहिए।
काँग्रेस समेत विपक्ष की कठिनाई यह है कि वे खुद विपक्ष बने या जनता को स्वयं ही विपक्ष बनने दें? क्योंकि विपक्षियों ने ग्राउंड पर ऐसा कोई संघर्ष नहीं किया जिससे कि उन्हें विपक्ष कहा जाए। जनादेश का मतलब पक्ष-विपक्ष दोनों के लिए स्पष्ट है।
अनुच्छेद 370 और पाकिस्तान जैसे मुद्दे चुनाव जीतने के लिए काफी नहीं हैं
बीजेपी को जहां जनता ने यह बता दिया कि राष्ट्रवाद, हिन्दुत्व, 370, पाकिस्तान और घुसपैठिया यह सब तो ठीक है लेकिन हमारे पेट से जुड़े मुद्दों की भी बात करनी होगी। वहीं, काँग्रेस समेत विपक्ष को भी इस बात का एहसास हो गया होगा कि जनता उन्हें थाली में परोसकर सत्ता देगी नहीं, बल्कि इसके लिए नेताओं को संपर्क, संवाद और संघर्ष करना होगा।
बीजेपी अगर यह चाह रही थी कि अनुच्छेद 370, सावरकर और घुसपैठियों की बात करके आसानी से सत्ता पर फिर से काबिज़ हो जाएगी, तो वह भ्रम में थी क्योंकि परिणाम तो यही बताते हैं कि उनको अर्थव्यवस्था, रोज़गार, खेती-किसानी और महंगाई की बात ना करना भाड़ी पड़ा।
काँग्रेस और विपक्ष तो मानो सत्ता के लिए नहीं, बल्कि लड़ने के लिए लड़ रही थी। इसलिए जनता ने उन्हें सत्ता ना देकर लड़ने लायक ही रखकर इस बात का संदेश दे दिया कि अगर सत्ता चाहिए तो हमारे लिए लड़ने को तैयार हो जाइए।
राष्ट्रवाद का शोर हो या हिंदुत्व का ज़ोर, बीजेपी ने इस चुनाव में वह सब कुछ किया जिससे कि महाराष्ट्र और हरियाणा में ‘मिशन 220+’और ‘अबकी बार 75 पार’ का नारा कामयाब कर सके।
बीजेपी के पास महंगाई पर बोलने के लिए कुछ था नहीं तो उसने अनुच्छेद 370 की बात की। उसके पास अर्थव्यवस्था का कोई इलाज नहीं था तो उसने पाकिस्तान की इलाज करने की बात की, युवाओं को वह रोज़गार दे नहीं पाई थी, तो उसने सावरकर को भारत रत्न देने की बात की, किसानों की आत्महत्या को दूर नहीं कर पाई तो उसने घुसपैठिये को दूर करने की बात की।
ज़रूरी मसले चुनाव से गायब रहे
बात यहां तक पहुंची कि मतदान से ठीक एक दिन पहले भारतीय सेना ने पीओके में गोलीबारी कर दी थी। वजह जो भी हो मगर समय को लेकर प्रश्न तो उठे ही! खैर, जनता मानो उधर सचेत और तैयार थी कि बस भैया बस बहुत हुई इधर-उधर की बातें, हमें तो रोज़गार चाहिए, अपने बैंक से पैसे चाहिए, अनाज के पूरे दाम चाहिए, महंगाई से निजात चाहिए तो उसने बीजेपी को संपूर्ण समर्थन ना देकर पटरी पर लौटने का अवसर दिया है।
ज़मीन से अलगाव हो या जनता से ‘मनमुटाव’ हो, काँग्रेस समेत विपक्ष ने ऐसे कई काम किए जिससे साफ पता चला कि वे जनता की लड़ाई लड़कर सत्ता में लौटना ही नहीं चाहते थे।
मसलन, पूरे देश की अर्थव्यवस्था डावांडोल है मगर कोई आंदोलन नहीं, महाराष्ट्र में किसानों की खुदकुशी लगातार जारी है मगर कोई धरना-प्रदर्शन नहीं, आधा महाराष्ट्र सूखे की चपेट में है मगर कोई संघर्ष नहीं, लोग बैंक से पैसे नहीं निकाल पा रहे हैं मगर कोई हो-हल्ला नहीं, हरियाणा में बेरोज़गारी दर 8.6% है मगर कोई वाद-विवाद नहीं, फसलों के सही दाम नहीं हैं लेकिन कोई सवाल-जवाब नहीं।
जनता की सत्ता से नाराज़गी
कुल मिलाकर यह कि विपक्ष पूरी ईमानदारी से जनता के लिए संघर्ष नहीं कर रही थी। विपक्ष के पास ना ढंग का कोई नेता था, जो पूरे पांच साल जनता के लिए सड़कों पर संघर्ष करता दिखा हो या लोगों से संवाद करता दिखा हो। जनता के लिए विपक्ष की सटीक नीति की तो पूछो ही मत। वे तय ही नहीं कर पाते कि उन्हें पाकिस्तान, अनुच्छेद 370, एनआरसी या सावरकर पर क्या स्टैंड लेना है।
दोनों राज्यों के नतीजे बताते हैं कि जनता सरकार से काफी नाराज़ थी मगर विपक्ष उनकी आवाज़ नहीं बन पाई। काँग्रेस की जनता से बेरुखी इन चुनावों में साफ नज़र आती है। उनके शीर्ष तीन नेता सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी ने दोनों चुनावी राज्यों में रैलियां की मगर कोई फर्क नहीं पड़ा।
विपक्ष की ओर से थोड़ा बहुत शरद पवार ही लड़ते हुए दिखाई दिए। उन्होंने बारिश के दौरान भी चुनाव प्रचार जारी रखा। इससे राजनीतिक पंडित समझ गए कि शरद पवार और राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी (राकांपा) के लिए यह चुनाव कितना महत्वपूर्ण है।
यह भी समझना ज़रूरी है कि शरद पवार की पार्टी का कैनवास उतना बड़ा नहीं है। इसलिए राकांपा के संघर्ष का फायदा उसे खुद तो मिला लेकिन पूरे विपक्ष को लाभ नहीं हुआ।
खैर, जनता ने बीजेपी को झटका देकर मुद्दों पर लौटने का अवसर दिया, तो वहीं विपक्ष को संजीवनी बूटी देकर जनता के लिए गंभीर होने का मौका दिया है।