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“गाँधी और उनके तौर-तरीकों पर आज कल सवाल क्यों उठते हैं?”

महात्मा गाँधी

महात्मा गाँधी

गाँधी खत्म किए जा रहे हैं और शास्त्री तो यूं ही ‘गाँधी दिवस-गाँधी दिवस’ के शोर में कब के गुम हो चुके हैं। शास्त्री को मैंने नहीं पढ़ा है इसलिए उनके बारे में जानने का दंभ भी नहीं भरता हूं। हां, गाँधी को पढ़ा है इसलिए उनके बारे में ज़रूर लिखूंगा क्योंकि अब लिखना ज़रूरी हो गया है।

गाँधी और उनके तौर-तरीकों पर उनके जीवित रहते भी सवाल उठते थे और आज भी लोग सवाल उठाते हैं। उनकी तब भी निंदा की जाती थी और आज भी की जाती है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है कि लोग उन्हें बंटवारे का दोषी मानते हैं।

उन्हें ना केवल मुसलमानों का हितैषी बताते हैं, बल्कि उन्हें हिन्दू विरोधी तथा अंग्रेज़ों का एजेंट भी कह डालते हैं। भगत सिंह फांसी के मामले में भी उनकी कड़ी निंदा की जाती है।

हम गाँधी को कितना जानते हैं?

गाँधी, मोहन दास करमचन्द गाँधी से महात्मा गाँधी बन गए। आज़ादी की लड़ाई के दौरान उनका सिक्का ऐसा चला कि भारत की गरीब जनता उन्हें पिता-तुल्य समझ बापू और राष्ट्रपिता की उपाधियां दे बैठी।

महात्मा गाँधी। फोटो साभार- Twitter

आज सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह का पूरा आईडिया एक बड़ा झोल लगता है। इसमें कुछ लोग अंग्रेज़ों को भी क्रेडिट दे डालते हैं। गाँधी के लिए परिणाम और उस परिणाम तक पहुंचने का तरीका, दोनों ही नैतिक रूप से उचित होना ज़रूरी था। उनका जीवन सच में सत्य के साथ प्रयोगों की एक लंबी श्रृंखला थी। कुछ प्रयोग सफल रहे और कुछ बुरी तरह असफल हुए मगर उन्होंने प्रयोग करने नहीं छोड़े। 

 गाँधी की आलोचना आखिर क्यों?

मेरे ख्याल में गाँधी की इतनी आलोचना इस वजह से होती है, क्योंकि लोग उनके जीवन को अब मोहन दास की जीवन गाथा नहीं मानते, बल्कि उनके कार्यों, विचारों और प्रयोगों को महात्मा गाँधी के ओहदे से पढ़ा-परखा जाता है।

मेरे हिसाब से अगर हम गाँधी को ना पढ़कर मोहन दास को पढ़े-परखें, तो सच में उनका जीवन ही उनका संदेश मालूम होगा। एक साधारण इंसान के असाधारण महात्मा बनने की कहानी। 

आप इस इंसान का जीवनवृत्य पढ़ने पर पाएंगे कि वह भी बाकी साधारण इंसानों की तरह आंतरिक द्वंदों का एक बहुत बड़ा पुलिंदा भर था। कभी वह खुद को पहले एक ब्रिटिश नागरिक फिर एक भारतीय मानते थे मगर अनुभवों से जब उनके विश्वास और वास्तविकता के बीच की बड़ी खाई दिखती है, तो वह केवल भारतीय रह जाते हैं। 

गाँधी की मानवीय कमी

वह अहिंसा को सत्य व भगवान तक पहुंचने का माध्यम बताते हैं मगर प्रथम विश्व युद्ध के आखिरी चरणों में अंग्रेज़ों की तरफ से लड़ने के लिए भारतीयों को सेना में भर्ती होने के लिए प्रोत्साहित भी करते हैं।

इन द्वंदों पर नज़र पड़ने पर आपको सहज ही उनकी मानवीय कमियों का एहसास हो जाएगा मगर ज़रूरत उनकी कमियों से इतर उनके द्वारा अपने अंदर सुधार की अनवरत कोशिशों पर ध्यान देने की है। अगर हम सभी इस एक आदत को अपनी आदतों में शामिल कर लें, तो सबका भला हो जाए और सबसे अधिक तो अपना ही भला है।

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