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“कैमरा एक जादुई चिराग है जिसके ज़रिये हम जीवन के मूल्यों का दिखावा करते हैं”

फोटो साभार- pixabay

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भारतीय सिनेमा का इतिहास 19वीं शताब्दी से पहले का है। 1896 में लुमेरे ब्रदर्स द्वारा शुट की गई पहली फिल्म का प्रदर्शन बम्बई (मुंबई) में किया गया था। एक रुपया एक व्यक्ति की दर से प्रवेश शुल्क लेकर बम्बई के संभ्रांत और आम जनमानस ने वाह-वाह करके करतल ध्वनि के साथ इसका स्वागत किया था।

यह युग भारतीय सिनेमा की नींव के प्रथम स्वर्णिम प्रस्तर के रूप में स्थापित हुआ और भारतीय सिनेमा का जन्म हुआ। पहली बार आम जनमानस ने जीवन के छद्म रूप को कैमरे के चलचित्रों के रूप में देखा और हर्ष से विभोर हो गया, क्योंकि हम अपने असल रूप से अधिक अपने छद्म रूप को पसंद करते हैं।

लेकिन वास्तव में भारतीय जीवन में सिनेमा ने दस्तक तब दी जब हरिश्चंद्र सखाराम भाटवडेकर, जिन्हें सावा दादा के नाम से भी जाना जाता है, उन्होंने लुमेरे ब्रदर्स की फिल्म के प्रदर्शन से प्रभावित होकर इंग्लैंड से कैमरा मंगवाया था।

बम्बई में इनकी पहली फिल्म हैंगिंग गार्डन में शुट की गई थी, जिसे भारतीय सिनेमा के इतिहास में ‘द रेसलर’ के नाम से जाना जाता है। यह एक कुश्ती मैच की सरल रिकॉर्डिंग थी, जिसे 1899 में आम जनमानस के लिए प्रदर्शित किया गया था और इसे ही भारतीय सिनेमा के इतिहास में पहला चलचित्र माना जाता है।

पहली मूक फिल्म 

दादा साहब भारतीय फिल्म उद्योग के अगुआ थे। वह भारतीय भाषाओं और संस्कृति के विद्वान थे। उन्होंने जब मानवीय जीवन के अवचेतन की नब्ज़ को टटोला, तब उन्हें धर्म मिला, जिससे मानवीय जीवन का अवचेतन जुड़ा हुआ है इसलिए उन्होंने संस्कृत महाकाव्यों के तत्वों को आधार बनाकर मराठी भाषा की पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई।

यह फिल्म भारतीय सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई। इस फिल्म ने अन्य फिल्मों के निर्माण के लिए भारतीय सिनेमा के द्वार खोल दिए।

केवल स्वांग रचता है कैमरा

कैमरा एक जादुई चिराग की तरह है, जिससे हम मानवीय जीवन के मूल्यों, प्रेम, सुख-दुःख और नैराश्यता का दिखावा करते हैं। व्यक्ति केवल क्षणभंगुर सुख के छद्म यथार्थवाद में ही जीना चाहता है। वह अपनी असल वास्तविकता को देखते हुए भी अनदेखा करता है।

फोटो साभार- pixabay

हम हमेशा झूठ में जीते हैं और सच को जानते हुए दरकिनार करके हम अपने द्वारा रचे गए छद्म यथार्थवाद के उन चंद लम्हों की खुशी को ज़िंदगी की असल वास्तविकता से हमेशा अधिक तवज्जो देते हैं।

कैमरे पर रचा गया छद्म देशप्रेम

पंजाब के स्कूल शिक्षक सीताराम ने भगत सिंह पर शोध करके एक पटकथा लिखी और मनोज कुमार ने कैमरे से छद्म देशप्रेम के नैराश्य का जलसा रचा। इसके बाद मनोज कुमार ने अपने द्वारा अभिनीत हर पात्र का नाम भारत रखना शुरू कर दिया।

मनोज कुमार ने मानव जीवन के अवचेतन की आंतरिक परत की सतह से प्रेरित होकर भारत भाग्य विधाता की तर्ज़ पर पूरब और पश्चिम फिल्म बनाई। वह छद्म देशप्रेम की फिल्मों को बनाने में माहिर हो गए। यहां तक कि मीडिया और आम जनमानस ने उन्हें भारत कुमार के छद्म नाम से पुकारना तक शुरु कर दिया। अब तो लोग मनोज कुमार को मनोज कुमार के नाम से नहीं, बल्कि भारत कुमार के नाम से पुकारते हैं।

अवचेतन आनंद की खोज है कैमरा

कैमरा व्यक्ति के अवचेतन के निर्मल आनंद की खोज है। विवाह व्यक्ति के नैराश्य जश्न का अवसर होता है इसलिए हर व्यक्ति उस दिन को सदियों तक अमर बनाना चाहता है। इस काम के लिए वह एक कैमरामैन को नियुक्त करता है और वह व्यक्ति के उस दिन को अपने जादुई चिराग से भव्य बनाता है।

राजकुमार हिरानी। फोटो साभार- Flickr

कैमरे की खोज के साथ ही स्वांग रचने की विधाओं को बारीकी से सीखने के लिए 1960 में पुणे फिल्म संस्थान की स्थापना हुई। राजकुमार हिरानी, केतन मेहता और विधु विनोद चोपड़ा पुणे फिल्म संस्थान से ही प्रशिक्षित उस दौर के कैमरामैन (फिल्मकार) हैं, जो मानवीय जीवन पर स्वांग रचने में माहिर हैं।

इस विधा के आविष्कार के प्रारम्भिक वर्षों में ही फ्रांस के दार्शनिक बर्गसन ने कहा कि सिनेमा के कैमरे और मनुष्य के मस्तिष्क में कुछ समानता है। मनुष्य की आंखों से लिए गए बिम्ब स्मृति पटल पर स्थिर रूप में जमा होते हैं और विचारों की ऊर्जा से चलायमान होते हैं। 

सिनेमा का कैमरा भी मात्र बिम्ब एकत्रित करता है और फिल्मकार के टेबल पर वह सार्थक रूप से एक श्रृंखला में बंध जाता है। कैमरा एक जादुई चिराग की तरह है, जिसे कैमरामैन अपने विचारों से रगड़कर छद्म यथार्थवाद के तिलिस्म का संपादन करता है।

कैमरे ने रचा सौंदर्यता का भव्य स्वांग

इसी तरह बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनियों ने मानवीय जीवन की सौंदर्यता का भव्य स्वांग रचा। आज वर्तमान समय में सौंदर्यता का अरबों-खरबों का मार्केट है और आने वाले समय में पता नहीं यह किस मोड़ पर आकर रुकेगा। कैमरामैनों ने सौंदर्यता का भव्य स्वांग रचा और इस तरह के भव्य स्वांगों ने आम जनमानस को प्रभावित किया और उन्हें सोचने पर विवश किया कि वह जैसे हैं, वैसे ठीक नहीं हैं।

वह सौंदर्यता में श्रेष्ठ से सर्वश्रेष्ठ बन सकते हैं। इसी प्रक्रिया में शाहरुख खान टी.वी पर एक ऐड करते हैं और कहते हैं, “मर्दों की सख्त त्वचा के लिए इस फेयरनेस क्रीम को लगाओ और गज़ब का गोरापन पाओ, फेयरनेस क्रीम फॉर मेन्स।”

रचा गया छद्म स्वांग

मनोज कुमार उर्फ भारत कुमार की तर्ज़ पर वर्षों पूर्व जे.पी.दत्ता ने देशभक्ति का छद्म स्वांग रचने के लिए बॉर्डर बनाई, जिसे देखते हुए भारतीय नौजवानों में देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत होकर भारतीय सेना में भर्ती होने का चलन प्रचलित हुआ। इसी तर्ज़ पर अनिल शर्मा ने प्रेरित होकर गदर-एक प्रेम कथा का छद्म स्वांग रचा और राजकुमार संतोषी ने समाज में सदियों से वंचित स्त्री के अवचेतन से प्रेरित होकर दामिनी बनाई और स्त्री के अवचेतन के इतिहास को रचा।

सनी देओल, फोटो साभार- Flickr

इस फिल्म के ढाई किलो वाले डायलॉग ने सनी देओल के कैरियर को एक नया आयाम दिया। आज भी आम जनमानस सनी देओल को इसी डायलॉग से संबोधित करता है। इसका ज्वलंत उदाहरण जनमत (लोकसभा) चुनाव 2019 में सनी देओल पंजाब के गुरुदासपुर से प्रत्याशी थे। उन्होंने अपनी चुनावी रैली में केवल अढ़ाई शब्द ही बोले वह थे, “ये ढाई किलो का हाथ है।” 

वाकई यह विचार करने वाला तथ्य है कि 21वीं सदी का भारतीय नौजवान देश के विकास और रोज़गार जैसे मुद्दों पर केवल जिओ के प्रतिदिन डेढ़ जीबी डाटा और ढाई किलो का हाथ चाहता है। हरिवंशराय बच्चन साहब ने अपनी कालजयी कृति मधुशाला का छद्म यथार्थवाद समूचे जगत के लिए रचा और खुद आजीवन शराब की एक बूंद भी नहीं चखी।

राजनीति जनमत की बिसात पर रचा हुआ स्वांग है। हर पांच सालों में जनमत का स्वांग रचाया जाता है। देश के विकास, कल्याणकारी योजनाओं और वादों का छद्म यथार्थ निर्मित किया जाता है और आम व्यक्ति उसी छद्म यथार्थ में अपने जीवन की समस्त समस्याओं को विस्मृत कर अपने अवचेतन में आनंद की अनुभूति करता है, क्योंकि हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है।

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