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जब रॉ ने पाकिस्तानी परमाणु कार्यक्रम को 20 साल के लिए टाल दिया था

फोटो साभार- Twitter

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भारत में 21 सितंबर को रिसर्च एंड एनालिसिस विंग यानि ‘रॉ’ की स्थापना दिवस के तौर मनाया जाता है। सन् 1968 में जब रॉ की शुरुआत हुई थी, तब देश में इंदिरा गाँधी की सरकार थी जिन्होंने ना सिर्फ इसे बनाया था, बल्कि पूरी ताकत और समर्थन भी दिया था।

यह भी जानना ज़रूरी है कि इसे बनाने की नौबत क्यों आई? पहले देश की आंतरिक सुरक्षा की ज़िमेदारी आई.बी. की थी मगर देश के बाहर के दुश्मनों से निपटने के लिए रॉ की ज़रूरत महसूस हुई।

रॉ के पहले अध्यक्ष रामेश्वर नाथ काऊ बने। चाहे 1971 की जंग हो या 1974 का सिक्किम विलय, रॉ ने सभी ज़िम्मेदारियों को ईमानदारी के साथ निभाई। इन सबके बीच दिलचस्प कहानी यह है कि भारत ने पाकिस्तान के न्युक्लियर प्रोग्राम की बैंड बजाकर रख दी थी। इसके अलावा यह भी जानना ज़रूरी है कि कैसे एक प्रधानमंत्री की बेवकूफी रॉ पर भारी पड़ गई।

क्या था पूरा मामला?

1975 के बाद रॉ को ऐसी जानकारी मिलने लग गई थी कि पाकिस्तान एटॉमिक हथियार बना रहा है। रॉ को यह भी जानकारी मिली थी कि यह काम पाकिस्तान के कहूटा के रेगिस्तान में आर्मी बेस पर हो रहा था, जिसके प्रमाण जल्द ही मिल गए।

दरअसल, हुआ कुछ यूं कि रॉ के दो एजेंट ने उसी मिलिट्री बेस के पास एक नाई की दुकान खोल दी थी, जिसके बाद कुछ दिन तक सब ठीक रहा फिर उसी दुकान पर बाल कटवाने 2 साइंटिस्ट आए।

एजेंट्स ने बाल काटने के दौरान उनके कुछ काटे हुए बाल आपने पास रख लिए और जब उन बालो की भारत में लैब टेस्टिंग की गई, तब उनमें न्युक्लियर पदार्थ पाए गए। ऐसे में यह साफ था कि बड़े पैमाने पर हथियार बनाने की साज़िश रची जा रही थी मगर इतनी जानकारी के बाद भी रॉ कुछ नहीं कर पाई, वजह थी नई सरकार।

नई सरकार और प्रधानमंत्री का रॉ से मतभेद

1977 में इमरजेंसी के बाद देश में जब चुनाव हुए, तब इंदिरा गाँधी की पार्टी चुनाव हार गई और जनता पार्टी के बैनर तले मोरारजी देसाई की सरकार आई। दूसरी तरफ उसी साल जनरल जिया उल हक ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फेकार अली भुट्टो की सरकार का तख्ता पलट करते हुए खुद चीफ मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर बन गए। जबकि राष्ट्रपति अभी भी फज़ल इलाही चौधरी ही थे।

इंदिरा गाँधी। फोटो साभार- Twitter

दोनों ही देशो में सरकारें बदल गाई थीं और सबसे बड़ी बात यह थी कि मोरारजी देसाई किसी भी देश के आंतरिक मामलों में दखल देना पसंद नहीं करते थे। जब उन्हें रॉ के बारे में जानकारी मिली, तब उन्हें अच्छा नहीं लगा क्योंकि वह पाकिस्तान के अंदरूनी मामले में दखल नहीं देना चाहते थे। उन्होंने पाकिस्तानी साइंटिस्टों के बालों से मिली न्युक्लियर रेडिएशन की जानकारी को भी नज़रअंदाज़ किया मगर कुछ दिनों बाद रॉ को एक खबरी के रूप में सफलता मिली।

मोरारजी देसाई की एक गलती रॉ पर भारी पड़ी

कई साल रॉ में काम चुके मेजर जनरल वी.के. सिंह ने एक किताब लिखी थी, जिसका नाम ‘सिक्रेट्स ऑफ रिसर्च एंड एनालिसिस विंग’ था।  किताब के ज़रिये उन्होंने  बताया कि किस तरीके से उसी आर्मी बेस में काम करने वाले एक खबरी ने परमाणु बम की जानकारी देने के बदले 10,000 डॉलर की मांग की थी।

रॉ चीफ रामेश्वर नाथ काऊ ने इसके लिए हामी भरते हुए प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को फाइल भेजी और वजह भी बताई मगर उन्होंने मना कर दिया। इस वजह से भारत को कई महत्वपूर्ण जानकारी नहीं मिला पाई, जिसके बाद नाराज़ काऊ साहब ने रॉ अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।

मोरारजी देसाई। फोटो साभार- Twitter

बाद में एक फोन कॉल पर प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने ज़िया उल हक से कहा, “हमें पता है कि आप कहूटा में परमाणु हथियार बना रहे हैं।” यह मोरारजी की सबसे बड़ी गलती साबित हुई, जिसके बाद जिया उल हक ने कुछ समय के लिए परमाणु हथियार बनाने छोड़ दिए।

उन्होंने पूरी फौज को बता दिया कि भारत के एजेंट पाकिस्तान में हैं फिर भारत के हर एजेंट को ढूंढ-ढूंढकर पाकिस्तान में मार दिया गया। यह बात 1978 की है। यानि कि 10 साल में जितना नेटवर्क बनाया गया था सब खत्म हो गया, जिसका खामियाज़ा रॉ को भी भुगतना पड़ा।

1980 में फिर इंदिरा गाँधी की सरकार बनी और काऊ साहब रक्षा सलाहकार नियुक्त हुए। दोबारा यह नेटवर्क स्थापित हुआ मगर पाकिस्तान का परमाणु सम्पन्न देश बनने का सपना 20 साल के लिए टल गाया, जिसका श्रेय रॉ को जाता है मगर 1998 में भारत के बाद पाकिस्तान ने भी परमाणु हथियारों का परीक्षण कर लिया फिर भी रॉ नहीं डरा।

मेरा विचार यह है कि किसी भी देश की आंतरिक गतिविधियों में दखल नहीं देना चाहिए मगर जब इन गतिविधियों का असर हमारे देश पर पड़े, तब दखल देना ज़रूरी हो जाता है। इसलिए रॉ मुझे पसंद है और रॉ को उनकी देश सेवा के लिए धन्यवाद।

संदर्भ- https://bit.ly/2pAQdH6

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