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“बुद्धिजीवियों और JNU पर हो रहे हमलों पर करारा जवाब है अभिजीत का नोबेल”

सन् 1983 में जेएनयू के कुछ स्टूडेंट्स को कुलपति के विरोध में प्रदर्शन करने पर गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। तेरह दिन जेल में रहने के बाद उनके खिलाफ किया गया मुकदमा वापस लेकर उन्हें छोड़ दिया गया। इनमें से एक स्टूडेंट अभिजीत बनर्जी को इस साल का अर्थशास्त्र के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार दिया गया है।

इस नोबेल ने स्टूडेंट राजनीति की अहमियत, विश्वविद्यालयों के प्रारूप, आर्थिक तंत्र और सरकार के कई निर्णयों के ऊपर एक बार फिर बहस खड़ी कर दी है।

अभिजीत बनर्जी। फोटो सोर्स- ANI

अभिजीत बनर्जी, इश्तर डूफलो और माइकल क्रेमर को सयुंक्त रूप से यह नोबेल उनके दुनियाभर में गरीबी दूर करने के लिए “एक्सपेरिमेंट अप्रोच” पर काम करने के लिए दिया गया है। अभिजीत अभी कैम्ब्रिज के एम.आई.टी. (मैसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलोजी) में फोर्ड फाउंडेशन के अर्थशास्त्र के अंतरराष्ट्रीय प्रोफेसर हैं। उन्होंने डूफ्लो और सेंधिल मुलायनाथन के साथ मिलकर ‘अब्दुल लतीफ जमील पोवर्टी एक्शन लैब’ नामक संस्था की 2003 में स्थापना की थी, जो कि दुनियाभर में गरीबी उन्मूलन के लिए शोध एवं इंटरवेंशन का काम करता है। अभिजीत ने कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातक और जेएनयू से अर्थशास्त्र में एमए की शिक्षा लेकर हार्वर्ड से पीएचडी की है।

देश में जब नोटबंदी किया गया तब अभिजीत दुनियाभर के उन अर्थशास्त्रियों में से एक थे, जिन्होंने इसकी आलोचना की थी और इसे गलत कदम बताते हुए कहा था,

इसके पीछे मुझे कोई तर्क नज़र नहीं आता और ये गरीब एवं मध्यम वर्ग को बुरी तरह प्रभावित करेगा।

हाल ही में फिर से उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में नोटबंदी इस देश में गरीबी का एक बड़ा कारण है। इसी तरह जीएसटी के मामले में ‘वेल्थ टैक्स’ की वकालत करते हुए उन्होंने उच्च आय वर्ग पर उच्च कर लगाने के लिए ‘प्रोग्रेस्सिव टैक्सेशन’ की बात की थी।

बताया जाता है कि कॉंग्रेस ने 2019 के लोकसभा चुनावों में अपने घोषणापत्र में ‘न्याय योजना’ इनसे परामर्श करके शामिल की थी। जाने माने अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के विद्यार्थी रहे अभिजीत ने 16 अप्रेल 2019 को ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ में लिखे अपने लेख “टाइम फॉर मिनिमम इनकम: पीपल्स एस्पिरेशन हैव ग्रोन, फ्यूअर वॉन्ट टू सेल पकोड़ाज फॉर ए लिविंग” में मोदी सरकार की अर्थनीति की आलोचना करते हुए ‘यूनिवर्सल बेसिक इनकम’ की बात विस्तार से लिखी थी।

बुद्धिजीवियों और जेएनयू जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों पर हो रहे हमलों पर करारा जवाब है यह नोबेल पुरस्कार

यह नोबेल बुद्धिजीवियों और जेएनयू जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों पर लगातार हो रहे हमलों को एक करारा जवाब है। जब फरवरी 2016 में जेएनयू पर बनावटी आरोप लगाकर ‘देशद्रोहियों’ का अड्डा बताने की साज़िश रची गई, तब अभिजीत ने 16 फरवरी 2016 के हिन्दुस्तान टाइम्स में अपने लेख “वी नीड थिंकिंग स्पेसेज लाइक जेएनयू एंड द गवर्नमेंट मस्ट स्टेआउट ऑफ इट” में साफतौर पर लिखा था,

कैम्पस को स्वतंत्र सोच का केंद्र होना चाहिए और सरकारों को उनमें किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। लेकिन हम साफतौर पर देशभर में ऐसी घटनाएं तो देख ही रहे हैं, साथ ही लगभग सभी क्षेत्रों के साथ उच्च शिक्षा का भी पीछे के दरवाज़े से हो रहा निजीकरण भी देख रहे हैं। लेकिन बुद्धिजीवियों को गाली देने और कोसने के चलन के प्रभाव में इस बात पर शायद ही कोई गौर कर रहा है।

कुछ सवाल जिन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है

जो समाज ज्ञान, विचारों और विचारकों को जानता, मानता और संभालता नहीं है, वह समाज लगातार गर्त में जाता रहता है। अगर हम आज़ाद विचारों, नयी सोच और दार्शनिकता का पालन-पोषण नहीं करेंगे, तो भविष्य की दशा और दिशा क्या होगी? इस नोबेल के बहाने ही सही लेकिन हमें गंभीर ज़रूरत है बहुत सारी चीज़ों पर पुनर्विचार करने की।

अभिजीत बनर्जी के नोबेल पुरस्कार में जेएनयू के मूल्यों का योगदान

जेएनयू जैसे संस्थान इसमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों और पढ़ाने वाले शिक्षकों को क्रिटिकल और रेफ्लेक्टिव होकर सोचने और “डोमिनेंट नैरेटिव्स” को चैलेंज करने का पूरा अवकाश देते हैं।

अभिजीत बनर्जी को जिस काम के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया है, उस काम में जेएनयू के मूल्यों की परछाई साफ नज़र आती है। बनर्जी एक सम्पन्न परिवार से आते हैं लेकिन अपनी ‘सोशल लोकेशन’ के इतर सोचकर उन्होंने वैश्विक गरीबी निवारण पर काम करना चुना। यह अनायास ही नहीं है कि जेएनयू जैसे संस्थानों से निकले विद्यार्थी दुनियाभर में अलग-अलग माध्यमों से मानवीय मूल्यों को स्थापित करने की लडाई लड़ रहे हैं।

यह सोचने की ज़रूरत है कि एक ऐसे संस्थानों को देशद्रोही करार देकर देश को ना सिर्फ आर्थिक नुकसान झेलना पड़ रहा है बल्कि गहरी बौद्धिक क्षति भी हो रही है, जिसकी भरपाई करना नामुमकिन है।

आज हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था वेंटीलेटर पर पड़ी है, विश्वविद्यालयों पर चौतरफा हमले हो रहे हैं। ना सिर्फ निजीकरण बल्कि विद्यार्थियों, बुद्धिजीवियों और शिक्षकों को बदनाम किया जा रहा है। विषैले राजनैतिक माहौल का हिस्सा बनकर इस देश के लोगों ने “नॉलेज क्रिएशन” के गढ़ों यानि पब्लिक फंडेड एजुकेशनल इंस्टीट्यूशंस की कब्र खोदना शुरू कर दिया है।

यह रास्ता निश्चित तौर पर समाज के बौद्धिक पतन का रास्ता है। इस मानसिकता का एक परिणाम यह भी निकला कि जिस काम के लिए अभिजीत बनर्जी को नोबेल पुरस्कार दिया गया, उसी काम पर आधारित “न्याय योजना” को देश की जनता ने लोकसभा चुनावों में ठुकरा दिया।

पूंजीपतियों पर कर लगाने से सरकार को प्राप्त होने वाले रेवेन्यू को गरीबों और आर्थिक रूप से पिछड़े तबकों में रीडिसट्रिब्यूट किए जाने की बात पर देशभर के लोग रोष प्रकट करते नज़र आते हैं। यह इस बात का परिचायक है कि हम अपने बुद्धिजीवियों, अपने विश्वविद्यालयों को आंख बंद कर सिरे से खारिज़ कर देते हैं, बगैर ज्ञान और तर्क की ताकत को समझे| हमारी यूनिवर्सिटी सिस्टम के क्राइसिस का यही कारण है।

हमें पुनर्विचार करना पड़ेगा कि क्यों कैम्पस को ‘फ्री स्पेस’ रखा जाना चाहिए, जहां से ‘फ्री थिंकिंग’ के ज़रिये बहुत सारी समस्यायों से निजात पाया जा सके। क्रिटिकल थिंकिंग को जगह देकर लगातार फैलाए जा रहे भ्रम और अज्ञान से निजात पाने की ज़रूरत है।

अपने, परिवार, समाज, विश्वविद्यालयों, संस्थानों, देश और दुनिया के दिल-दिमाग के दरवाज़े खोलकर देखिये कितने नोबेल आपके चारों तरफ घूमने लगेंगे। अभिजीत, अभिजीत जैसे क्रिटिकल थिंकर्स, जेएनयू जैसे संस्थानों, रोज़ गाली खाते-मुश्किलों को सामना करते बुद्धिजीवियों और हम सबको इस नोबेल की बधाई के साथ समाज और सरकार को सिर्फ एक ही सन्देश-

जितने नोबेल चाहिए, उतने जेएनयू बनाइए।

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