“विकास” केवल आर्थिक वृद्धि हीं नहीं होता। आर्थिक वृद्धि और विकास में बहुत फर्क होता है। विकास एक “उद्देश्य” है और आर्थिक वृद्धि केवल माध्यम। विकास का मतलब यह है कि जीवन की गुणवत्ता बढ़ रही है व आम लोगों के जीवन में सुधार लाया जा रहा है।
विकास का दूसरा नाम है भूख से आज़ादी, बीमारी और गरीबी से आज़ादी, शोषण से आज़ादी, असमानता से आज़ादी, अंधविश्वास से आज़ादी, हिंसा से आज़ादी व शिक्षा की आज़ादी।
व्यवसायिक घरानों को ध्यान में रखकर बनाई गई नीतियां
अजीब बात यह है कि स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा व जीवन की गुणवत्ता, विकास का आधार होने के बावजूद लोकतंत्र में अपने लिए चर्चा की जगह नहीं बना पाया है। पिछले चार सालों में केंद्र सरकार ने सामाजिक नीति में कोई रुचि नहीं ली है।
चिकित्सा शिक्षा व अभियंत्रण शिक्षा के लिए ऊपरी आयु सीमा निर्धारित कर, चिकित्सा शिक्षा जगत के माफियाओं को फायदा पहुंचाया गया। न्याय की आशा से सभी पीड़ित अभ्यर्थी सर्वोच्च न्यायालय की शरण मे हैं।
2011 में UPSC में CSAT लागू होने से हिंदी भाषी युवा अभ्यर्थियों को बुरी तरह प्रभावित किया गया। अब जब वे अभ्यर्थी क्षतिपूर्ति अवसरों की मांग कर रहे हैं, जो उनका जायज अधिकार भी है, तो केंद्र सरकारें उनकी नहीं सुन रही है। यहां तक की उनके शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को बलपूर्वक दबाया जा रहा है।
हाल हीं में बहुप्रतीक्षित मांग, देश के आर्थिक रूप से पिछड़े जन समुदाय के अभ्यर्थियों के लिए मनमाने ढंग से EWS के अंतर्गत 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया व बिना किसी ठोस प्रारूप के लागू कर दिया गया। अब आरक्षण प्रारूप के अंतर्गत उन्हें आयु सीमा व अवसरों की छूट नहीं दी जा रही है।
कुल मिलाकर कहा जाए तो व्यवसायिक घरानों को नीति निर्धारण के केंद्र में रख कर नई नीतियां बनाई गईं, जिससे ग्रामीण भारत की जनता व युवा वर्ग में सरकार के प्रति घृणा काफी बढ़ी है। लोकतंत्र में आस्था कम हुई व लोग सोचने पर मजबूर हुए कि आखिर किसलिए हम सरकार चुनते हैं?
ऐसे नीतिगत फैसले से लोकतंत्र की नींव कमज़ोर पड़ती जा रही है, जिसका प्रमुख कारण नीति निर्धारण में जन-भागीदारी की अनुपस्थिति है।
जन-भागीदारी बहुत आवश्यक है
वर्तमान समय में हमारे विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक गणराज्य के अस्तित्व की रक्षा इसी में है कि जन समस्याओं का समाधान जनसहयोग से निकाला जाए तो बेहतर होगा।
प्रतिनिधित्व मात्र से जनतंत्र सफल नहीं हो सकता, जनभागीदारी भी बहुत आवश्यक है। वर्तमान लोकतंत्र के इस नए दौर में सरकारों को नीति निर्धारण में जन भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। केवल 5 साल में एक बार चुनी हुई सरकार से अब काम नहीं चलने वाला।
वर्तमान लोकतंत्र इस सिद्धांत पर टिका है कि कोई एक व्यक्ति बहुत से लोगों का प्रतिनिधित्व कर सकता है। होता यह है कि जिसे लोग एक बार अपना प्रतिनिधि चुने लेते हैं, उसके पास निर्णय लेने का अधिकार हस्तांतरित हो जाता है और यहीं से जन शोषण का दौर शुरू होता है।
परिणामस्वरूप किसी तरह चुनाव जीत लेने के बाद जनप्रतिनिधि स्वार्थ रंजित हो जाते हैं और पूंजीपतियों, ठेकेदारों, नौकरशाहों से ज़्यादा नज़दीक हो जाते हैं। यही कारण है कि चुनाव के तुरंत बाद ही लोगों में असंतोष फैलने लगता है जो धीरे-धीरे आंदोलन का रूप लेने लगता है फिर सरकार उसे दबाने में लग जाती है।
लोकतंत्र का यह स्वरूप बहुत दिनों तक नहीं चलने वाला क्योंकि इन आंदोलनों को दबाने के लिए सरकारें बल का प्रयोग करती है। इसलिए अब समय आ गया है कि जनप्रतिनिधियों की समझ और तौर तरीकों में बदलाव लाया जाए। समस्याओं के आधार पर एकजुट हुई जनता/युवाओं के साथ सरकार का सीधा संवाद होना बहुत ही आवश्यक है।
आर्थिक नीति से सबसे ज़्यादा प्रभावित राष्ट्र का युवा वर्ग
व्यवस्था में कुछ इस तरह का परिवर्तन होना चाहिए ताकि नीति निर्धारण केवल जनप्रतिनिधियों पर निर्भर ना रहे, बल्कि प्रभावित जनता/युवावर्ग की भी उसमें हिस्सेदारी हो।
इसी तरह की भागीदारी की व्यवस्था छात्रों के साथ भी होनी चाहिए क्योंकि युवावर्ग किसी भी देश के चर्मोत्कर्ष की वाहिनी होता है। इन्हें गुमराह कर कोई भी व्यवस्था ज़्यादा दिनों तक सुदृढ़ व टिकाऊ नहीं रह सकती। नई आर्थिक नीति से सबसे ज़्यादा प्रभावित राष्ट्र का युवा वर्ग ही है।
केंद्रीय व राज्य सरकारों के पास कोई ठोस युवा नीति ही नहीं है। कभी छात्रों से यह पूछा ही नहीं जाता है कि विश्वविद्यालयों में उनकी क्या समस्या है, उनके रोज़गार की समस्या पर उनसे कभी कोई सरकार संवाद नहीं करती।
आज UPSC में CSAT पद्धति थोपने के कारण अपनी वास्तविक पहचान से वंचित युवा कॉम्पंसेटरी अटेम्पट्स की मांग को लेकर सड़कों पर है। अभियंत्रण व चिकित्सा शिक्षार्थी सर्वोच्च न्यायालय में शरण लिए हुए हैं, ऐसी स्थिति नीति निर्धारण में जन-सहभागिता की कमी के कारण उत्पन्न हुए हैं।
यदि शिक्षा हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है तो क्या लोकतांत्रिक सरकारों का दायित्व नहीं है कि हर युवा को उसकी योग्यता के आधार पर शिक्षा मिल सके। उसकी जाति, उसका धर्म व सबसे बड़ी विडंबना उसकी आर्थिक बदहाली उसके रास्ते में बाधक ना हो।
भारत की विशाल युवा जनसंख्या को यदि हम शिक्षा रोज़गार नहीं दे पाए, तो इस जनतंत्र की हम रक्षा भी नहीं कर पाएंगे। हमें समझना होगा कि प्रतियोगिता परीक्षाओं में (शिक्षा/रोजगार हेतु ) ऊपरी आयुसीमा निर्धारण की नीति कहां तक उचित है ?