Site icon Youth Ki Awaaz

पीरियड्स में छुट्टी की पॉलिसी से बढ़ सकती है अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी

हमारे देश में मेंस्ट्रुअल लीव पॉलिसी पर चर्चा एक स्वागत योग्य कदम है। हालांकि कई लोग इस मामले में आपत्ति जताते हुए यह दलील देते हैं कि मेंस्ट्रुअल लीव पॉलिसी भारतीय संविधान की धारा 15 (1) द्वारा प्रदत ‘समानता के अधिकार’ के विरूद्ध है, जिसमें कहा गया है कि राज्य धर्म, संप्रदाय, जाति, लिंग, जन्म स्थान या अन्य किसी भी आधार पर अपने किसी नागरिक से कोई भेदभाव नहीं करेगा।

हालांकि संविधान की धारा-15 (3) में राज्य को अपने यहां रहने वाली महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान सुनिश्चित करने का अधिकार भी दिया गया है, जो कि धारा-15 (1) का अपवाद है।

भारतीय समाज में, जहां कि सदियों से महिलाओं के साथ भेदभाव होता रहा है, वहां महिलाओं तथा पुरुषों के मध्य सामाजिक समता स्थापित करने के लिए इस तरह के विभेदकारी प्रावधान नितांत ज़रूरी हैं। वर्ष 1995 के आंध्र प्रदेश बनाम पी बी विजयकुमार केस में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था,

राज्य सरकार चाहे, तो धारा-15 (3) के तहत प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए विशेष प्रावधान बना सकता है।

इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो मेंसट्रुअल लीव पॉलिसी महिला अधिकारों के हित में बनाए गए अन्य कानूनों मसलन-मातृत्व लाभ कानून (1961), हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून (2005) आदि की तरह ही है और यह कहीं से भी धारा-15 (1) का उल्लंघन नहीं करता है।
संविधान की धारा-42 में भी यह उल्लेखित है कि ‘राज्य महिलाओं को कार्य एवं मातृत्व सहायता प्रदान करने के लिए विशेष प्रावधान बनाएगा।

मेंस्ट्रुअल लीव पॉलिसी की ज़रूरत क्यों?

फोटो सोर्स- pexels.com

हालांकि सरकार ने पहले से ही महिला कामगारों के लिए विभिन्न श्रम कानूनों जैसे कि फैक्ट्री एक्ट-1948, मातृत्व लाभ कानून-1961 आदि के तहत सुरक्षा के प्रावधान निर्धारित कर रखे हैं, ऐसे में कई लोगों को यह आपत्ति है कि फिर अलग से मेंस्ट्रुअल लीव पॉलिसी की ज़रूरत क्यों?
उनकी दलील है कि ‘ऐसे-वैसे कारणों’ से महिलाओं को उनसे ज़्यादा छुट्टियां नहीं मिलनी चाहिए, क्योंकि जब हम कार्यस्थल में समानता की बात करते हैं, तो यह समानता हर स्तर और स्थिति में दिखनी भी चाहिए। इस वजह से अक्सर महिलाओं को अपने पुरुष सहकर्मियों की तुलना में भेदभाव का शिकार होना पड़ता है।

कई कंपनियां यह दलील देती हैं कि वे महिलाकर्मियों की नियुक्ति को प्राथमिकता इसलिए नहीं देती हैं, क्योंकि कभी उन्हें मेंस्ट्रुसअल लीव चाहिए होता है, तो कभी मैटरनिटी लीव। कई बार फैमिली या अन्य कारणों से वे छुट्टियों की मांग करती हैं। अगर आए दिन उन्हें छुट्टियां ही चाहिए, तो फिर वे काम करती ही क्यों हैं?

पीरियड कोई च्वॉइस का मुद्दा नहीं, नैचुरल प्रोसेस है

ऐसे लोगों को यह बात समझनी होगी कि मेंस्ट्रुअल क्रैंप्स कोई ऐसी स्थिति नहीं है, जिसे महिलाएं चाहें तो वह हो और ना चाहें, तो वह ना हो। यह तो प्राकृतिक शारिरिक प्रक्रिया है, जिसकी फ्रीक्वेंसी हर महिला में अलग-अलग होती है। अगर इस वजह से कोई महिला कार्य करने में खुद को असमर्थ महसूस कर रही हो, तो निश्चित रूप से उसे मेंस्ट्रुअसल लीव मिलनी ही चाहिए।

कई शोध अध्ययन भी यह दर्शाते हैं कि पीरियड के दौरान विभिन्न प्रकार के शारीरिक और मानसिक तनाव की वजह से महिलाओं की कार्यक्षमता कम हो जाती है। ऐसे में इस दौरान छुट्टी लेने से संस्थान के उत्पादन या देश की आर्थिक व्यवस्था पर कोई फर्क भी नहीं पड़ने वाला।

महिला कामगारों की भागीदारी अभी भी भारत में सबसे कम

देश में महिला कामगारों का औसत वर्ष 2005-06 में जहां 36 फीसदी था, वहीं वर्ष 2015-16 में घटकर 24 फीसदी हो गया है। देश की अर्थव्यवस्था में महिला कामगारों की भागीदारी अभी भी भारत में सबसे कम है। वित्तीय वर्ष 2015-16 में भारत के कुल श्रमबल में महिला कामगारों की भागीदारी मात्र 25.8 फीसदी थी।

इसी वजह से कई महिलाएं ऐसी भी हैं, जो मेंस्ट्रुअल लीव पॉलिसी का समर्थन नहीं करती हैं। उनके अनुसार,

कार्यस्थलों पर महिला कर्मचारियों को पहले से ही कई तरह के पक्षपातपूर्ण व्यवहार झेलने पड़ रहे हैं, जैसे कि नियुक्ति के दौरान पुरुष सहकर्मियों की तुलना में कम वेतन, स्लो प्रमोशन, बोर्ड मीटिंग्स में न्यून भागीदारी आदि। उसपर कंपनी को उनकी छंटनी का एक नया कारण मिले, ऐसा वे नहीं चाहतीं।

कहीं-ना-कहीं इन महिलाओं की राय भी सही है, क्योंकि कोई भी संस्थान पहले अपना लाभ देखेगी, उसके बाद आपका।

अधिकारों, कर्तव्यों और सुविधाओं का संतुलन है ज़रूरी

इसके अलावा, हम इस बात से भी इंकार नहीं कर सकते हैं कि कई महिलाओं द्वारा इस पॉलिसी का मिसयूज़ भी किया जा सकता है। हम भारतीयों की सबसे बड़ी समस्या यही है कि हम अपने अधिकारों के लिए तो जमकर हाय-तौबा मचाना जानते हैं लेकिन बात जब अपने कर्तव्यों को निभाने की आती है, तो बगले झांकने लगते हैं, सैकड़ों तरह के बहाने बनाते हैं।

ऐसा ज़रूरी नहीं है कि पीरियड के दौरान हर महिला को समान तरह की शारीरिक या मानसिक तकलीफ हो। जैसा कि पूर्व में बताया गया है, भारत में पीरियड पेन की वजह से करीब 20 फीसदी महिलाओं की दिनचर्या बाधित हो जाती है।

इस पॉलिसी के लागू होने पर कई लोगों को डर है कि उन महिलाओं के भी ‘पेट में भी दर्द’ होने लगेगा, जिन्हें सामान्यत: नहीं होता है और फिर छुट्टी लेने वाली महिलाओं की संख्या सौ फीसदी होना तय है। क्योंकि “यार, जब छुट्टी का प्रावधान हमारे लिए लागू होगा, तो फिर हम लें क्यों नहीं।”

हम महिलाओं की ज़िम्मेदारी

फोटो प्रतीकात्मक है। फोटो सोर्स- pexels.com

ऐसे में इस पॉलिसी के प्रति हम महिलाओं की ज़िम्मेदारी भी बढ़ जाती है, ईमानदारी की ज़िम्मेदारी। जिन महिलाओं को तकलीफ होती है, उन्हें बेशक छुट्टी मिलनी चाहिए लेकिन जो इस दौरान अपना काम करने में समर्थ हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि कोई भी कंपनी ‘आप महिला हैं’, इसलिए आपको जॉब प्रमोशन या सैलरी हाइक नहीं दे सकती है बल्कि वह आपके वर्क परफॉर्मेंस के लेवल पर आपका आकलन करती है।
आज अगर बिज़नेस फील्ड में हम इंदिरा नूई, इंदू जैन, किरण मजूमदार, चंदा कोचर, नैना लाल किदवई जैसी महिलाओं को अपना रोल मॉडल मानते हैं, चंद्रयान उड़ाने वाली रितु करिधाल, वनिता मुथैया से प्रभावित होते हैं और खेलों में अपना नाम रोशन करने वाली साइना नेहवाल, पीवी सिंधु या मैरी कॉम जैसी महिलाओं पर फक्र कर पाते हैं, तो इसके पीछे उन सबकी लगन, मेहनत और तीव्र इच्छाशक्ति ही रही होगी। जिनके बलबूते उन्होंने अपने आगे आने वाली हर बाधा को कमज़ोर कर दिया।

मैं नहीं जानती कि इनमें से किन-किन महिलाओं को पीरियड पेन होता है लेकिन पीरियड्स तो ज़रूर होते होंगे ना। तो फिर ज़रा सोचिए कि अगर ये भी एक्सयूज़ देतीं, तो फिर क्या वे अपने लक्ष्यों को भेद पातीं, नहीं ना।

तो फिर अगर आप मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार हैं कि जिन महिलाओं को हर महीने इस दर्द और बैचेनी से गुज़रना पड़ता है, छुट्टी केवल उन्हें ही मिलनी चाहिए, तो ज़रूर आवाज़ बुलंद कीजिए इसके लिए, बेकार में ‘महिला होने का लाभ उठाने के लिए नहीं’।

कंपनियों की ज़िम्मेदारी

दूसरी ओर, कंपनियों को भी इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि

चाहे महिला हों या पुरुष उनके उत्पादन की गुणवत्ता के आधार पर उनकी परख की जाए ना कि उनके द्वारा लंबे समय तक ऑफिस में बिताए गए समय के आधार पर।

इस संदर्भ में ऑस्ट्रेलिया की एक मेंस्ट्रुएशन रिसर्चर लारा ऑवेन ने वर्ष 2016 में कंपनियों के आर्थिक हित को ध्यान में रखते हुए ‘मेंस्ट्रुअल फ्लेक्सिबिलिटी’ नामक एक कॉन्सेप्ट प्रस्तुत किया, जिसके अनुसार जो महिलाएं मेंस्ट्रुअल लीव पर जाएं, उनसे अन्य दिनों में अपने काम की भरपाई करने को कहा जा सकता है। खैर, इसपर भी अपनी-अपनी राय हो सकती है।

Exit mobile version