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“आज ज़रूरत कश्मीरियों का दिल जीतने की है, कश्मीर की ज़मीन लेने की नहीं”

Kashmir

लेखक अनुराग पांडेय दिल्ली यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। कश्मीर के इतिहास और वर्तमान स्थिति पर उनके लेखों की शृंखला की यह छठवीं कड़ी है।

लेख के पिछले पांच भागों में प्राचीन कश्मीर, मध्यकालीन कश्मीर और औपनिवेशिक कश्मीर पर चर्चा की गई साथ ही आर्टिकल 370  लेकर कई भ्रांतियों से पर्दा उठाने का प्रयास किया गया है। अब इस छठवें भाग में प्रस्तुत है आर्टिकल 370 पर एक विश्लेषण।

आर्टिकल 370 एक अस्थाई प्रावधान था, जो कश्मीर की संविधान सभा के 1957 मे खत्म होते ही स्थायी हो गया और इसी समय कश्मीर की संविधान सभा ने भी एकमत से भारत मे विलय का अनुमोदन किया। भारत ने जितने भी कानून कश्मीर पर लागू किए, चाहे वे केंद्र सूची के हों, परिशिष्ट सूची के या प्रांतीय सूची के, इन सभी पर जो कानून लागू किए गए उनको जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने अनुमोदित किया और पास किया।

कश्मीर, फोटो साभार- Pixabay

पूरी तरह से असंवैधानिक प्रक्रिया

भारतीय संसद किसी भी तरीके से या सिर्फ राष्ट्रपति के आदेश से धारा 370 में कोई छेड़छाड़ नहीं कर सकती है, इसके लिए जम्मू-कश्मीर विधानसभा का अनुमोदन आवश्यक है। किसी भी राज्य का गवर्नर उस राज्य की जनता का प्रतिनिधि नहीं होता क्योंकि वो जनता द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नहीं चुना जाता तो कश्मीर के गवर्नर को आवाम की आवाज़ नहीं माना जा सकता।

ये प्रक्रिया पूरी तरह से असंवैधानिक है और कोई भी कश्मीरी नागरिक इसको कोर्ट में चुनौती दे सकता/सकती है। इसके लिए उस व्यक्ति को भारत के मुख्य न्यायाधीश के पास जाने की भी ज़रूरत नहीं है।

आज के इस मामले में एक भी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। यहां तक की ना संसद में और ना ही कश्मीर की विधानसभा में इस मुद्दे पर कोई चर्चा ही की गई। कानून या संविधान के जानकार इस मुद्दे पर ज़्यादा अच्छे से संवैधानिक प्रावधानों को रख सकते हैं।

दूसरा, जिस दिन चुनाव घोषित हुए और जम्मू-कश्मीर की विधानसभा सदन में इस नए नियम के विरुद्ध प्रस्ताव पास कर देती है, तब भी यह नया प्रावधान खत्म हो जाएगा। इसलिए बीजेपी को परिसीमन कराने की जल्दी है ताकि जम्मू में सीटों की संख्या बढ़ जाये और उसके उम्मीदवार चुनाव जीतकर विधानसभा में इस आशय का कोई प्रस्ताव पास ही ना होने दे।

लेकिन खुद बीजेपी की प्रदेश यूनिट, हिन्दू, सिख और बौद्ध जमीन पर स्वामित्व, कश्मीर राज्य को मिले हुए विशेष दर्ज़े को खत्म नहीं करवाना चाह रहे हैं। वर्तमान में यह बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। हो सकता है कि आने वाले समय मे इस नए नियम में कुछ बदलाव देखे जाएं।

पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए उठाए गए हैं यह कदम

संसद मे झूठ बोला गया कि कश्मीर मे किसी भी क्षेत्र में विकास नहीं हुआ। लेख के पिछले भाग में इस झूठ के सबूत के तौर पर डाटा दिया गया है। कश्मीर में अगर मान भी लिया जाये कि विकास नहीं हुआ है तो विकास आर्टिकल  370 को निष्प्रभावी किए बिना भी किया जा सकता है, ना कश्मीर की जनता कुछ बोलेगी, ना कोई नेता।

राजनीतिक अनैतिकता आपको लड्डू खिला रही है। उस बात पर जो वास्तविकता से कोसों दूर है। कश्मीर में सिर्फ पूंजीपति निवेश नहीं कर पाए हैं और ना ही प्रचुर मात्रा में जो प्राकृतिक संसाधन हैं उनका दोहन करके मुनाफा कमा पाए हैं। कोई ताज्जुब नहीं अगर कश्मीर की ज़मीन ये पूंजीपति खरीदें या उन्हें लीज़ पर मिले ताकि मुनाफा कमा सकें।

35 A इसीलिए हटाया गया है लेकिन इसके लिए कानून व्यवस्था और सीमा पार आतंकवाद खत्म करना होगा और देश के सैनिक सीमाओं के साथ-साथ इन पूंजीपतियों और इनकी संपत्ति की भी सुरक्षा करेंगे। आप ही के दिये टैक्स से।

पत्रकारों की बेबुनियाद दलीलें

कई पत्रकार अचानक से कश्मीरी महिलाओं के लिए चिंतित हो गए हैं। उनका मानना है कि कश्मीर में शरीयत का कानून चलता है जिसका दुष्परिणाम महिलाओं को भुगतना पड़ता है। हालांकि कभी ऐसा कोई मामला प्रकाश में ये पत्रकार नहीं ला पाये हैं।

चलिये कश्मीरी महिला पर अत्याचार होता है, मान लेते हैं। तो जब देश के लगभग सभी कानून कश्मीर में लागू किए जा चुके हैं तो महिला सुरक्षा को लेकर भी कानून बना दिया जाता और लागू कर दिया जाता। जम्मू-कश्मीर की विधानसभा भी विरोध नहीं करती। इसके लिए आर्टिकल 370 को निर्जीव करने की और 35 A हटाने की क्या ज़रूरत थी?

फिर यही जुझारू पत्रकार बताते हैं कि कश्मीर को सबसे ज़्यादा अनुदान दिया जाता है लेकिन अनुदान राशि जनता तक नहीं पहुंचती है। इन पत्रकारों का शोध कुछ मामलों में पूरा नहीं हो पाता और जो मामले बहुत सरल हों, उनपर ये पत्रकार ज़्यादा शोध नहीं करते।

कश्मीर की कुल जनसंख्या लगभग 1.25 करोड़ है, सेना, अर्धसैनिक बल इत्यादि की संख्या 6.5 लाख से 7.5 लाख है जिसमें अभी हाल ही में 28000 प्लस 10,000 (कुल 38000) सैनिक या अर्धसैनिक बल और भेजे गए। देश की एक छोटी सी जनसंख्या वाले राज्य में इतनी बड़ी फौज रखने के लिए पैसा तो भेजना पड़ेगा, तो जो पैसा भेजा जाता है उसका अधिकांश हिस्सा सैनिक और अर्धसैनिक बलों पर खर्च होता है, जो और बढ़ सकता है अगर वहां पूंजीपति निवेश करते हैं।

तो कुल मिलाकर अनुदान वाली बात भी झूठ निकली, चलिये मान लेते हैं कि केंद्र कश्मीर को बहुत ज़्यादा अनुदान दे रहा है। 2014 में सरकार बीजेपी की आई जो 2019 में भी सरकार बनाने मे सफल रही, अनुदान अगर ज़्यादा है तो वर्तमान सरकार ने इसको न्यायोचित क्यों नहीं बनाया?

दोहरी नागरिकता और अचल संपत्ति का झूठ

अगर निवेश नहीं होने की बात है तब भी सरकार कश्मीरी विधानसभा और जनता को विश्वास में लेकर वहां पूंजी निवेश के लिए एक अध्यादेश ला सकती थी। मुझे नहीं लगता कि इस कदम का कश्मीर में कोई विरोध करता। बिना धारा 370 को निर्जीव करे और 35 A को हटाये भी पूंजीपतियों का कश्मीर में निवेश करना सुनिश्चित किया जा सकता था।

कुछ पत्रकार कुछ और आरोप लगाते हैं, जिनमें उन्होंने देश के गहन शोध करने के बाद जानकारी दी कि कश्मीर में 370 की वजह से दोहरी नागरिकता है।  दूसरा ये कि भारत की सर्वोच्च न्यायपालिका का कोई भी निर्णय या कानून की व्याख्या जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू नहीं होती। ठगी का जाल चारों तरफ बिछा हुआ है। आप भी कितना बचेंगे? खैर, ये दोनों ही बातें भी तथ्यात्मक रूप से गलत हैं, झूठ हैं। जिसे हमारे देश का मीडिया बड़े गर्व से आपको दिखा रहा है और परोस रहा है। आज की मीडिया से पत्रकारिता में नैतिकता की उम्मीद भी करना बेमानी है।

बहुत पीछे नहीं जाते हैं। सन 2016 में भारत की सर्वोच्च न्यायालय में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने Securitisation and Reconstruction of Financial Assets and Enforcement of Security Interest (SARFAESI) Act, 2002 (SARFAESI Act) के तहत जम्मू-कश्मीर उच्च नयायालय में मुकदमा दर्ज किया जो कश्मीर की ज़मीन पर मालिकाना हक़ के जुड़ा था।

उच्च न्यायालय ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के खिलाफ फैसला दिया और कहा के SARFAESI Act जम्मू कश्मीर के 1920 के संपत्ति के हस्तांतरण से संबन्धित कानून का उल्लंघन करता है इसलिए SARFAESI Act जो देश की संसद मे पास हुआ। ये एक्ट जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं किया जा सकता।

उच्च न्यायालय के इस फैसले को स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 2016 के फैसले में जम्मू-कश्मीर के फैसले को असंवेधानिक घोषित किया और कहा कि उच्च न्यायालय ने जम्मू कश्मीर के संविधान के खंड 5 का हवाला देते हुये ये फैसला दिया है।

खंड 5 जम्मू कश्मीर की विधानसभा को स्थायी नागरिकों और अचल संपत्ति पर कानून बनाने का अधिकार देता है और उच्च न्यायालय ने इसी को आधार मानकर जम्मू कश्मीर को अपने क्षेत्र मे संप्रभु (Sovereign) माना। सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के इस फैसले को पलट दिया और कहा,

हम इसमें ये जोड़ते हैं कि स्थायी नागरिकता और अचल संपत्ति के मामले में जम्मू कश्मीर के नागरिकों को दोहरी नागरिकता वाला नागरिक नहीं माना जा सकता। भारत में एक ऐसा संघीय ढांचा है जहां दोहरी नागरिकता का प्रावधान है ही नहीं। इसीलिए जम्मू-कश्मीर के नागरिक भी भारत के ही नागरिक हैं और उन पर दोहरी नागरिकता लागू नहीं होती।

सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के इस कथन को भी गलत माना जिसमें कहा गया था के भारत की संसद में बना कोई भी कानून जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं किया जा सकता और भारतीय संसद द्वारा पारित SARFAESI Act को कश्मीर पर लागू किया, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ये केस जीत गया और जम्मू कश्मीर में जो ज़मीन उसने ली थी उस पर बैंक का मालिकाना हक़ माना गया।

1950 के दशक से ही ऐसे कई मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया है। यहां सभी पर चर्चा करना संभव नहीं है। 2016 का सर्वोच्च न्यायालय का ये निर्णय कई मिथकों से पर्दा उठाता है,

फिर देश की मीडिया झूठ क्यों फैला रही है? और क्या वर्तमान सरकार के पास 70 सालों मे सर्वोच्च न्यायालय ने कश्मीर के कौन-कौन से और कितने विवादों का निबटारा किया, इसकी कोई जानकारी नहीं है?

चलिये मान लेते हैं कि वर्तमान सरकार के पास 70 सालों की सिर्फ राजनीतिक मामलों की जानकारी है लेकिन उपरोक्त वर्णित केस का फैसला तो वर्तमान सरकार के ही काल में आया ना? तो क्या लगभग 2 साल पुराने सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले की भी कोई जानकारी सरकार को नहीं है? या वर्तमान सरकार सिर्फ राजनीतिक चुनावी मुद्दों तक ही सीमित है?

कुल मिलाकर जब धारा 370 और 35A का कोई संवैधानिक-कानूनी मतलब रह ही नहीं गया, जब ये दोनों प्रावधान सिर्फ नाम के लिए ही जुड़े हुये थे, जब सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसले जम्मू-कश्मीर पर लागू किए गए, जब जम्मू-कश्मीर के लोगों के पास दोहरी नागरिकता है ही नहीं, जब धारा 370 से देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता पर कोई खतरा है ही नहीं, तब इन दोनों प्रावधानों को असंवैधानिक तरीके से निर्जीव करने और हटाने का औचित्य क्या है? क्यों लद्दाख को बिना विधानसभा दिये केंद्र शासित राज्य घोषित किया गया? क्यों जम्मू कश्मीर को दंतविहीन विधान सभा देकर उसे केंद्र शासित क्षेत्र बनाया गया?

लेकिन बीजेपी ने धारा 370 को निर्जीव किया, 35A को हटाया, ताकि उसके जिंगोईस्ट समर्थक खुशियां मना सकें, जिनको कश्मीर के लोगों से कोई लगाव नहीं है। बस कश्मीर-कश्मीर का राग अलापते हैं और दूसरा देश के बड़े उद्योगपति वहां निवेश कर सकें।

आने वाले कुछ विधानसभा चुनावों में बीजेपी इस मुद्दे का फायदा भी लेगी। कश्मीर से या उसके विकास से कोई लेना देना नहीं है, सिर्फ अपना एजेंडा चलाना है ताकि सत्ता से भी दूर ना हो, पूंजीपतियों को मुनाफा भी हो और अपने जिंगोईस्ट समर्थकों को खुश भी रखा जा सके।

अभी हाल ही में किसी एम एल शर्मा ने इस नए प्रावधान के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में एक केस दायर किया है। ये आरएसएस से प्रभावित हैं और जब भी इन्हें लगता है कि वर्तमान सरकार के किसी असंवैधानिक फैसले को कोर्ट में चुनौती का सामना करना पड़ सकता है तो ये बहुत कमज़ोर केस बना कर सर्वोच्च न्यायालय में एक पीआईएल (जनहित याचिका) दायर कर देते हैं। नतीजा कोर्ट मामले को रद्द कर देता है और वर्तमान सरकार के असंवैधानिक फैसले संवैधानिक बन जाते हैं। राफेल विवाद में जो केस इन्होने फ़ाइल किया था और उस पर जो कोर्ट का निर्णय आया था वो जगजाहिर है।

कश्मीरी पंडित

कश्मीरी पंडितों का दुख और उससे जुड़ी भ्रांतियां

उम्मीद है सभी झूठ से पर्दा उठ गया होगा लेकिन एक सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर से भी पर्दा उठाना ज़रूरी है। इस मुद्दे को लेकर भी समाज में कई भ्रांतियां हैं। ये मुद्दा है कश्मीरी पंडितों का मुद्दा। किसी को एक पल में उसके घर से बेघर कर देने का दर्द कश्मीरी पंडितों से ज़्यादा किसी ने शायद ही अनुभव किया हो।

वह दौर जो 80 के दशक का अंत और 90 के दशक के अंत तक चला। त्रासदी, दुख, अवसाद से भरा था जहां आतंकवादियों ने कश्मीरी पंडितों को घाटी से भगाया, अत्याचार किया, मार काट की। आज तक कश्मीरी पंडितों को वापस घाटी मे बसाने के लिए किसी भी सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया।

80 के दशक के अंत का दौर और 90 के दशक तक पूरा भारत उथल पुथल के दौर से गुज़र रहा था। राम जन्म भूमि आंदोलन, मण्डल कमिशन, भूमंडलीकरण, जाति आधारित दंगे, आरक्षण के खिलाफ दंगे, देश की जर्जर अर्थव्यवस्था, बेरोज़गारी, महंगाई इत्यादि भारत के सामने एक बड़ी चुनौती के रूप में खड़े थे।

कश्मीर भी अछूता नहीं था। वहां आतंकवाद ने नए सिरे से सर उठाना शुरू किया। हालांकि कश्मीर में आतंकवाद 60 और 70 के दशक में अल फतह नाम के संगठन ने शुरू करने की कोशिश करी लेकिन अल फतह सफल नहीं हुआ। आतंकवाद को कश्मीर में उपजाऊ ज़मीन 80 के दशक में मिली। उस समय केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी, जिसे भारतीय जनता पार्टी ने समर्थन दिया था।

जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (कश्मीर का एक आतंकवादी संगठन) ने कश्मीर में आज़ादी का नारा दिया और कश्मीरी पंडितों को घाटी से निकाला गया। यह एक पागलपन था, इस पागलपन में सिर्फ कश्मीरी पंडित ही नहीं, जो भी भारत के समर्थक थे उन्हें मारा गया। दूरदर्शन को सरकार का प्रवक्ता माना जाता था, इसलिए लासा कौल जो दूरदर्शन के निदेशक थे, मार दिये गए। मुसलमानों के धर्मगुरु मीर वाइज़ भी मारे गए क्योंकि उन्होने आतंकवादियों का समर्थन करने से मना कर दिया था।

जज नीलकांत को मारा गया तो उसी समय मौलाना मदूदी भी मारे गए। बीजेपी के टीका लाल टपलू को मारा गया तो नेशनल कॉन्फ्रेंस के मुहम्मद युसुफ भी आतंकवाद की भेट चढ़े। कश्मीरी पंडितों को मारा गया, सूचना विभाग के निदेशक पुष्कर नाथ हांडू मारे गए, पंडितों के विस्थापन का विरोध कर रहे हृदयनाथ को भी मार दिया गया, इन्हीं के साथ साथ इंस्पेक्टर अली मुहम्मद वटाली, कश्मीर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर मुशीरूल हक़, पूर्व विधायक मीर मुस्तफा, अब्दुल गनी लोन भी आतंकवादियों द्वारा मारे गए।

हज़ारों कश्मीरी पंडितों को मारा गया तो हजारों कश्मीरी मुसलमानों को भी मारा गया लेकिन क्या सारे कश्मीरी मुसलमान कश्मीरी पंडितों के विरोधी थे, जैसा भ्रम फैलाया जाता है? अगर ऐसा होता तो घाटी में मुस्लिम आबादी लगभग 96 प्रतिशत थी और कश्मीरी पंडित सिर्फ 4 प्रतिशत।

आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि अगर यह दावा सही होता तो कितने कश्मीरी पंडित बच पाते। पलायन क्यों हुआ? जबकि कई जगहों पर मुस्लिम कश्मीरी पंडितों के घरों के बाहर पहरा दे रहे थे और जब आतंकवादियों ने उन मुस्लिम्स को भी मारना शुरू किया जो पंडितों को बचा रहे थे तब कश्मीरी पंडितो ने पलायन शुरू किया। कश्मीर ही नहीं देश की फिज़ाओं मे आपसी भाई चारा और प्यार आज भी है, नफरत करने वाले या फैलाने वाले बहुत कम हैं।

कश्मीरी पंडितों के साथ मुसलमानों ने भी पलायन किया

इस आतंकवादी घटना में हज़ारों मुसलमानो को भी मारा गया। 50 से 60 हज़ार मुसलमान घाटी छोड़ने पर विवश हुए। कुछ हज़ार मुसलमान परिवारों को आतंकवादियों ने बंधक बनाया, उन परिवारों के साथ क्या हुआ आज तक किसी को पता नहीं। जो 50 या 60 हज़ार मुस्लिम कश्मीर से बाहर आए उन्हें शक की नज़रों से देखा गया। हालांकि वो आतंकवाद के दबाव में या सरकारो की बेरुखी से भी कभी विद्रोही नहीं बने।

कश्मीरी पंडितों को तो सरकार की सहानुभूति मिल गई, सरपरस्ती मिल गई लेकिन इन मुस्लिम परिवारों की आवाज़ आज तक कोई नहीं बन पाया। वे पार्टियां भी नहीं जो अपने को मुस्लिम की हितेशी घोषित करती हैं।

कश्मीर से जब कश्मीरी पंडितो का और मुस्लिम परिवारों का पलायन हो रहा था, तब उस दौर में बीजेपी समर्थित विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी। बीजेपी ने श्री जगमोहन को (जो बी जे पी के सक्रिय सदस्य थे और कई मुख्य पदों पर रह चुके थे साथ ही कुछ चुनाव भी जीते थे) कश्मीर का गवर्नर बनाया।

कश्मीर, फोटो साभार- Pixabay

आतंकवादियों को जैसा जवाब 60 और 70 के दशक में दिया गया, वैसा जवाब ना जगमोहन ने दिया और ना ही केंद्र में सरकार का समर्थन कर रही बीजेपी ने और ना सरकार ने दिया। बल्कि इन्होंने कश्मीरी पंडितों का जम्मू मे पलायन करने में मदद की। जिन कैंपों में कश्मीरी पंडितों को रखा गया, उन कैंपों के हालात आज भी बद्दतर है। बाकी कश्मीरी पंडित देश के विभिन्न भागों मे या विदेश में बस गए।

पलायन किए हुए मुस्लिम्स तो शायद कश्मीर को भूल चुके हैं क्योंकि देश उन्हें भूल चुका है। लोग उन मुस्लिम्स की शहादत को भी भूल गए हैं जिन्होंने अपनी और अपने परिवार की जान देकर या तो कश्मीरी पंडितों को बचाया या उनके पलायन मे मदद की। जिन कश्मीरी पंडितों का मुद्दा बीजेपी उठाती रहती है, वह समस्या दी हुई इसी दल की है।

कुछ कश्मीरी पंडित बीजेपी में शुरू से थे या बाद मे शामिल हुए लेकिन कश्मीरी पंडितों का एक बड़ा तबका आज भी कश्मीरियत को नहीं भूला है और ना ही वे मुसलमान भूले हैं। आज भी दोनों अपने घर वापस जाने का इंतजार कर रहे हैं।

पिछले 5 सालों में कश्मीरी पंडितों की घर वापसी के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया, और हम सभी जानते हैं के धारा 370 को निर्जीव करके या 35a को खत्म करके भी सरकार कश्मीरी पंडितों की घर वापसी के लिए कुछ नहीं करेगी।

कश्मीरी पंडितों की जगह बाबरी मस्जिद था मुद्दा

वैसे एक सवाल पूछा जाता है कि जब कश्मीर में ये अत्याचार हो रहे थे तब आप क्या कर रहे थे? यह सवाल किसी ने आरएसएस से पूछा कभी? जो आरएसएस आज पाकिस्तान से लड़ने के लिए, सैनिकों की मदद करने के लिए अपने स्वयंसेवकों को भेजने का दावा करती है, उसी आरएसएस के स्वयंसेवक उस दौर में क्या कर रहे थे, जब देश को शायद उनकी सेवाओं की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी।

बाबरी मस्जिद

आरएसएस के स्वयंसेवकों ने क्यों सैनिक बनकर आतंकवादियों के हमले का माकूल जवाब नहीं दिये, जबकि केंद्र में बीजेपी समर्थित सरकार थी। ये स्वयंसेवक उस समय राम जन्म भूमि के लिए देशव्यापी आंदोलन भी चला रहे थे, हिन्दू जागृति में लगे थे। फिर कश्मीरी पंडितों के मामले मे आंख कान क्यों बंद कर लिए?

बीजेपी या आरएसएस ने कश्मीरी पंडितों की सहायता के लिए क्यों कोई प्रस्ताव पास नहीं करवाया? 5 साल जब नरसिंह राव की काँग्रेस सरकार थी तब बाबरी मस्जिद गिरा दी गई। यकीन मानिए जब नरसिंह राव बाबरी मस्जिद नहीं बचा पाये तो वे उस समय आरएसएस को अपने स्वयंसेवक कश्मीर भेजने से भी नहीं रोकते। देशहित में इससे बड़ा दूसरा काम और क्या हो सकता था? वर्तमान सरकार को ये समझना चाहिए के 70 सालों में इनका भी एक इतिहास रहा है।

370 को निर्जीव करने से पहले, 35 A को खत्म करने से पहले सरकार ने हिंदुओं की पवित्र अमरनाथ यात्रा रद्द की। जम्मू कश्मीर में इंटरनेट, टेलीफोन, मोबाइल सेवाएं बंद की, सैन्य बल बढ़ा दिया। अगर जम्मू कश्मीर के लोग, चाहे वो मुस्लिम हों, हिन्दू हों, सिख हों या बौद्ध हों सरकार के इस कदम का समर्थन कर रहे थे तो सरकार को यह सब करने की क्या जरूरत थी?

अगर सिर्फ मुस्लिम्स ही सरकार का विरोध करते तो सरकार को सिर्फ घाटी मे ही ये सब सेवाएं बंद करनी चाहिए थीं लेकिन सरकार ने पूरे जम्मू-कश्मीर-लद्दाख में ये सब किया, शायद सरकार कश्मीरियत का मतलब जानती है और आप नहीं जानते। आज ज़रूरत कश्मीरियों का दिल जीतने की है, उनसे वार्ता करने की है, गलतफहमियां दूर करने की है; कश्मीर की ज़मीन लेने की नहीं।

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यह लेख पूर्व में 14 अगस्त 2019 को डॉ अनुराग पांडेय द्वारा “इंडियन डेमोक्रेसी” में  प्रकाशित हुआ है।

 

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