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बंगलौर में राष्ट्रगान के दौरान खड़े ना होने पर एक परिवार देशद्रोही कैसे है?

वह 23 अक्टूबर 2019 की शाम थी। मुल्क को आज़ाद हुए 72 साल, दो महीने और 8 दिन हो चुके थे। त्यौहार का समय है। ऐसे में एक परिवार कुछ अच्छा वक्त साथ बिताने की इच्छा लिए बंगलौर के एक सिनेप्लेक्स में दाखिल होता है। मीडिया के लिए पैसा कमाने का सबसे बड़ा ज़रिया इश्तिहार होते हैं, तो लाज़मी है कि पहली तवज्जो भी उन्हें ही मिलेगी।

बड़े से पर्दे पर चल रहे विज्ञापन किसी को खास आकर्षित नहीं कर रहे हैं। पॉप कॉर्न हाथ मे लिए लोग मूवी शुरू होने के इंतज़ार में बेसब्र हैं। बड़ी स्क्रीन पर तिरंगा लहराने लगता है और उसी के साथ शुरू होती है वह धुन जो महज़ संगीत नहीं, भारत की अस्मिता मानी जाती है।

जिस धुन के बजने के साथ ही 27 दिसंबर 1911 को भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस ने कोलकाता में अपनी कार्यशैली को बदल कर पूर्ण स्वराज की आगामी जंग का अकथ्य आगाज़ कर दिया था।

राष्ट्रीय गान की इस धुन के सम्मान में फिल्म देखने आया हर दर्शक खड़ा हो जाता है। आखिर हो भी क्यों नहीं, लाखों की शहादत के बाद जाकर देश आज़ाद हुआ था और आज हम बिना किसी पाबंदी के  भारत के मान सम्मान की इस सुरबद्ध गाथा को गा सकते हैं, सुन सकते हैं।

52 सेकंड के राष्ट्रीय गान के बाद, थिएटर के अंदर का शांत और खुशनुमा माहौल बदल कर तीखी नोक-झोंक में बदल चुका है। 1947 के बंटवारे से लेकर आज तक इस मुल्क का इतिहास ना जाने कितनी ही मॉब लिंचिंग की दर्द भरी दस्तानों का गवाह बना है। आज डर है कि कहीं एक और मॉब लिंचिंग की इबारत ना लिख दी जाए।

यहां वही पुराने पाकिस्तानी और देशद्रोही की उपमा वाले नारों से माहौल और तल्ख हुआ जा रहा है। बाकी तमाम दर्शक भी इस शोर की तरफ आकर्षित होते हैं। माहौल बिगड़ता देखकर फिल्म की सक्रीनिंग रुक गई है।

एक कलाकार या यूं कहें अभिनेता भी वहां मौजूद है। नाम है अरुण गौड़। वह और उनके साथी एक परिवार को घेर कर उन्हें बुरी तरह लताड़ रहे हैं। कारण जाहिर है कि यह परिवार राष्ट्रीय गान के समय पर राष्ट्र के सम्मान में खड़ा नहीं हुआ था।

मात्र 52 सेकंड के लिए ना खड़े होने वाले लोग देशद्रोही हैं?

आप में से कुछ पाठक विचार रखते होंगे कि राष्ट्रीय गान के सम्मान में मात्र 52 सेकंड के लिए ना खड़े होने वाले लोग देशद्रोही हैं और उनका यूंही बहिष्कार होना चाहिए। उनको सबक सिखाना ज़रूरी हो जाता है।

कुछ की राय इससे अलग होगी कि देश का सम्मान केवल राष्ट्र गान से नही आंका जा सकता है। लोकतंत्र में इतनी आज़ादी तो होनी चाहिए कि यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करे कि उसे राष्ट्रीय गान के सम्मान में खड़ा होना है या नहीं। वहीं दूसरा पक्ष कहता है कि देश के सम्मान से बड़ा कुछ नहीं।

हर एक पक्ष की अपनी दलीले हैं। वे अपने आप में एक लंबी बहस है और उसपर आपके अपने विचार भी होंगे। उनपर हमेशा बात होती रही है लेकिन एक तीसरा पहलू भी है जो अभी तक अछूता रहा है। वह है नियम कायदों और कानून का पक्ष।

सुप्रीम कोर्ट

नियम कायदों और कानून का पक्ष

मैं कानून और विधि का विद्यार्थी हूं और उच्च न्यायालय का एक वकील भी हूं। इसलिये आज इस तीसरे पहलू पर आपसे मुखातिब होना मौके और वक्त दोनों की नज़ाकत मानता हूं।

प्रतीक चिन्ह और नाम  (अपमान की रोकथाम) अधिनियम, 1950 [The Emblems and Names (Prevention of Improper Use) Act, 1950] और राष्ट्रीय सम्मान अधिनियम ,1971 (Prevention of Insults to National Honour Act], 1971, वह विधान है जो राष्ट्रीय गान, तिरंगे और राष्ट्रीय चिन्हों की अस्मिता की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।

इसके अलावा तिरंगे के मान सम्मान को रखने के लिए 2002 में फ्लैग कोड (flag code of India 2002) भी विशेष रूप से प्रतिपादित किया गया है। इस लंबी बहस के बीच में यह बेहद ज़रूरी हो जाता है कि उन नियम और कायदों की बात ज़रूर की जाए, जो यह तय करते हैं कि राष्ट्रीय गान के समय खड़े होना अनिवार्य है।

राष्ट्रीय गान का सम्मान देश का संविधान तो करता ही है लेकिन साथ में ही भारत सरकार द्वारा इसके लिए विशेष रूप से Order Related To National Anthem Of India भी बनाया गया है। जिसमें कई चरण हैं। जैसे,

अब यह भी एक बहस का विषय है कि थिएटर में फिल्म शुरू होने से पहले होने वाला राष्ट्रीय गान फिल्म का अभिन्न हिस्सा है या नहीं।

राष्ट्रीय गान फिल्म का अभिन्न हिस्सा है या नहीं?

अगर इसे फिल्म का हिस्सा मान लिया जाए तो कानूनी रूप में खड़े होना अनिवार्य नहीं रह जाता है लेकिन अगर इसे फिल्म से इतर समझा जाए तो खड़े होना अनिवार्य है।

कानून के जानकार इस विषय मे अलग-अलग विचार रखते हैं। ऐसे में मामला हाल ही में भारत की सर्वोच्च अदालत के सामने भी उठा और शायद उठना लाज़मी भी था। नवंबर 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान यह आदेश जारी किया कि प्रत्येक सिनेमा हॉल में मूवी के लगने से पहले राष्ट्रीय गान चलाना अनिवार्य होगा। उसके बाद से सिनेमा हॉल में राष्ट्रीय गान चलाने की प्रथा आरम्भ हो गई।

इस फैसले ने नई बहस को जन्म दिया कि थिएटर में राष्ट्रीय गान के समय खड़े होना अनिवार्य है या नहीं। इस बहस के साथ हिंसा की बहुत सी घटनाएं भी सामने आईंं। अधिकांश लोग राष्ट्रीय गान के सम्मान में खड़े होना ना केवल अपना कर्तव्य समझने लगे हैं, अपितु इसमें गर्व की अनुभूति लेते हैं। कुछ गिने चुने लोग ही इसका विरोध कर रहे हैं।

इन घटनाओं के बाद एक बार फिर से सर्वोच्च न्यायालय के लिए यह अनिवार्य हो गया है कि इस मामले में हस्तक्षेप किया जाए।

बदला गया फैसला

इस बार मामला सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के समक्ष उठा। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई में न्यायालय ने फैसला दिया,

 फिल्म से पहले राष्ट्रीय गान चलाना या ना चलाना थिएटर का अपना निजी फैसला होगा। यह किसी भी तरह से थोपा नहीं जा सकता है।

न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने इस दौरान ने इस दौरान टिप्पणी करते हुए भारत के अटॉर्नी जनरल से सवाल किया था कि आखिर किस तरह से राष्ट्रीय गान के समय थिएटर में खड़े होना देश भक्ति को साबित करता है? न्यायालय की आखिरी टिप्पणी थी कि फिल्म के दौरान राष्ट्रीय गान के दौरान खड़े होना या ना खड़े होना पूरी तरह से व्यक्ति विशेष की नैतिकता पर निर्भर करता है और यह किसी तरह से देशभक्ति को मापने का पैमाना नहीं हो सकता है।

प्रतीकात्मक तस्वीर

मेरा राष्ट्रगान के सम्मान में मत

खैर, मैं निजी रूप में हमेशा राष्ट्रीय गान के समय खड़ा होता हूं और इसमें मुझे गर्व महसूस होता है। मेरा रोम-रोम राष्ट्रीय गान के बजने पर अभिभूत होकर खड़ा हो जाता है। एक-एक शब्द अपने आप मे गर्व का एहसास करवा देता है।

आप किसी भी विचार से सहमत हों, वह मायने नहीं रखता। मायने रखता है कि कहीं आप अपना विचार किसी के ऊपर थोप तो नहीं रहे हैं अपने से असहमत लोगो के खिलाफ हिंसा करना सरासर गलत होगा।

देशभक्ति अंतरआत्मा की आवाज़ होती है। उसे साबित करने के लिए किसी पैमाने की आवश्यकता नहीं है।

भारतीय संविधान के अनुछेद 51A भी राष्ट्रीय गान के सम्मान को प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य बनाता है। हम किसी भी विचार के हों लेकिन दिन के आखिर में हम भारतीय हैं और भारत की आन, बान, शान के लिए हमारा कर्तव्यनिष्ठ होना नितांत आवश्यक है।

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