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हमने गॉंव में सामुदायिक लाइब्रेरी की स्थापना करके युवाओं में पढ़ने की ललक जगाई

सामुदायिक पुस्तकालय ऐसा स्थान है, जहां पुस्तकों के उपयोग का सुनियोजित विधान होता है। इसका उपयोग उसी समुदाय के स्टूडेंट/आम नागरिक एवं शिक्षक करते हैं।

सामुदायिक पुस्तकालय ऐसे पुस्तकालय होते हैं, जहां पर समुदाय के लोग अपने तौर-तरीके से पढ़ने-पढ़ाने और सीखने-सीखाने का माहौल बनाते हैं। कोई भी अपनी रूचि के अनुरूप इसका सदस्य बन सकता है तथा वहां की पुस्तकों का उपयोग कर सकता है।

सामुदायिक पुस्तकालय सरस्वती देवी की अराधना मंदिर होता है, जहां ज्ञानवर्धक अनेक पुस्तकें एक ही स्थान पर मिल जाती हैं। पुस्तकालय में बच्चे/व्यक्ति अपनी रुचि, योग्यता  तथा आवश्यकता के अनुरूप पुस्तकें प्राप्त कर अपने ज्ञान को बढ़ाते हैं। इस तरह के पुस्तकालयों के उपयोग से समुदाय में पढ़ने-पढ़ाने और सीखने-सीखाने का एक माहौल बनता है, इससे ही उस समुदाय का विकास और उन्नति होती है।

सार्वजनिक पुस्तकालय बनाने का मेरा सफर

बात उस समय की है जब मैं, सुजानगढ़ ब्लॉक के लोढ़सर गाँव में कम्युनिटी इमरशन के लिए रूका हुआ था। उस समय मैं यहां किसी को नहीं जानता था, क्योंकि रतनगढ़ से सुजानगढ़ आए हमें चार दिन हुए थे और पांचवे दिन हमें कम्युनिटी इमरशन के लिए जाना पड़ा।

यहां सब मेरे लिए नया था लेकिन सबसे बड़ी बात यह थी कि मुझे उस गाँव में रहने के लिए घर मिल गया था। उसके बाद वहां पर एक लड़का जो कि BA प्रथम वर्ष में पढ़ता है, मेरे पास रोज़ आने लगा। मुझे चार-पांच दिन हो गए और वह भी लगातार मेरे पास आता रहा। उसने मेरे टैबलेट में गोलसर पुस्तकालय की फोटो देखी और पूछा यह क्या है? कहां की फोटो है?

गॉंव का सामुदायिक पुस्तकालय और उसके संचालक।

मैंने उसको गोलसर पुस्तकालय के बारे में बताया कि कैसे हमने और गाँव के युवाओं ने मिलकर पुस्तकालय की स्थापना की। उसके बाद वह जब भी आता मेरे टैबलेट में फोटो देखता और बोलता कि असलम भैया हमारे गाँव में भी हो सकता है क्या? मैंने कहा क्यों नहीं बिलकुल हो सकता है। इस लड़के के मन में अपने समुदाय को आगे बढ़ाने की रूचि थी, वह चाहता था कि हमारे गाँव के लोग पढ़ें, आगे बढ़ें और हमारे गाँव के समुदाय का नाम रोशन करें।

एक दिन उसने मुझसे कई सवाल पूछे

उसने कहा कि मैं अपने गाँव वालों के लिए बहुत चिंतित हूं, मैं चाहता हूं कि मेरे गाँव के बच्चों में पढ़ने की एक ललक जागृत हो। वे स्कूल में ही नहीं बल्कि इस पुस्तकालय में भी पढ़ें और आगे बढ़ें।

उसके इन सवालों का जवाब देते हुए मैंने बताया कि हमें सबसे पहले रूम चाहिए, जो कोई गाँव वाला दे दे या पुराने पंचायत भवन का कोई कमरा मिल जाए तो हम वहां पर भी पुस्तकालय बना सकते हैं। उसके बाद किताबों के लिए गाँव के लोगों से बात करनी होगी।

इसपर उसने कहा कि हमारे गाँव के युवा इन चीज़ों में रुचि नहीं लेते हैं और मैं यह सब अकेला नहीं कर सकता हूं। मैंने उससे कहा कि क्या तुमने गॉंव के नौजवानों से इसके बारे में बात की, उसका उत्तर था नहीं। उसके बाद वह रोज़ आता लेकिन पुस्तकालय को लेकर कोई बात नहीं करता। मैंने सोचा जो जोश, हौसला था वह खत्म हो गया शायद।

लेकिन उसके दूसरे दिन वह मेरे पास दो लड़कों के साथ आया। उसने कहा कि हमें आप पत्र लिखकर दें, हम सरपंच से अनुमति लेने जा रहे हैं। मैंने उनको पीटीआर लिखकर दे दिया। शाम को उन्होंने सरपंच से पुस्तकालय से संबधित बात की और गाँव के लोगों से मीटिंग की।

वे सरपंच से अनुमति लेकर आ गएं। उस दिन मुझे लोढसर में 26 दिन हो गए थे अब मेरे पास 1 दिन बचा था लेकिन वह एक दिन मेरे लिए बहुत खुशी का दिन था। उस दिन मेरे पास 17 लड़के आएं, जिनसे मैंने पुस्तकालय से संबधित बात की। सामुदायिक पुस्तकालय के फायदे बताएं।

जिस दिन वह बच्चे मेरे पास आए थे, वह मेरा कम्युनिटी इमरशन का आखिरी दिन था और इसके बाद मैं वहां से सुजानगढ़ आ गया लेकिन बच्चों ने पुस्तकालय का काम शुरू कर दिया था और उन्होंने वे दो लोग भी ढूंढ लिए, जिन्होंने रूम की मरम्मत करवाई।

पुस्तकालय के लिए हमने कई जगहों से किताबें इकट्ठा की

20 अगस्त मैं उस गाँव में गया और गाँव के लोगों को इकट्ठा करके सामुदायिक पुस्तकालय के बारे मीटिंग की। गाँव के लोगो से और सरपंच, ग्राम सेवक से पंचायत भवन में पड़ी प्रौढ़ शिक्षा वाली पुस्तकों के लिए बात की, तो उन लोगों ने वहां से 100 पुस्तकें दीं।

100  पुस्तकों को मैंने लाकर पुस्तकालय में रखा लेकिन 100 पुस्तकें सामुदायिक पुस्तकालय के लिए उपयोगी नहीं हो सकती थीं, इसलिए मैंने दूसरे दिन गाँव के नौजवानों को इकट्ठा किया और उनके साथ मीटिंग की। मैंने उनसे कहा कि हमारे पुस्तकालय में और पुस्तकों की ज़रूरत है, किस तरह से हम अपने पुस्तकालय में और पुस्तकें ला सकते हैं, कहां-कहां से ला सकते हैं?

उनमें से एक लड़का खड़ा होकर बोला कि मेरे घर पर दीदी की पुरानी पुस्तकें हैं, मैं लेकर आता हूं। उस बच्चे को देखकर गाँव के सारे नौजवान अपने घर पर पड़ी पुरानी पुस्तकें लाने को तैयार हो गएं। देखते-ही-देखते पूरे गाँव से लगभग 700 पुस्तकें जमा हो गईं।

इसके बाद युवाओं ने अपने घर पर पड़ी महापुरुषों की पुस्तकें भी लाकर पुस्तकालय में रखीं, बाकी छोटे बच्चों के लिए मैंने एसटीआर वाइज़ पुस्तकें ऑफिस से लीं और पुस्तकालय में रखवाईं। 31 अगस्त को हमने पुस्तकालय का शुभारंभ किया, जिसमें दो लोगों ने बच्चों के लिए 200 पुस्तकों की घोषणा की।

पुस्तकालय के सदस्यों की ज़िम्मेदारियों का निर्धारण-

इन सब मुद्दों पर चर्चा होने के बाद मैंने बच्चों की एक समिति बनाई और सामुदायिक पुस्तकालय की ज़िम्मेदारी बच्चों और युवाओं को सौंप दी।उस दिन से गाँव के युवा और बच्चे मिलकर अपने सामुदायिक पुस्तकालय की देखरेख करते हैं और गाँव के बच्चों को युवा पुस्तकालय में रोज़ पढ़ाते हैं।

मैं समय-समय पर फोन पर पुस्तकालय के बारे में बात कर लेता हूं, उसकी जानकारी लेता रहता हूं और मार्गदर्शन करता रहता हूं। आज लोढ़सर गाँव का यह पुस्तकालय बहुत अच्छे तरीके से चल रहा है। आज पूरे गाँव का माहौल बदल चुका है, जो गाँव के युवा पढ़ने-लिखने में रुचि नहीं लेते थे, वे अब पुस्तकालय में आकर बच्चों को पढ़ाते हैं, बच्चों का मार्गदर्शन करते हैं, समय पर पुस्तकालय पहुंच जाते हैं।

आज माहौल ऐसा है कि रोज़ पुस्तकालय 3 से 6 बजे तक खुलता है और 70 से 75 बच्चे रोज़ आकर पुस्तकें पढ़ते हैं। वहां पर गाँव के युवा आपस में मिलकर प्रतियोगिता परिक्षाओं के लिए कोचिंग क्लास चलाते हैं। गाँव के 10 युवा खिराज, रमेश, सुनील, मुकेश, भवानी, मनोज और सुरेन्द्र रोज़ छोटे बच्चों के लिए हिन्दी, गणित और अंग्रेज़ी की कक्षा लगाते हैं। समय-समय पर दूसरे गाँव के बच्चों को लाकर लेख लिखने की प्रतियोगिता करवाते हैं और बच्चों को इनाम भी देते हैं।

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(लेखक असलम खान गॉंधी फेलो हैं।)

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