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गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए काम करने में मुझे समाज से कई चुनौतियां मिली

‘स्याही’, यह शब्द पिछले कुछ सालों से मेरे अंदर चल रहे भावनात्मक मंथन और उथल-पुथल का परिणाम है। इस दौरान मेरी ज़िंदगी बिल्कुल आम हो चुकी थी। कुछ लोगों को यह एहसास हो जाता है कि उन्हें अपनी ज़िंदगी में क्या करना है, जिससे उनकी ज़िंदगी बदल जाती है लेकिन मेरी भावनाएं सामाजिक दबाव के आगे हार मान चुकी थी।

मैं पिछले चार सालों से दिल्ली में एक कमरे के फ्लैट में रह रही हूं। इस इलाके में बहुमंज़िला इमारतों के बीच इतनी कम दूरी है कि सूरज की किरणें भी उसे भेद नहीं पाती हैं। सड़कों पर इतनी गंदगी पसरी है कि सांस लेना दूभर हो जाता है। रोज़ सुबह उठना, काम पर जाना, काम से वापस आना, खाना, सोने जाना, अगले दिन उठकर फिर काम पर जाना, ऐसा लग रहा था मानो मैं मशीन बन गई थी।

एक दिन मेरे साथ एक ऐसा वाकया हुआ, जिसने मेरी ज़िंदगी बदल कर रख दी। अपने घर लौटते वक्त मैंने देखा कि कुछ बच्चे नदी में अपने सिर पानी से ऊपर रखने के लिए संघर्ष कर रहे थे। उस नदी में पूरे शहर का ज़हरीला कचरा और मानव मल फेंका जाता था। वह नदी एक नाला बन चुकी थी। बच्चे नदी में से प्लास्टिक की बोतलें और रिसाइकिल की जाने वाली अन्य वस्तु इकट्ठा कर रहे थे।

वह दृश्य देखकर मैं सुन्न पड़ गया और मेरे दिल को गहरा आघात पहुंचा। वे बच्चे महज़ एक संख्या नहीं थे। उनके नाम सहाना, रवि, इस्माइल, सुवो, हीना, तान्या, और इमली थे। मैं उन्हें एक साथ “सृष्टि” बुलाती थी। वे पास में ही एक फ्लाईओवर के नीचे रहते थे।

लोग अपने जीवन में इतने व्यस्त रहते हैं कि वे अक्सर अपने से कम भाग्यशाली लोगों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। मैं अजीब दुविधा में फंसी थी कि अपने दिल की सुनूं या दिमाग की। दिल कह रहा था कि दुनियादारी की फिक्र छोड़कर उन बच्चों के लिए कुछ करूं, जबकि दिमाग कह रहा था कि आसान रास्ता अपनाऊं और ज़िंदगी जैसे चल रही है वैसे चलने दूं। मेरी अंतरात्मा ने मुझे उन बच्चों के कष्ट भरे जीवन से मुंह नहीं मोड़ने दिया।

मैंने बच्चों के नदी से निकलने का इंतज़ार किया। वे इस कदर कीचड़ में सने थे कि उनके कपड़ों का रंग भी नहीं दिख रहा था। उनके जिस्म से इतनी बदबू आ रही थी कि उनके साथ खड़ा होना तक मुश्किल हो रहा था। एक सेकेंड के लिए मुझे लगा कि मैं यह नहीं कर पाऊंगी लेकिन मेरी अंतरात्मा ने मुझे रोक लिया।

मैंने बच्चों को नहाने के बाद मुझसे मिलने के लिए कहा। मुझे उनके चेहरों पर कई सवाल दिखाई दिए। मुझे उन्हें कुछ पैसे देने पड़े क्योंकि मैं उन्हें मुझसे मिलने की कोई वजह नहीं दे सकी। आधे घंटे बाद वे वापस आए। नहाने के बाद मुझे उनके चेहरे साफ दिखाई दे रहे थे। उनकी हंसी, उनके टूटे दांत, उनके जिस्म पर पिटाई के निशान, उनके फटे कपड़े, सब दिखाई दे रहे थे।

जिन बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी जुटा पाना भी मुश्किल है, उनका ध्यान इन चीज़ों पर कहां जाएगा। नहाने के बाद भी उनके शरीर से बदबू आ रही थी, मानो वह बदबू उनकी पहचान बन चुकी हो। उनकी ज़ुबान से शराब की बदबू भी आ रही थी।

धीरे-धीरे मुझे बच्चों की आंखों में सवाल शक में बदलते नज़र आ रहे थे। उनके माता-पिता भी दूर से मुझपर अपनी नज़रें जमाए बैठे थे। मैंने उन बच्चों को भरोसा दिलाया कि मैं उनका बुरा नहीं चाहती। मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि वे मूल रूप से राजस्थान से हैं और उनके माता-पिता को रोज़गार की तलाश में शहर में पलायन करना पड़ा था।

घर की वित्तीय स्थिति इतनी खराब थी कि दो वक्त की रोटी जुटा पाना भी मुश्किल हो रहा था, इसलिए बच्चों को भी चार पैसे जुटाने के लिए काम करना पड़ा। वे बच्चे शहर के अलग-अलग जगहों पर पड़े कूड़े के ढेर में से रिसाइकिल होने वाली वस्तुएं इकट्ठा करके बेच देते थे। उनके माता-पिता उनको कूड़े से भरे नदी में भेजने से पहले भारी मात्रा में देशी शराब पिला देते थे, ताकि उनके दिमाग सुन्न पड़ जाए और उन्हें कचरे में घुटन महसूस ना हो।

यह सुनकर मानो मेरा दिल भावनाओं के सागर में डूब गया। मुझे उन बच्चों के लिए दया, सहानुभूति, गुस्सा, सब एक साथ महसूस हो रहा था। हममें से कोई भी उनके दर्द और संघर्ष की कल्पना भी नहीं कर सकता। उनमें से कुछ की शादी 7-8 साल की उम्र में ही हो गई थी।

वे बच्चे भी दूसरे बच्चों की तरह स्कूल जाना चाहते थे और फ्लाईओवर और नाले की ज़िंदगी से बाहर निकलना चाहते थे। मैंने उन्हें घंटों तक सुना। उन बच्चों ने अपने दिलों में कितना कुछ दबा रखा था लेकिन आज तक उन्हें किसी ने सुना और समझा नहीं। मुझसे बातें करते वक्त मानो उनके अंदर का लावा फूट पड़ा।

बच्चों ने मुझे बताया कि लोग उन्हें बिना वजह पीटा करते हैं। उन्हें बचपन से ही ज़बरदस्ती नशे का आदी बनाया गया। उन्हें समय-समय पर प्रशासन द्वारा फ्लाईओवर के नीचे से भगा दिया जाता है, जिसके बाद वे दर-बदर भटकने को मजबूर हो जाते हैं।

उन बच्चों की ज़िंदगी में अनगिनत समस्याएं थीं, जिनके समाधान मेरे पास नहीं थे। उनकी समस्याएं सुनकर मेरे लिए सांस लेना भी मुश्किल हो रहा था। मुझे इस बात का डर था कि कहीं मैं उन बच्चों को बेहतर ज़िंदगी देने का वादा करके बाद में उनका भरोसा ना तोड़ दूं लेकिन इतना तो तय था कि मैं उनसे मुंह नहीं मोड़ सकती थी।

फ्लाईओवर के नीचे शुरू किया पढ़ाना

मैंने सबसे पहले उनके लिए कलम, किताबें, नोटबुक और पढ़ने-लिखने की अन्य वस्तुएं खरीदी और उन्हें बांट दिया। मैंने उनसे वादा किया कि मैं रोज़ शाम को उन्हें एक घंटे पढ़ाया करूंगी। मैंने उनके फ्लाईओवर के नीचे ही उन्हें पढ़ाना शुरू किया, जिसके बाद धीरे-धीरे आस-पास के बच्चे भी पढ़ने आने लगे।

यह काम शुरू करने से पहले मुझे इस बात का एहसास नहीं था कि मुझे समाज के तथाकथित ठेकेदारों के साथ-साथ अपने दोस्तों के भी विरोध का सामना करना पड़ेगा। मेरे दोस्तों ने मुझे चेताया कि यह काम मेरे लिए सुरक्षित नहीं है। ऑफिस में मेरे साथ काम करने वाले लोगों ने मुझे समझाया कि वे बच्चे मेरी ज़िम्मेदारी नहीं हैं। उन्होंने मुझे यह तर्क भी दिया कि उन बच्चों की देखभाल करने की ज़िम्मेदारी सरकार की है।

मेरे ऊपर ट्रैफिक पुलिस का भी दबाव था कि मैं फ्लाईओवर के नीचे ना पढ़ाऊं। मेरे काम के उद्देश्य पर किसी को भरोसा नहीं था। सब मेरे ऊपर सवाल उठा रहे थे पर मुझे उन बच्चों के लिए कुछ करके संतोष मिल रहा था, जो मुझे किसी और काम में नहीं मिला। हालांकि, मैं अभी भी दुनिया की भागदौड़ का हिस्सा थी लेकिन अब मैं यह सोचकर शांति से सो पाती थी कि मैं समाज के लिए कुछ अच्छा कर रही हूं।

कुछ महीनों बाद जब मैंने उन बच्चों के माता-पिता का भरोसा जीत लिया, तब मैंने उन्हें बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजने के लिए मना लिया। मैंने उन्हें भरोसा दिलाया कि मैं बच्चों के स्कूल की फीस और अन्य खर्चों की ज़िम्मेदारी उठाऊंगी। मैंने उनसे बाल विवाह की कुप्रथा खत्म करने की मांग भी की।

मैंने अपने इस अनुभव से यह सीखा कि हमारा पहला कदम चाहे कितना भी छोटा हो पर हमें उसे उठाने में संकोच नहीं करना चाहिए। वह पहला कदम ही हमें आगे ले जाता है। हमें कई बार यह लगता है कि हमारे एक कदम उठाने से क्या बदल जाएगा लेकिन अगर हम सब कदम से कदम बढ़ाते चलें तो हम समाज में बेहतर बदलाव ला सकते हैं।

अपने इस प्रयास को मैंने ‘स्याही’ नाम दिया

मैंने अपने प्रयास को आगे बढ़ाया और उसे ‘स्याही’ नाम दिया। पहले दिन ही आरके पुरम के सेक्टर 2 में स्थित हनुमान कैंप में 120 बच्चों ने दाखिला लिया। मैंने अपनी शुरुआत छोटे से ही की। एक खुले जगह को क्लासरूम की शक्ल दी, दो शिक्षक नियुक्त किए, किताबें खरीदी और अन्य ज़रूरी वस्तुएं जुटाई।

हर रोज़ ऑफिस के बाद भागते हुए उन बच्चों को पढ़ाने जाना मेरी दिनचर्या का हिस्सा बन गया। बच्चों की संख्या अधिक होने के कारण शुरुआत में मुझे उन्हें संभालने में कठिनाई हुई। हमने बच्चों की उम्र और कक्षा के हिसाब से उन्हें चार बैच में बांट दिया। उन्हें एक बैच से दूसरे बैच में जाकर पढ़ने की भी छूट दी गई।

बच्चों को पढ़ाने के दौरान हम उनके अंदर छिपी कई अनूठी प्रतिभाओं से भी अवगत हुए। हम उन्हें नियमित रूप से फुटबॉल और जूडो सीखाने के लिए तालकटोरा स्टेडियम ले जाया करते थे। हमने उनके लिए डांस क्लास की भी व्यवस्था की। हम पूरी कोशिश कर रहे हैं कि उनकी हर प्रतिभा का विकास कर सकें। हम उन्हें गुड टच और बैड टच की शिक्षा भी दे रहे हैं ताकि वे अपने साथ होने वाले शोषण को पहचान सकें।

सर्दियां हमारे लिए नई चुनौती लेकर आई। माता-पिता अपने बच्चों को डेंगू और मलेरिया के डर से खुले में पढ़ने की इजाज़त नहीं दे रहे थे। इसलिए मुझे पड़ोस में ही एक कमरा लेना पड़ा ताकि बच्चों की शिक्षा प्रभावित ना हो।

टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज़ और टाटा इंटरनैशनल लिमिटेड हमारी मदद के लिए आगे आए। उन्होंने हमारे बच्चों की स्टेशनरी और अन्य ज़रूरतों की ज़िम्मेदारी उठाई। कोलकाता के एक एनजीओ ‘महाजीबान’ ने भी इस नेक काम में हमारा सहयोग किया।

बच्चों की ज़रूरतों के हिसाब से ‘स्याही’ लगातार विकसित हो रहा है। अब हम स्काइप की मदद से ऑनलाइन क्लासेज़ के ज़रिए जर्मनी में बैठे बच्चों को पढ़ाने में भी सक्षम हैं। आसपास मच्छरों की पैदावार की वजह से हम नियमित रूप से मेडिकल कैंप का आयोजन भी करते हैं। ‘स्याही’ को ज़ी न्यूज़ ने अपने कार्यक्रम मोबाइल रिपोर्टर प्रोग्राम के तहत कवर किया। मुझे ‘स्याही’ की शुरुआत करने के लिए मेडिसिन बाबा ट्रस्ट द्वारा मानव रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

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