Site icon Youth Ki Awaaz

ग्रामीण इलाकों के बच्चों को बेहतर शिक्षा का अवसर कब मिलेगा?

प्रतीकात्मक तस्वीर

प्रतीकात्मक तस्वीर

वेद कहता है,

‘नहीं दरिद्र सम दुःख जग माही’ अर्थात दरिद्रता से बढ़कर कोई दुख नहीं, दरिद्रता दुःख ही नहीं, अपितु समस्त दुःखों की जननी है।

अतः हमें सर्वप्रथम हमारे समाज में व्याप्त गरीबी को जड़ से दूर करने के लिए ग्रामीण युवा अभ्यर्थियों के लिए प्रतियोगिता परीक्षाओं में स्वतंत्र अवसर प्रदान करके समाजिक न्याय के साथ राष्ट्र कल्याण सुनिश्चित करना होगा।

आज हम सबके लिए कितने दुःख की बात है कि आज़ादी के 71 साल बीतने के बाद भी देश की बहुत बड़ी आबादी गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा और बेरोज़गारी से जूझ रही है, जबकि आज़ादी के नायकों ने देश के लिए जो स्वर्णिम स्वप्न देखे थे, वे समय के साथ धूमिल होते गए। 

ऐसा नहीं है कि हमारे देश मे संसाधनों की कमी थी, बल्कि इन संसाधनों का मुट्ठीभर लोगों ने दोहन किया और अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति की, जिससे एक तरफ जहां कुछ लोगों ने काफी धन संचय किया, तो वहीं दूसरी ओर एक बहुत बड़ी आबादी को दो वक्त की रोटी के लिए भी लाले पड़ रहे हैं।

स्कूल जाते स्टूडेंट्स। फोटो साभार- Flickr

असमानता की आर्थिक खाई की वजह से गुज़रते वक्त के साथ रोज़गार, विनिवेश और शिक्षा जैसी मूलभूत आवश्यकताओं पर पूंजीपतियों और धन कुबेरों का अधिकार हो गया है। वे वंशवाद में रूपांतरित हो गए, जिससे पूर्व वर्णित सुविधाओं से बहुत बड़ी आबादी वंचित होती चली गई। आर्थिक रूप से सक्षम लोगों के पास ही निवेश या रोज़गार की क्षमता हो गई और बाकी लोगों को काफी दिक्कतें होने लगीं।

हाल ही में ऑक्सफैम इंटरनैशनल ने सी.आर.आई. (C.R.I- Commitment to Reducing Inequality) इंडेक्स की रिपोर्ट जारी की है। इस सूची में शामिल 157 देशों में भारत अंतिम के 15 देशों के बीच खड़ा है, जिसमें गैर-बराबरी कम करने के प्रति सबसे कम प्रतिबद्धता देखी गई है।

इस मामले में नाइज़ीरिया जैसे देशों के करीब आ पहुंचे भारत को 147वां रैंक दिया गया है। ऑक्सफैम ने भारत के बारे में कहा है कि देश की स्थिति बेहद नाज़ुक है और यहां की लोकतांत्रिक सरकार स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा पर बहुत कम खर्च कर रही है। वहीं, यह निजी सेक्टर को सब्सिडी प्रदान करती है। 

हालिया दशक में भारत की आर्थिक विषमता उच्चतम स्तर पर है, जो बहुत तेज़ी से बढ़ी है। इसका सबसे बड़ा कारण सुपर रिच क्लास का उदय होना रहा है।

आर्थिक विषमता की शुरुआत ही संपत्ति के असमान वितरण से होती है। वहीं, गौर करें तो सबसे अमीर भारतीय मुकेश अंबानी की 1 दिन की कमाई 300 करोड़ को पार कर गई है। कुल 831 भारतीय की संपत्ति 1000 करोड़ से ज़्यादा मूल्य की है और 273 लोगों की आमदनी चार करोड़ से ज़्यादा है।

आर्थिक विषमता बड़ी समस्या

भारत जैसे देश में आर्थिक विषमता और भी बड़ी समस्या मानी जानी चाहिए, क्योंकि यहां लोग केवल गरीबी और अमीरी ही नहीं बल्कि धर्म, जाति और समुदाय आदि के आधार पर भी बंटे हुए हैं। इसलिए भारत जैसे देश को आर्थिक विषमता और अधिक क्षति पहुंचाती है।

एक बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश में लोकतंत्र के दीर्घकालीन अस्तित्व के लिए इस विषमता को समाप्त करना बहुत ज़रूरी है। हमारी लोकतांत्रिक सरकार की बड़ी ज़िम्मेदारी है कि वह इस दिशा में काम करे।

सरकारी स्कूल के स्टूडेंट्स। फोटो साभार- Twitter

इस संदर्भ में नीतिगत स्थाई समाधान हेतु नीति निर्धारण के केंद्र में गरीबों की आवश्यकताओं को शामिल कर विषमता की खाई को पाटे जाने की ज़रूरत है। इनके स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य कल्याणकारी योजनाओं पर काम किए जाने की ज़रूरत है। साथ ही संपत्ति के असमान वितरण को दूर करने का स्थाई प्रयास किया जाए।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स (G.H.I.) जो वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर भुखमरी का आंकलन करती है, उसमें भारत का स्थान लगाार शीर्ष पर जा रहा है।

लहरों पर पहरे बिठाए जाते हैं, समंदर की तलाशी क्यों नहीं होती?

हैरत होती है, इस तरह के गैर ज़िम्मेदाराना नीतियां बनाने वाली नौकरशाही व्यवस्था पर और उन लोगों पर भी तरस आता है, जिनकी सांस इस विषमताओं को जूझते हुए चलती रहती है।

इस आशा से कि कोई रहनुमा ज़रूर आएगा, जो उनकी आंखों के आंसुओं को महसूस करेगा तथा निदान करने की नीतियों में बदलाव लाएगा, जिससे इनकी दयनीय स्थिति में सुधार की गुज़ाइश होगी।

राष्ट्रीय जीवन में आर्थिक विषमता एक भयावह सच है, राजनीति और समाज में भले ही गाहे-बगाहे इसे दूर करने के प्रयासों की चर्चा हो जाती है मगर वास्तविकता यही है कि इस समस्या को लोकतांत्रिक स्वतंत्र भारत का एक अस्थाई लक्षण मान लिया गया है।

आर्थिक विषमता के लिहाज से भारत विश्व के दूसरे स्थान पर है, जबकि लोकतंत्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ संपदा के न्यायपूर्ण वितरण की व्यवस्था होती है ताकि कोई अपनी आर्थिक शक्ति के बल पर दूसरों के हितों और अधिकारों का हनन ना कर सके।

क्या आर्थिक नीतियां देश के धनी वर्ग की पक्षधर है? क्या हमारा शासन आबादी के बड़े हिस्से के लिए आर्थिक सक्षमता सुनिश्चित करने में लापरवाह है?

नव उदारवादी दौर में असमानता निरंतर बढ़ती जा रही है मगर हमारी राजनीतिक चिंता में यह प्रमुख एजे़ंडा क्यों नहीं बन पा रही है, इन सवालों का सीधा संबंध हमारे लोकतंत्र की सफलता से है।

स्कूल जाते स्टूडेंट्स। फोटो साभार- Google Free Images

कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था ऐसी व्यापक विषमताओं को देर तक नहीं ढो सकती, क्योंकि आर्थिक समानता के साथ ही राजनीतिक और सामाजिक समानता के लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि आर्थिक विषमता तभी सही है, जब वह सर्वाधिक गरीब की आय को बढ़ाने का माध्यम हो।

आज वंचित तबकों के उत्थान के लिए निर्धारित नीतियों-कार्यक्रमों की ठोस समीक्षा ज़रूरी है। उदार और गतिमान अर्थव्यवस्था के साथ शिक्षा व रोज़गार के स्वतंत्र अवसर को स्थाई बनाने के साथ लोकतंत्र को बेहतर बनाने के लिए आर्थिक विषमता पर गंभीरता से विचार करना समय की मांग है।

साहिर लुधियानवी का एक शेर है,

ये महलों ये तख्तों ये ताज़ों की दुनिया

ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया,

ये दौलत के भूखे हैं रिवाज़ों की दुनिया,

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?

विकास और आर्थिक वृद्धि में अंतर

विकास केवल आर्थिक वृद्धि नहीं है, क्योंकि आर्थिक वृद्धि और विकास में बहुत फर्क होता है। विकास एक उद्देश्य है और आर्थिक वृद्धि केवल माध्यम।

विकास का मतलब है, जीवन की गुणवत्ता बढ़ रही है और आम लोगों के जीवन में सुधार आ रहा है। अजीब बात यह है कि स्वास्थ्य, शिक्षा व सामाजिक सुरक्षा जीवन की गुणवत्ता व आर्थिक विकास का आधार होने के बावजूद लोकतंत्र में इन मामलों की बात नहीं होती है।

पिछले चार सालों में केंद्र सरकार ने सामाजिक नीति में कोई रुचि नहीं ली है। व्यावसायिक घरानों को नीति निर्धारण के केंद्र में रख नई नीतियां बनाई गईं, जिससे ग्रामीण भारत की जनता व युवा वर्ग में सरकार के प्रति घृणा बढ़ी व लोकतंत्र में आस्था कमी हुई।

लोग सोचने पर मजबूर हो गए कि आखिर किस लिए हम सरकार चुनते हैं? ऐसे नीतिगत फैसले से लोकतंत्र की नींव कमज़ोर पड़ती जा रही है।

किताब-कॉपी को झोले में लेकर पढ़ने वाले स्टूडेंट्स

उपर्युक्त वर्णित विभेदकारी सामाजिक स्थितियों के बीच सुबह सूरज उगने के साथ ही जैव-वनस्पतियों में हलचल शुरू हो जाती है। पत्ते अपनी बाहें खोलने लगते हैं और फूल मुस्कुराने लगते हैं।

इन्हीं के बीच एक और रंग खिलता है, बच्चों के स्कूल ड्रेस का रंग जो बिना किसी शोर-शराबे के मद्धम-मद्धम गाँव की पगडंडियों पर चलने लगता है। यह वह भारत है, जहां बच्चे बासी भात या आधा पेट, बिना नाश्ता और टिफिन के अधूरी किताब-कॉपी को झोले में लटकाए सूरज के साथ दौर लगाते हैं। यह उदासीन भारत नहीं, बल्कि सपनों से भरा हुआ भारत है, जहां लोगों में जीने की प्रबल इच्छा और संघर्ष है। 

समाज में हो रही विभाजन की खाई घातक

शिक्षा के प्रति सामाजिक उत्तरदायित्व का अभाव बहुत बड़ी विडम्बना है। आज हमारा भारत वर्ष वैश्वीकरण का भारत है। भले ही आज हम वैश्विक बाज़ार की गिरफ्त में उदारवादी-पूंजीवादी तरीके से विकास की दौर में शामिल हो रहे हैं लेकिन इसकी गिरफ्त में चिकित्सा और शिक्षा को लेना समाज के लिए घातक होगा। इससे समाज में हो रही विभाजन की खाई घातक होगी।

ग्रामीण भारत के सुदूर अंचलों के विद्यार्थियों और शहरों के विद्यार्थियों की शिक्षा के हर चरण में गहरा फर्क है। इसके बावजूद खुली प्रतियोगिता में दोनों को समान रूप से उतरना पड़ता है।

सुदूर इलाकों में शिक्षा पर निवेश कौन करेगा?

शहरों में हर कोई प्राइवेट अंग्रेज़ी माध्यम की ओर रुख कर रहा है और सरकार भी शिक्षा के निजीकरण पर ज़ोर दे रही है लेकिन उन सुदूर ग्रामीण भारत के अंचलों में कौन है, जो शिक्षा का निवेश करने जाएगा?

प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करते बच्चे। फोटो साभार- Twitter

कौन गरीब ग्रामीण जनता अपने बच्चों के लिए इतनी महंगी शिक्षा को खरीद सकेगा? बावजूद इसके ग्रामीण विद्यार्थी प्रतियोगी परीक्षाओं में उन अभ्यर्थियों के साथ सम्मलित होते हैं व असफल हो जाते हैं और हो भी क्यों ना?

इन्हें ना अच्छी प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर शिक्षा मिलती है और ना अच्छी किताबें,अच्छे शिक्षक और ना ही उचित माहौल मिलता है। कौन इन ग्रामीण भारत के अंचलों में शिक्षा के क्षेत्र में निवेश कर यहां के विद्यार्थियों को समुचित सस्ती शिक्षा व प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए सुलभ कोचिंग मुहैया कराएगा?

ग्रामीण विद्यार्थियों का गला घोंटा जा रहा है

ग्रामीण अंचलों के अधिकतर अभ्यार्थी तो अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए स्वध्याय के साथ जीविकोपार्जन भी करते हैं, जिस कारण इन्हें प्रतियोगिता परीक्षा के लिए खुद को तैयार करने में लंबा वक्त लग जाता है।

समय लगना तो लाज़मी है क्योंकि वक्त किसी का इंतज़ार नहीं करता। वह अपनी निर्धारित गति से अनवरत चलता ही रहता है। ग्रामीण भारत की ऐसी विषम परिस्थितियों में प्रवेश परीक्षाओं में ऊपरी आयु सीमा का निर्धारण क्या ग्रामीण विद्यार्थियों की प्रतिभा का गला नहीं घोंटेगा?  

यह तो ऐसा है, जैसे- हाथी, कौआ, मछली और कुत्ता आदि जानवरों के बीच पेड़ पर चढ़ने की प्रतियोगिता आयोजित हो रही हो।

आयु सीमा बन रही है बड़ी चुनौती

सरकारी नीतियां ऐसी हो कि सबके लिए शिक्षा और रोज़गार सुनिश्चित हो। ऊपरी आयु सीमा की आड़ में कोई वंचित ना रहे। यदि इन ग्रामीण युवा अभ्यर्थियों की मानवता और राष्ट्र व समाज कल्याण के लिए जीने की प्रबल इच्छा, जिज्ञासा व जुनून है, तो हमारे स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक व नौकरशाही व्यवस्था प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए पूर्व निर्धारित पात्रता मापदंड में नित नए-नए संशोधन कर इनका दमन क्यों कर रही है? 

क्या यह ग्रामीण युवा स्वतंत्र भारत के निवासी नहीं हैं? क्या यह किसी दूसरे देशों से निर्वासित होकर आए हैं? क्या इन्हें स्वतंत्र भारत में अपनी स्वतंत्र महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का अधिकार नहीं है?

चाहे शिक्षा पाने के लिए प्रतियोगिता परीक्षाओं की बात हो या रोज़गार पाने के लिए, इसमें आयु सीमा निर्धारित कर उन्हें वंचित क्यों किया जा रहा है? जबकि एक दोष व्यक्ति की समृद्धियों में उसी तरह छिप जाता है, जैसे चांद की किरणों में कलंक मगर दारिद्रय नहीं छिपता। 

क्या आधारभूत सुविधाओं से वंचित ग्रामीण भारत के प्रतिभावान युवा अभ्यर्थियों की जीने की प्रबल इच्छा, जिज्ञासा व जुनून घुट-घुटकर मरते रहेंगे?

क्या इनके अभ्युदय से चर्मोत्कर्ष के लिए कोई ठोस नीति बनने के लिए और कितने युवा अपनी सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक विषमताओं की बलि चढ़ेंगे? अब पानी सर चढ़कर बोल रहा है, युवा सोचने पर मजबूर हो रहे हैं कि आखिर हम अपने मताधिकार का प्रयोग कर लोकतांत्रिक सरकार क्यों बनाते हैं?

हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के पुरोधाओं के साथ-साथ नौकरशाही व्यवस्था को उदारवादी होकर इन ग्रामीण युवाओं के लिए वैज्ञानिक सोच के साथ ऐसी नीतियां बनाने की ज़रूरत है, जो इनके लिए सार्थक हो।

नहीं एक अवलम्ब जगत का आभा पुण्यव्रती की

तिमिर व्यूह में फंसी किरण भी आशा है धरती की,

सबको मुक्त प्रकाश चाहिए

सबको मुक्त समीरण,

बाधा-रहित विकास और मुक्त

आशंकाओं से जीवन।

उद्भिज-निभ चाहते सभी नर

बढ़ना मुक्त गगन में,

अपना चरम विकास खोजना

किसी तरह भुवन में।

देश मे शांति, समृद्धि और परस्पर भाईचारे की जननी सबका चर्मोत्कर्ष ही है। यही एक ऐसा अचूक हथियार है, जिससे देश आगे बढ़ेगा और कोई शोषित नहीं होगा। सभी अपने ईश्वर प्रदत्त गुणों के साथ धरती के आंचल में नित नए सितारे जड़ते रहेंगे तथा आने वाली पीढ़ी के लिए समृद्ध समाज उपहार में देते रहेंगे। राष्ट्रकवि दिनकर लिखते हैं,

जब तक मनुज, मनुज का

सुख भाग नहीं सम होगा,

शमित ना होगा कोलाहल

संघर्ष नहीं कम होगा।

युवा साथियों के लिए प्रेरणास्रोत

अतः आज ग्रामीण भारत के अभ्यर्थियों के लिए समानांतर प्रणाली विकसित की जाए। प्रतियोगिता परीक्षाओं में कोई ऊपरी आयु सीमा निर्धारित ना हो। प्रवेश परीक्षाओं में आयु सीमा के बदले अवसरों की सीमा निर्धारित की जाए, जिससे सभी ग्रामीण युवा अपने उच्चतम आदर्शों को पाने के लिए किसी भी आयु में अपने निर्धारित अवसरों का उपयोग कर सफल होकर राष्ट्र कल्याण में अपनी सहभागिता सुनिश्चित कर अपना योगदान दे सकें तथा अपने अनुज युवा साथियों के लिए प्रेरणास्रोत बन सकें। इसी कड़ी में एक गीत की चंद पंक्तियां पेश करना चाहूंगा-

ये हौसला कैसे झुके

ये आरज़ू कैसे रुके,

मंज़िल मुश्किल तो क्या

धुंधला साहिल तो क्या

तन्हा ये दिल तो क्या

राह पर कांटे बिखरे अगर

उस पर तो फिर भी चलना ही है।

शाम छुपा ले सूरज मगर

रात को एक दिन ढलना ही है

रुत ये टल जाएगी।

हिम्मत रंग लाएगी

सुबह फिर आएगी

होगी हमें जो रहमत अदा

धुप कटेगी साये तले

अपनी खुदा से है ये दुआ।

मंज़िल लगा ले हमको गले

जु़र्रत सौ बार रहे

ऊंचा इकरार रहे,

ज़िंदा हर जज़्बात रहे।

Exit mobile version