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“सरकारी खामियों को छुपाने का ज़रिया है निजीकरण”

यूं तो दशकों पहले ही भारत में उदारीकरण और आर्थिक सुधारों के चलते सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई थी लेकिन रेलवे और बैंक को निजी हाथों में देने का साहस किसी सरकार में नहीं था।

अभी हाल ही में जिस तरह से विश्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष में भारत की विकास दर  6% ही रहने की बात की है, उसने प्रत्येक अर्थशास्त्रियों को कहीं ना कहीं सोचने पर मजबूर कर दिया है। 

तथाकथित मंदी के भय से सरकार खामियों के निवारण हेतू प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तरीके से निजीकरण नामक हथियार को फिर से इस्तेमाल करना चाहती है। निजीकरण शब्द जो कुछ वर्ष पहले लगभग अनभिज्ञ था, वह अब धीरे-धीरे घर करने लगा है।

रेल अब प्राइवेट हाथों में

तेजस एक्सप्रेस। फोटो सोर्स- Twitter

ज्ञात हो कि तेजस ट्रेन के चलने के उपरांत 150 ट्रेन और 50 स्टेशनों को प्राइवेट हाथों में सौंपने के लिए रेल मंत्रालय ने कवायद शुरू कर दी है। रेलमंत्री और नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कांत के बीच बातचीत के बाद रेल मंत्रालय ने यह फैसला लिया है, जिससे समूचे भारत में निजीकरण शब्द गुंजायमान होने लगा है। 

इसके विरोध में लखनऊ तथा दिल्ली के बीच चलने वाली पहली प्राइवेट ट्रेन तेजस के लॉन्च के दिन को पुरज़ोर नारेबाज़ी के साथ काला दिवस कहकर रोष प्रकट किया गया। 

विरोध को किसका साथ?

अब प्रश्न उठता है कि क्या जनता ने उक्त निजीकरण का व्यापक विरोध किया या रेल कर्मचारियों को उस विरोध में आम जनमानस का सहयोग मिला? शायद नहीं और इसका कारण एकदम स्वाभाविक है कि सरकार ने इस निजी ट्रेन के सहारे यात्रियों को काफी लुभावनी सुविधाएं प्रदान की हैं, जैसे- अगर निजी ट्रेन समय से स्टेशन नहीं पहुंचती है, तो यात्रियों को 1 घंटे का 100, 2 घंटे का 250 रूपए के साथ ही ट्रेन यात्रियों को बीमा भी दिए जाने का ऐलान है।

निजीकरण की मांग

विचारणीय तथ्य यह है कि रेलवे के निजीकरण का जन्मदाता रहा ब्रिटेन  भी अब इस निजीकरण का विरोध करते हुए रेलवे और बिजली के राष्ट्रीयकरण की मांग कर रहा है। उड्डयन मंत्री हरदीप पूरी के अनुसार, सरकार एयर इंडिया को निजी हाथों में देने के प्रति दृढ़ संकल्पित है, जिसका प्रभाव अगले महीने में देखा जा सकता है। इससे पूर्व भी लखनऊ, अहमदाबाद, जयपुर, तिरुवनंतपुरम तथा मंगलुरु एयरपोर्ट का ठेका अडानी ग्रुप को दिया गया था।

निजीकरण आज से नहीं बल्कि दशकों से चली आ रही है

1980 की बात है, जब इंदिरा गाँधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था। जिसके चलते बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य जीवन जैसी मूल सुविधाओं के लिए विदेशों और विदेशी संस्थाओं से लोन लिया गया था। इस लोन के सम्पूर्ण भाग को उपयोग कार्यों में ना लेकर इन्हें ज़रूरतमंद उपभोग कार्यों पर लगा दिया था, जिससे धीरे-धीरे राजस्व और निर्यात कम होता चला गया। 

फलस्वरूप विदेशी मुद्रा भंडार अंतिम कगार पर पहुंच गया, जिससे डिफॉल्टर की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। उक्त को नज़र करते हुए कोई भी विदेशी कंपनी लोन नहीं देना चाहती थी। 

इसी संकट से बचने के लिए 1990-91 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव तथा वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने IMF तथा वर्ल्ड बैंक से वित्तीय सहायता मांगी, जिसके चलते उनके ही शर्त के मुताबिक भारत में निजीकरण का प्रारम्भ हुआ। 

मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि जब सरकार सरकारी सेवाओं को प्रदान करने में असमर्थ हो जाती है या संबंधित सरकारी उपक्रम को चलाने में अपने को कमज़ोर समझती है, तो सरकार निजीकरण का हथियार अपनाती है।

रेल बजट का खत्म हुआ रिवाज़

2014 में आई एनडीए सरकार ने 1924 से चले आ रहे रेल बजट के रिवाज़ को खत्म करके उसको आम बजट के एक छोटे से हिस्से में तब्दील कर दिया था। तदोपरांत रेलवे कुछ सेवाओं को आईआरसीटीसी को ठेके पर मुहैया कराना शुरू कर दिया था, जिससे कहीं-ना-कहीं लोगों के दिमाग में निजीकरण की आशंकाएं उभरने लगी थीं। 

सरकारी कर्मचारियों की प्राथमिकता

अगर मर्म आंखों से देखें तो निजीकरण के प्रचलन में परोक्ष रूप से कहीं-ना-कहीं सरकारी उपक्रम जैसे-एमटीएनएल तथा बीएसनल के खस्ता हालत के कारण वे स्वयं ही हैं, क्योंकि सरकारी टेलीकॉम के कर्मचारी भी एयरटेल, वोडाफोन और जियो आदि को प्राथमिकता देते हैं। 

सरकारी कंपनियों के कर्मचारियों को इससे किसी प्रकार मतलब नहीं होता है कि उनकी कंपनी से सरकार को फायदा हो रहा है अथवा नहीं। एक यह भी अवधारणा बनी हुई है कि सरकारी कर्मचारी की एक सुरक्षित नौकरी हो होती है, जिससे वह अधिक मेहनत नहीं करना चाहते हैं।जबकि निजीकरण को रोकने के लिए सरकारी उपक्रम को मज़बूत करने की भी ज़रूरत है।

लगभग 1 वर्ष पहले फ्रांस में भी करीब चार हफ्तों तक रेलवे के निजीकरण का विरोध किया गया था। फ्रांस के रेलवे यूनियन का कहना था कि निजीकरण का मतलब नरक होता है, जिससे त्रस्त आकर उक्त यूनियन के लोगों ने वहां के राष्ट्रपति मैक्रोन का विरोध किया। 

चूंकि अब भारत में भी रेलवे के कर्मचारी इस वक्त अपनी इन मांगों को लेकर संघर्ष कर रहे है। मगर भारतीय जनों को सरकार इस मुद्दे से भटकाने के लिए हिन्दू-मुस्लिम का विवाद उठाकर निजीकरण पर काबू पा सकती है।

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