रवीश कुमार के अन्य रायों से मैं सहमत रहूं या ना रहूं मगर उनकी इस बात से मैं बिलकुल सहमत हूं कि आज के न्यूज़ चैनलों में परोसी जाने वाली विषय वस्तु में कोई दम नहीं है। ऐसे में प्रस्तुति देखने के बाद ऐसा लगता है जैसे समय बर्बाद हो गया हो।
यह ठगने से बिलकुल कम नहीं है, क्योंकि एक बुलेटिन के पीछे निवेशित भौतिक संसाधन में काफी खर्च होते हैं। जैसे- अनुसंधान का खर्च, आधारभूत संरचना का खर्च, लोगों के समय का खर्च, पूरी ब्रॉडकास्टिंग व्यवस्था का खर्च इत्यादि।
इतने खर्च के बाद मिलता क्या है? चैनल को टी.आर.पी. के ज़रिए पैसे मिलते हैं और दर्शकों को सिर्फ बहस, सूचना रहित झगड़े, हल्ला, गाली-गलौच इत्यादि। क्या दर्शकों ने यही देखने के लिए न्यूज़ चैनलों को पैसे दिए थे?
बावजूद इसके यही मीडिया सर्वाधिक प्रचलित क्यों है?
मीडिया के निजीकरण के बाद वह समाज की आवाज़ एवं लोकतंत्र कै चौथे स्तंभ का दर्जा खोकर एक शुद्ध व्यापारिक कंपनी बन गई है। व्यापारिक कंपनी का तो एक ही मकसद है, वो यह कि कार्य क्षमता एवं प्रभाव के आधार पर मुनाफे का इज़ाफा करना।
अतः वह भी वही प्रसारित करती है जिसमें विषय वस्तु कम हो, जो गंभीर ना हो एवं आसानी से समझ आ जाए। आज जब खबरों के बाज़ार में हल्की खबर के खरीददार ज़्यादा हैं, तब ज़ाहिर सी बात है कि खबर संकलन में हल्की फुल्की मसालेदार खबरों की संख्या बढ़ेगी एवं गंभीर विचारों के उत्पादन में कमी आएगी।
आज हम 5 मिनट में 100 खबरें देखकर खुद को जागरूक समझने लगते हैं, मैच के बाद की चर्चा सुनकर मैच की रणनीति पर अपनी राय बनाते हैं, व्हाट्सएप पर मिलने वाली जानकारियों के अनुसार अपने मतदान की दिशा तय कर देते हैं। ऐसे में गंभीर मुद्दों की गुंज़ाइश कहां है?
अगर आप वीडियो बनाएं तो ज़्यादा लोगों तक आप पहुंच पाते हैं मगर लेखक के तौर पर आपकी पहुंच सीमित रह जाती है। क्या इस स्थिति को देखते हुए यह मानकर चला जाए कि आज गंभीर विचारों को सोचने-समझने की क्षमता कम हो गई है? फलस्वरूप विचारों के मंथन की गंभीर प्रक्रिया शांत हुई है।
ऐसे में एक सम्पूर्ण समाज जो इस बीमारी से गुज़र रहा हो, उससे हम एक अनुशासित, गंभीर, संयमित, दीर्घ दृष्टि एवं ज़िम्मेदारीपूर्ण व्यवहार की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं? अतः हल्के-फुल्के मसलेदार खबरों का उत्पादन एवं उपभोग ज़ोरों पर है।
आखिर ऐसी स्थिति कैसे आई?
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में विचारों का आदान-प्रदान पोस्ट कार्ड या पत्रों द्वारा हुआ करता था। उन पत्रों में उल्लेखित विचारों की गंभीरता एवं गहराई का परिचय इस बात से मिलता है कि आज हम उन्हें पुस्तकों के रूप में प्रकाशित करते हैं। गाँधी एवं रवीन्द्रनाथ टैगौर के पत्रों के संकलन की तो एक सम्पूर्ण सीरीज़ है।
क्या हमारी जनता को उनके विचारों की कुछ खबर भी है? यह केवल कुछ प्रतिशत लोगों को मालूम है। ऐसा क्यों? क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था अभी इस आधार तक पहुंच ही नहीं पाई कि वह गंभीर विचारों को गंभीरता के साथ विद्यालयों में स्थापित कर पाए, कक्षाओं में उन पर विचार कर पाए, अपनी कल्पना, तर्कक्षमता एवं मौलिकता को भांप पाए।
हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं, जहां रवीन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजलि विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में पढ़ाई जाती है। वहीं, एक शिक्षक द्वारा हर वर्ष नए स्टूडेंट्स को एक ही विचार एवं तरीके के ज़रिये पढ़ाया जाता है। इसकी समानता इतनी होती है कि स्टूडेंट्स क्लास रूम में जाने से ज़्यादा आसान पिछले वर्ष के नोट्स की फोटो कॉपी करना समझते हैं।
यह कैसे संभव है? बदलते परिपेक्ष्य के साथ गीतांजलि पढ़ने एवं पढ़ाने के अंदाज़, उसको समझने के उदाहरण एवं उसकी प्रासंगिकता पर होने वाले प्रश्न एक हो ही नहीं सकते। अगर ऐसा है तो यह स्थिति गीतांजलि को शिक्षा व्यवस्था पर एक बोझ बनाती है, क्योंकि इसका अर्थ यह हुआ कि गीतांजलि एक सर्वकालिक ग्रंथ नहीं है।
अन्य विषयों के पढ़ने एवं पढ़ाने की स्थिति भी सामान्यतः यही है। अर्थात शिक्षा एवं विचार निर्माण दो अलग-अलग प्रक्रिया बन चुकी है। शिक्षा पैसे कमाने का ज़रिया बन गई है।
मीडिया पर भारत में वर्तमान विचार विमर्श की दिशा क्या है?
वर्तमान में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया लोगों को आकर्षित कर रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास बस इतना ही काम रह गया है कि गेस्ट्स को बुलाओ और प्रायोजित सवालों के ज़रिये उन पर हमला करो। बढ़ती साक्षरता दर के साथ वास्तव में पढ़ने वालों की संख्या में ज़बरदस्त कमी आई है। हम सुनकर ज़्यादा समझना चाहते हैं, क्योंकि उसमें हमारे खुद के विवेक का कोई इस्तेमाल नहीं होता है।
आवाज़ के स्त्रोत द्वारा हमारी कल्पना संयमित की जाती है और हम उतना ही सोचते हैं जितना उस आवाज़ द्वारा हमें सोचने की आज़ादी दी जाती है। ऐसे में हम उस विषय वस्तु से ज़्यादा जुड़ाव महसूस करते हैं, जो हमारे दैनिक अवलोकनों को प्रतिबिंबित करे।
अतः समाचार में हमें बड़ी-बड़ी शादियां दिखाई जाती हैं, भावनात्मक बयान दिखाए जाते हैं, क्रोधपूर्ण विचार-विमर्श के कार्यक्रम दिखाए जाते हैं, ऊंची आवाज़ को पसंद किया जाता है, वैचारिक विरोध करने वाले का अनादर करने की आदत को सराहा जाता है एवं व्यक्तिगत क्लेश के बर्बरतापूर्ण प्रदर्शन को मनोरंजन करार दिया जाता है।
ऐसे-ऐसे बयानों पर बहस होती है जिसकी रत्ती भर भी असर राजनीति पर ना हो, उदाहरण के लिए बिहार के गिरिराज सिंह का पाकिस्तान पर बयान, हेमा मालिनी का अर्थव्यवस्था पर बयान, बॉलीवुड एक्टर्स का भारत की सुरक्षा नीति पर बयान इत्यादि। लोगों को समझना होगा कि देश बयानों से नहीं, बल्कि संविधान, कानून एवं राज्य वयवस्था से चलता है।
समस्या को सुलझाने की कुंजी कहां है?
उपभोक्तावादी लोकतंत्र में हर समस्या की कुंजी उपभोगताओं के हाथ में होती है। चुकी समस्त समाज आज उपभोगता है इसलिए समाज को चाहिए कि वह अपने मनोरंजन के स्तर को उठाए, राजकाज में मानसिक संलग्नता को बढ़ाए, सरकार की नीतियों के प्रति अपने आपको जागरूक रखे, अपने बच्चों को समग्र शिक्षा मुहैया कराए एवं जागरूक होने के लिए दिए जाने वाले अपने समय का सदुपयोग करे।
हर पहलू की अति-सरलता संभव नहीं है। अतः जटिल विचारों को भी तरजीह दें एवं इन सबकी उपस्थिति भविष्य में सुनिश्चित करने हेतु गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व्यवस्था को जैसे भी हो प्राप्त करें।