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पलामू में सरकार काट रही है 3.5 लाख पेड़, प्रतिरोध में खड़े आदिवासी

पलामू जंलग की तस्वीर। फोटो साभार- सच्चिदानंद सोरेन

पलामू जंलग की तस्वीर। फोटो साभार- सच्चिदानंद सोरेन

अपने घर के पास साग-सब्ज़ी उगाने हेतु बारी बनाने के लिए पलामू टाइगर रिज़र्व क्षेत्र में स्थित पुटूस की झाड़ी काटने के कारण परहिया आदिवासी समुदाय के अगुआ खरिदन परहिया को 55 दिनों तक जेल में रहना पड़ा। वन विभाग ने उनपर जंगल को बर्बाद करने का आरोप लगाकर जेल भेज दिया था।

जेल से बाहर आने के बाद वह न्यायालय में मुकदमा लड़ते रहे। अंततः न्यायालय ने उन्हें बरी कर दिया लेकिन वह दर्द आज भी उनके दिल में बरकरार है। जबसे उन्हें यह खबर मिली है कि मंडल डैम के निर्माण हेतु पलामू टाइगर रिज़र्व क्षेत्र के लगभग 3.5 लाख पेड़ काटे जाएंगे, उनका गुस्सा उफान पर है।

वह कहते हैं कि वन विभाग कहां चला गया, जिसने हमें सिर्फ पुटूस की झाड़ी काटने के लिए जेल भेज दिया था? हम जंगल बचाने के लिए लड़ेंगे। रैली करेंगे, धरना करेंगे और चक्का जाम करेंगे।

यहां मसला सिर्फ यह नहीं है कि अपनी आजीविका के लिए वन संपदा का उपयोग करने वाले आदिवासियों पर वन विभाग लगातार अत्याचार एवं कानूनी कार्रवाई करती है, बल्कि विकास के नाम पर वह स्वयं जगलों को उजाड़ती है। असली मसला यह है कि क्या हमलोग देश के जंगलों को विकास, आर्थिक तरक्की, देशहित या कोई और टैग लगाकर उजाड़ने की हिम्मत कर सकते हैं?

काटे जाएंगे लगभग साढ़े तीन लाख पेड़

साल का पेड़। फोटो साभार- Flickr

हम सबसे पहले यह समझ लें कि खरिदन परहिया क्यों गुस्से में है? 5 जनवरी 2019 को भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मंडल डैम से संबंधित पाइप लाइन योजना की आधारशिला रखी। इसके बाद केन्द्र सरकार ने सिंचाई विभाग की ‘उत्तरी कोयल सिंचाई परियोजना’ को पूरा करने के लिए पलामू टाइगर रिज़र्व के 1007.29 हेक्टेयर वनभूमि क्षेत्र के 3 लाख 44 हज़ार 644 पेड़ों को काटने की मंजूरी प्रदान की है।

काटे जाने वाले पेड़ों में ज़्यादातर साल के पेड़ हैं। हास्यास्पद बात यह है कि वन विभाग ने सिर्फ बड़े पेड़ों को गिना है जबकि यह प्राकृतिक जंगल का इलाका है, जिसमें हज़ारों किस्म की वनस्पितियां मौजूद हैं, जो डैम के निर्माण से स्वतः ही डूबकर समाप्त हो जाएंगे।

80 के दशक में भी काटे गए थे लाखों पेड़

हैरान करने वाली बात यह है कि इसी डैम के लिए वन विभाग ने 1981-82 में लगभग 3.5 लाख पेड़ों को काट दिया था, जिसके एवज में अब तक एक पौधा भी नहीं लगाया गया है। अब वन विभाग कह रही है कि मंडल डैम के डूब क्षेत्र में काटे जाने वाले पेड़ों के एवज में पलामू, गढ़वा एवं लातेहात ज़िले में दो हज़ार हेक्टेयर में पौधरोपन करेगा, जिसके लिए जलसंसाधन विभाग ने उसे 461 करोड़ रुपये भी दे दिया है।

मंडल डैम। फोटो साभार- Twitter

मंडल डैम के डूब क्षेत्र में 2266.72 एकड़ वन भूमि हैं। इसलिए अब एक बार फिर से वन विभाग ने भारत सरकार के वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से पेड़ काटने की स्वीकृति प्राप्त कर ली है।

काटे जाने वाले पेड़ों में सैकड़ों पेड़ 40-50 फुट ऊंटे तथा 1-1.5 व्यास की मोटाई के हैं। सवाल उठता है कि क्या वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय जंगल बचाने के लिए बनाया गया है या पेड़ काटने और जंगल बर्बाद करने हेतु आदेश पारित करने के लिए?

ज्ञात हो कि 1970 के दशक में ‘उत्तरी कोयल जलाशय परियोजना’ के तहत मंडल डैम निर्माण की योजना बनाई गई थी, जिसकी लागत 300 करोड़ रुपये थी, जो झारखंड गठन के उपरांत 1622 करोड़ रुपये हो गई थी। अब यह राशि बढ़कर 2391 करोड़ रुपये हो गई है। डैम के निर्माण में अभी तक 792 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं।

1990 के दशक में उग्रवादी हिंसा में एक इंजीनियर के मारे जाने के बाद कार्य बंद कर दिया गया था। अब एक बार फिर से मंडल डैम का निर्माण कार्य शुरू हो रहा है, जिसके लिए 2855 वर्ग किलोमीटर ज़मीन का अधिग्रहण होगा, जिसमें 15 गाँव के 1600 परिवार विस्थापित होंगे।

इस परियोजना से 1 लाख 11 हज़ार 521 हेक्टेयर ज़मीन सिंचित होगा, जिसमें झारखंड का मात्र 19 हज़ार 604 और बिहार का 91 हज़ार 917 हैक्टेयर भूमि शामिल है। यहां किस राज्य के किसानों को कितना फायदा मिलेगा, यह मुद्दा नहीं है बल्कि मूल मुद्दा यह है कि क्या हम जंगलों को उजाड़ने की हिम्मत कर सकते हैं?

हमारे देश में विकास के नाम पर जंगलों को उजाड़ने का आंकड़ा भयावह है। 1980 से 2018 तक विकास के नाम पर 26 हज़ार 194 परियोजनाओं के लिए 15,10,055.5 हेक्टेयर जंगल को उजाड़ा गया है।

मोदी के शासन काल में विकास के नाम पर 57 हज़ार 864 हेक्टेयर जंगल तबाह हुए

इसमें सबसे ज़्यादा आश्चर्य करने वाली बात यह है कि पर्यावरण संरक्षण के लिए संयुक्त राष्ट्र से ‘‘चैम्पियन ऑफ अर्थ’’ पुरस्कार जीतने वाले भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में 2014 से 2018 तक 2,347 परियोजनाओं के लिए 57 हज़ार 864.466 हेक्टेयर जंगल को विकास नामक दानव के हवाले कर दिया गया।

इतना ही नहीं, 2019 में अब तक 954 परियोजनाओं के लिए 9 हज़ार 338.655 हेक्टेयर जंगल को विकास की बली बेदी पर चढ़ाया जा चुका है।

इसके अलावा अभी कई जंगलों और पहाड़ों को विकास के नाम पर उजाड़ने की तैयारी चल रही है। भारत सरकार का वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय देश में मौजूद जंगलों और पहाड़ों को पूंजीपतियों को सौपने के लिए निरंतर प्रयासरत है। छत्तीसगढ़ के 1 साथ 70 हज़ार हेक्टेयर जंगल को कोयला एवं लौह-अयस्क के उत्खनन के लिए अडानी एवं अन्य कंपनियों को सौंपा जा रहा है, जिसके खिलाफ आदिवासी संघर्ष कर रहे हैं।

भारत के कुल क्षेत्रफल का सिर्फ 21.6 प्रतिशत वन क्षेत्र है

इसी तरह झारखंड के सारंडा जंगल के अंदर 45 हज़ार हेक्टेयर ‘नो गो एरिया’ वाले जंगल को लौह-अयस्क उत्खनन के लिए जिंदल, मित्तल, वेदांता, टाटा एवं इलेक्ट्रो स्टील जैसी कंपनियों को सौंपने तैयारी हो रही है। हमें मालूम होना चाहिए कि पर्यावरण संतुलन के लिए देश के कुल क्षेत्रफल का 33 प्रतिशत हिस्सा में जंगल होना अनिवार्य है।

फोटो साभार- Twitter

फॉरेस्ट सर्वें रिपोर्ट 2017 के अनुसार भारत के कुल क्षेत्रफल का सिर्फ 21.6 प्रतिशत वन क्षेत्र है। ऐसी स्थिति में जंगलों को विकास के नाम पर डैम में डुबोना और आर्थिक तरक्की का टैग लगाकर पूंजीपतियों को सौंपना सामूहिक आत्म हत्या की तैयारी करना नहीं तो और क्या है?

लगातार बढ़ रहा है धरती का तापमान

संयुक्त राष्ट्र की संस्थान आईपीसीसी ने 8 अक्टूबर 2018 को जलवायु परिवर्तन को लेकर रिपोर्ट जारी करते हुए दुनिया को आगह किया है कि औद्योगिक क्रांति के बाद धरती का तापमान 1.5 डिग्री बढ़ गया है अभी औसतन तापमान प्रतिवर्ष 13.5 डिग्री सेल्सियस रह रहा है, जिसे 1.5 डिग्री कम करना बहुत ज़रूरी है।

संस्थान ने कहा है कि धरती को बचाने के लिए हमारे पास सिर्फ एक दशक का समय बचा हुआ है। संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2021 से 2031 को पारिस्थितिकी पुर्नस्थापना दशक घोषित करते हुए पर्यावरण से 26 गिगाटन ग्रीन हाउस गैस को खत्म करने का लक्ष्य रखा है।

फोटो साभार- Flickr

इस ग्रीन हाउस गैस को सिर्फ प्राकृतिक तरीके यानी ज़्यादा से ज़्यादा पेड़ लगाकर, जंगल बचाकर एवं वन क्षेत्र को विस्तार करके ही हम इस लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। हम सिर्फ विकसित देशों को इसके लिए ज़िम्मेदार बनाकर धरती नहीं बचा सकते हैं। हमारे देश का क्षेत्रफल बहुत बड़ा है इसलिए धरती को बचाने में हमारी भूमिका भी बड़ी होगी।

2015 में फ्रांस के पेरिस शहर में जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए हुए समझौते में भारत सरकार ने भी हस्ताक्षर किया है, जिसके तहत दुनियां के नेताओं ने धरती का तापमान 1.5 कम करने का वादा किया गया है, लेकिन भारत सरकार ठीक इसके विपरीत काम कर रही है। यानी सरकार विकास और आर्थिक तरक्की का टैग लगाकर जंगलों को उजाड़ने में लगी हुइ है।

पेरिस समझौता चुनावी वादा नहीं हैं!

हमें समझना होगा कि चुनावी वादा खोखला हो सकता है लेकिन यदि हमने पेरिस समझौते को भी चुनावी वादा समझने की भूल की तो आगामी एक दशक के बाद धरती पर कयामत आ जाएगा। हम लोग अत्याधिक गर्मी, बाढ़, बर्फबारी, भूकंप और महामारी जैसे मानव निर्मित अपदाओं से घिर जाएंगे।

यदि हम अपना अच्छा भविष्य चाहते हैं तो पेड़ काटने तथा जंगलों और पहाड़ों को उजाड़ने से बचाना होगा। हमें केन्द्र एवं राज्य सरकारों को ज़िम्मेदार बनाना होगा। इसके अलावा हमारे पास कोई रास्ता नहीं बचा है।

ग्रेटा थनबर्ग। फोटो साभार- Getty Images

स्वीडेन की 16 वर्षी क्लाइमेट एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग, जिन्होंने धरती को बचाने के लिए स्कूल जाना बंद करते हुए संयुक्त राष्ट्र पहुंची और दुनिया के नेताओं को यह सवाल पूछते हुए स्तब्ध कर दिया था कि आपने अपने खोखले शब्दों से मेरा भविष्य छीन लिया है। आपकी हिम्मत कैसे हुई?

क्या भारत के 130 करोड़ लोगों के बीच कोई है जो हमारे देश के जंगलों को उजाड़ने वाली केन्द्र एवं राज्य सरकारों से सवाल पूछ सके कि जंगलों को उजाड़ने की आपकी हिम्मत कैसे हुई? हमारे भविष्य को दांव पर लगाने की हिम्मत आपको कहां से आई? आप कब विकास, आर्थिक तरक्की और राष्ट्रहित का ढकोसला बंद करेंगे?

हमें हर हाल में पेड़ काटना और जंगलों को उजाड़ना बंद करना होगा। यदि हम आज जंगल को बचाने के लिए उठ खड़े नहीं हुए, तो समझ लीजिए आने वाली पीढ़ी का कोई भविष्य नहीं है।

आदिवासियों के संघर्ष में छुपा है हमारा भविष्य

क्या विश्व में हो रहे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को हम अपनी आंखें मूंदकर नकार सकते हैं? हमलोग विकास, आर्थिक तरक्की और राष्ट्रहित के नाम पर कब तक केन्द्र और राज्य सरकारों को बचे-खुचे जंगलों को उजाड़ने देंगे? क्या हमें खरिदन परहिया जैसे जंगलों को बचाने के लिए लड़ रहे आदिवासियों के साथ खड़ा नहीं होना चाहिए?

क्या देशभर में जंगल बचाने के लिए लड़ रहे आदिवासी सिर्फ अपनी आजीविका के लिए लड़ रहे हैं? क्या आदिवासियों के संघर्ष में धरती और हमारा भविष्य छिपा हुआ नहीं है?

नोट: लेख में प्रयोग किए गए कुछ तथ्य ग्लैडसन डुंगडुंग की किताब, “Adivasis and Their Forest” से लिए गए हैं।

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