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मिट्टी के घरौंदे की प्रथा वाली दिवाली अब आधुनिक हो रही है

मिट्टी के घरौंदे

मिट्टी के घरौंदे

कृषि प्रधान देश भारत में नई फसल की कटाई या मौसम परिवर्तन का समय, कब सांस्कृतिक आस्था में बदल गया पता नहीं चला। ठीक उसी तरह कब रौशनी के प्रकाश-पर्व को लेकर एक नहीं कई मिथकीय कहानियां कहीं जाने लगीं, इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।

गोया आधुनिकता के मौजूदा दौर में दिवाली अमावस्या की अंधेरी रात में केवल सजते हुए घरों, संवरते हुए अरमानों का प्रकाश-पर्व नहीं है। प्रकाश-पर्व की रवायत का यह त्यौहार हमें ही नहीं पूरी भारतीय सभ्यता-संस्कृति को आधुनिकता के मौजूदा दौर में भी अपनी सांस्कृतिक और मिथकीय कहानियों के ज़रिए अपनी परंपरा से जोड़ता है।

दिवाली को लेकर प्रचलित कहानियां

खत्म हो जाती है फसल की कटाई: भारत के पश्चिमी भाग में यह माना जाता है कि दिवाली की शुरुआत किसानों की फसल की कटाई पूरी होने के बाद की गई थी। यहां ग्रामीण और शहरी दोनों ही इलाकों में इस दिन पोहे से व्यंजन तैयार करने की भी परंपरा है।

भगवान श्रीराम की अयोध्या वापसी: दिवाली मनाने की प्रचलित वजह रामायण से मिलती है। महाकाव्य रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण रावण को हराकर लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद कार्तिक माह में इसी दिन अयोध्या लौटे थे। उनके आने की खुशी में अयोध्या के नागरिकों ने पूरे शहर को दीपकों से सजाया था।

बंगाल में होती है काली पूजा: दिवाली पर बंगाल में मॉं काली की पूजा होती है। कहा जाता है कि नवदीप के महाराजा कृण्ण्न चंद्रा ने अपनी प्रजा से मॉं काली की पूजा करने की विनती की थी। आज बंगाल में दुर्गा पूजा के बाद काली पूजा का बहुत महत्व है।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- pixaby

देवी लक्ष्मी का जन्म और विवाह: एक मान्यता यह भी है कि समुद्र मंथन के दौरान दिवाली के दिन ही संपन्नता की देवी मॉं लक्ष्मी का जन्म हुआ था। इसी दिन देवी लक्ष्मी का भगवान विष्णु के साथ विवाह हुआ और इस समारोह के लिए बहुत से दीपक जलाए गए थे। इसी कारण दिवाली को देवी लक्ष्मी के साथ जोड़ा जाता है। चूंकि देवों में गणेश प्रथम पूज्य हैं, इसलिए गणेश-लक्ष्मी की पूजा परंपरा है।

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर का वध: समूचे भारत में अमवस्या की रात को दिवाली मनाई जाती है, वहीं तमिलनाडु में नरक चतुर्दशी (दिवाली के एक दिन पहले) दिवाली मनाई जाती है। माना जाता है कि बहुत समय पहले नरकासुर ने करीब 16 हज़ार महिलाओं को बंदी बनाया था। भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध करके उन सभी की रक्षा की थी।

इस दिन को वहां बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाया जाता है। गोवा में एक दिन नरकासुर के कागज़ के पुलते जलाए जाते हैं। तमिल घरों में इस दिन लक्ष्मी पूजा भी की जाती है।

सिखों के लिए भी खास: सिखों में भी दिवाली का खास महत्व है। कहा जाता है कि सिख गुरु हरगोंविद, मुगल बादशाह जहांगीर के आदेश से ग्वालियर के किले में बंदी बनाए गए थे। वह इसी दिन अमृतसर लौटे थे और उनके लौटने की खुशी में पूरे शहर को रौशनी से सजाया गया था। तीसरे गुरु अमर दास ने दिवाली को चिरस्मरनीय मंगल दिवस के रूप में संस्थागत किया था, जब सभी सिख अपने गुरुओं का आर्शीवाद लेने के लिए इकट्ठा होंगे।

मिला मोक्ष: दिवाली का जैन धर्म में भी बड़ा महत्व है। कहा जाता है कि इस दिन आखिरी जैन तीर्थंकर भगवान महावीर को मोक्ष या निर्वाण प्राप्त हुआ था। इसी तरह दिवाली के दिन ही हिंदू के महान सुधारक और आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद स्वरस्ती को भी निर्वाण प्राप्त हुआ था।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

आधुनिकता की दौड़ती-भागती ज़िन्दगी में मिथकीय आस्थाओं के बीच ज्योति-पर्व की सामाजिक समाजीकरण से संबंधित चीज़ें लुप्त हुई हैं। मसलन, उत्तर भारत के कई राज्यों में मिट्टी के घरौंदे बनाकर उसमें लक्ष्मी-गणेश की पूजा करने के परंपरा रही है। साथ ही मिट्टी की कुल्हिया में परिवार के सदस्यों को लावा-बताशा भरकर देने का चलन रहा है, जो घर में अन्न भंडार भरा रहने की प्रार्थना के साथ-साथ मिट्टी से जुड़ाव का भी प्रतीक है।

केवल यहीं नहीं सभ्यता संस्कृति में और भी कई क्षेत्रीय चलन थे, जो बाज़ार और मिथकीय कथाओं के एकरूपता में लुप्त हो चुके हैं। मसलन, सूप बजाना, कई जगहों पर ब्रह्म मुहूर्त में सूप बजाते हुए प्रार्थना की जाती है और मॉं लक्ष्मी के आने की कामना की जाती है। खर-संठी (अरंजी की लड़कियों) का हुक्का बनाया जाता है और इसे जलाकर पूरे घर में घुमाते हैं।

मान्यता है कि इससे घर की नकारात्मक ऊर्जा चली जाती है। दीवाली पर मंदिरों में नई झांडू दान करने की परंपरा भी देश के कई क्षेत्रों में है। झाड़ू को मॉं लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है।

क्षेत्रीय सभ्यता संस्कृति में इन चलनों की समाप्ति के साथ-साथ समाप्त हुए हैं मानवीय संबंध, जो किसी भी सभ्यता संस्कृति को गतिशील बनाए रखने में सहायक होते थे।

आधुनिकता के नव-संस्कृति में हम-आप और हम दोनों से मिलकर बना समाज अकेलेपन में व्यक्ति केंद्रित होता जा रहा है, जबकि ज़रूरत है कि हम कोई भी त्यौहार किसी भी तरीके से मनाएं, उसको समुदाय केंद्रित बनाकर परंपरा के सरोकारों को जीवित रखें। परंपरा के यहीं सरोकार हमें लोगों से जोड़ते हैं।

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