घर में नया-नया स्कूटर आना और मम्मी का उसकी पीपहरी वाली नाक पर स्वास्तिक बनाना, अगले चक्के के आगे नारियल फोड़कर और नीचे नींबू रखकर स्कूटर के पहले सफर की शुरुआत करना। यह बचपन का संस्कार या हिन्दू धार्मिक रीतियों में गढ़ा विश्वास था, जो एक हिन्दू होने के नाते मेरे रगों में है।
अब शिक्षा का व्यवहारिक और मानसिक स्तर उस वक्त के स्तर से बेहतर है, जो संस्कार और संस्कृति हम बचपन से सीखते आ रहे हैं, वह हमें बड़ा सार्थक और गढ़ा हुआ लगता है फिर अब देश में क्या बदल गया? ऐसा क्या हुआ कि लोग राफेल पर टीका-चंदन, टीका-टिप्पणी या नारियल-नींबू पर सवाल करने लगे?
उस बचपन के दायरे को आरती की थाली जितनी मानकर चलें तो शायद मैं भी अभी पूर्ण समर्थन में आवाज़ बुलंद करूं कि हां, राजनाथ सिंह ने सही किया। हमारी संस्कृति में विश्वकर्मा और दुर्गा पूजा का रिवाज है, तो इस पूजा से क्या दिक्कत है? चलिए, अब ज़रा उस थाली से उतरकर भारत की धरती पर कदम रखते हैं, जिसकी मिट्टी भी तक एक तरह की नहीं है। हवा-पानी, भाषा-वाणी, खान-पान और घर-मकान सबकुछ होने के बावजूद कुछ भी एक जैसा नहीं है।
कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी यानि इस देश में हर एक कोस पर पानी का स्वाद और गुण तक बदल जाता है और हर चार कोस पर भाषा में नयापन आ जाता है, यही है भारत लेकिन जो हमारी संस्कृति का हिस्सा है, उस रिवाज़ पर आपत्ति क्यों?
धर्म की कुंठा से बाहर निकलना होगा
पहली बात यह कि वह हमारी संस्कृति का हिस्सा है, हमारे देश या संविधान का नहीं। नारियल फोड़ना अगर आपको सुकून दे रहा है मगर उस कार्य से एक खास वर्ग का अधिकारिक भाव झलक रहा है और बाकी धर्मों को उस सम्मान और गर्व से एक झटके से नकार दिया गया है, तो यकीनन आपको कुंठा से बाहर निकलने की ज़रूरत है। किसी की भी संस्कृति, संस्कार व आस्था का प्रभुत्व और प्रयोग उसके निजी संसाधनों तक ही सीमित रहना चाहिए।
हमें इतिहास से सीख लेने की ज़रूरत है, आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेज़ों के खिलाफ हिन्दू-मुस्लिम मिलकर साथ आए थे लेकिन तिलक और कुछ अन्य महत्वाकांक्षी नेताओं ने उस आंदोलन में गणेश चतुर्थी, गंगा स्नान और नारों में धार्मिक वाक्यों को जगह दे दी, जैसे- हर हर महादेव। अब तुम यह नारा लगाकर आज़ादी मांगने निकलोगे तो कोई मुस्लिम क्यों तुम्हारा साथ देगा? या कोई मुस्लिम अल्लाह हू अकबर कहकर आंदोलन शुरू करने लगे तो कितने हिन्दू इसे पचा पाएंगे?
इसका नतीजा यह हुआ कि अन्य धर्म या वर्ग को लगने लगा कि इस संग्राम में तो हमारा उल्लेख ही नहीं है, हमारी संस्कृति का ज़िक्र ही नहीं है। हम अब भी गुलाम हैं और कल भी इनकी संस्कृति के गुलाम ही रह जाएंगे। बंटवारे के बीज को ऐसे ही कुछ साम्प्रदायिक सोच ने हर लम्हा सींचा है, जिसका फल था भारत विभाजन।
यह हमारे संविधान का हिस्सा नहीं
भारत के संवैधानिक पद पर भारत के राष्ट्रीय प्रतीकों, संपदाओं और संसाधनों पर किसी धर्म विशेष का मुहर लगाना बाकी उन तमाम धर्मावलम्बियों को यही संदेश देता है कि तुम वरीयता क्रम में नीचे हो और यकीनन यह बराबरी का दर्ज़ा नहीं है, जो हमारा संविधान हमें देता है।
आप कहीं मंदिर बनाकर उसका टीका चंदन कर रहे होते, तो किसी को कोई आपत्ति नहीं थी। यहां तक कि योगी द्वारा मुख्यमंत्री आवास का शुद्धिकरण करवाना एक हद तक गलत नहीं था, क्योंकि एक हिन्दू को उसमें रहना है तो व्यक्तिगत तौर पर चलता है।
हालांकि मुख्यमंत्री पद का कोई धर्म नहीं होना चाहिए लेकिन उतनी राजनैतिक लज्जा अब बची कहां हैं लेकिन राफेल, इसरो या अन्य किसी भी संस्था या संसाधन के माथे पर धार्मिक टीका लगाना बाकी अन्य तमाम धर्मो के राष्ट्रीय हिस्सेदारी, योगदान और उनके विरासतीय महत्व को एक झटके में शून्य कर देता है।
यह कुछ ऐसा ही हैं जैसे चार लड़कों ने मिलकर एक घर बनाया और दाखिलनामे में बड़े भईया ने अपना नाम लिखवा दिया। जब तक भाईचारा है, तब तक तो ठीक है लेकिन जिस दिन सियासत से घर के बर्तन टकराए उस दिन यह भी एक मुद्दा होगा कि इस जगह पर आपका नाम क्यों हैं? हमें हमारा अधिकार और हिस्सा चाहिए।
कहने का मतलब यह है कि धर्म और समाज भावनाओं से चल सकता है लेकिन कानून नहीं। भावनाएं व्यक्ति दर व्यक्ति बदल सकती हैं लेकिन कानून नहीं बदलता मगर एक धर्म को तवज़्जों मिलता देखकर उन्हें कैसा लगता होगा, यह आप शायद कभी नहीं समझ पाए क्योंकि हम उस तवज़्जोदार बिरादरी से आते हैं।
धार्मिक उन्माद से आगे बढ़ना होगा
इस प्रकार के कदम उनके भटकने, अलगाववाद को बढ़ावा देने और बंटवारे की जड़े सींचने में अहम भूमिका निभाते रहें है। इन्हीं घटनाओं को और मसालेदार बनाकर मॉब लिंचिंग के वीडियो को नया रंग देकर उसे उनकी कच्ची चेतना पर घिस-घिसकर अलगावादियों द्वारा कश्मीर में युवा भटकाए जाते हैं।
उनके कच्चे दिमाग में यह बात पिरोयी जाती है कि देखो यह देश हिंदूओं का है। यह तुम्हारा ना कभी था और ना कभी होगा मगर वास्तविकता इस नफरती जहर से बिल्कुल अलग है और यह हम सब अच्छे से जानते हैं, बस ज़रूरत है धार्मिक उन्माद से निकलकर भारत को देखने और समझने की।