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हज़ारों साल पहले वध किए जा चुके रावण को यह समाज क्यों नहीं भुला पा रहा है?

रावण दहन

रावण दहन

दशहरे में सभी लोगों ने मेला धुमने के साथ-सााथ पंडाल की सुंदरता के बीच खूब सेल्फियां ली। फेसबुक, व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम पर तस्वीरें ही तस्वीरें दिखाई पड़ी। दशहरे पर कुछ लोगों ने ऐसे मैसेजेज़ “असत्य और अंधेरे पर उजाले की विजय की शुभकामनाएं” के ज़रिये अपने अंदर के रावण और महिषासुरों के वध की गुज़ारिश भी की। खैर, सब अच्छे से हो गया।

इन सबके बीच मैं सोचता हूं कि सीता हरण कांड के ना जाने कितने हज़ार साल गुज़र गए, रावण को एक बार नहीं, बल्कि हज़ारों दफे उसके कुकर्मों की सज़ा भी मिली मगर हर दशहरे के रोज़ लोग जोश से लबरेज़ होकर रावण दहन करते हैं। अगर स्वर्ग-नरक में कहीं भी रावण बैठकर यह सब देख रहा होगा, तो बेचारा सिर पीट लेता होगा अपना।

चलिए यह तो मज़ाक की बातें थीं। कुछ कठिन सवाल भी कर लेते हैं अब। रावण को याद करने की इतनी ज़रूरत क्यों हैं इस दुनिया को? क्या इसमें समाज दोषी नहीं है कि उसे सिर्फ राम या दुर्गा की अच्छाइयों से प्रेरणा नहीं मिलती, बल्कि रावण और महिसासुर के दोषों का ज़िक्र और उनके वध की नुमाइश आवश्यक है उसके लिए? कौन सी ऐसी सीख है जो सहस्त्राब्दियों तक दोहराने के बाद भी हम भारतीय सीख नहीं सके हैं?

रावण दहन से पहले की तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

हमारे समाज में कई ऐसी भ्रांतियां हैं जिन्हें तोड़ने की ज़रूरत है। क्या हम सबने ही मिलकर काले रंग को बुरा नहीं बना दिया है? काला तो बस एक रंग है मगर हम सबने ही उसको सदियों से बुराई के साथ जोड़कर काले होने को ही एक बुरी बात बना दिया है। इसी का परिणाम है कि सब फेयरनेस क्रीम लगाकर गोरा होने में लगे हैं।

आप ही सोचिये की काला नहीं होता तो उजले का इतना भाव होता? अंधेरे से ही तो उजाले का महत्व है. क्या अंधेरा और उजाला दोनों ही बराबर नहीं हैं?

आज के समाज की प्रायॉरिटी ही गलत है शायद। रावण और महिसासुर के बारे में तो लोग खुलेआम कहते हैं कि ये किरदार बुरे हैं मगर वे यह क्यों नहीं समझ पाते कि कोई भी पूरा का पूरा बुरा नहीं होता है। अंधेरे-उजाले सबके चरित्र का अभिन्न हिस्सा होते हैं। राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम थे। मर्यादा की रक्षा हो इसलिए पत्नी को अकेले जंगल में रहने का आदेश जारी कर डाला। बेचारी जब वनवास से लौटीं तब उन्हें अग्नि-परीक्षा भी देनी पड़ी। आधुनिक युग की कौन सी महिला ऐसा पति अपने लिए चाहती होगी भला जो दुनिया की बातों में आकर उसका हाथ छोड़ दे?

फिर अपने वर्तमान भारतीय समाज के डीएनए में बसे विरोधाभास पर नज़र फिराइए। 2 अक्टूबर को हम सब ने गाँधी जयंती मनाई। पूरी दुनिया ने अहिंसा दिवस मनाया और यहां तक कि  गाँधीवादी मूल्यों के जीवन में प्रयोग का खुद प्रधानमंत्रीजी ने आह्वान किया मगर हमें समझना होगा कि असल ज़िन्दगी में लोग शायद ही गाँधी के बताए मार्ग पर चलना चाहेंगे।

अब 8 अक्टूबर को पूरा देश हज़ारों साल पहले वध किए जा चुके रावण का वध कर रहा है। समाज मे बसे रावणों को दुश्मन बता रहा है 
मगर विरोधाभास मानवीय प्रकृति है। कहते हैं ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की। अब आप सोचिए कि भगवान ने अगर दुनिया बनाई तो उसमें बुराई कहां से आ गई?

सब कुछ अच्छा, पुनीत और उजाले का सिपाही होना चहिये था, है ना? मगर ऐसा नहीं है, क्योंकि एक तो यह कि विरोधाभासों की उधेरबून में ही मानवीय संस्कृतियां फलती-फूलती आई हैं और दूसरी यह कि अंधेरा बुरा नहीं है, ना हीं उजाला हमेशा अच्छा। दोनों ही ज़रूरी हैं, बस इतनी सी बात है।

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