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“क्यों चुनावों में प्रासंगिक हो जाते हैं सावरकर”

सावरकर। फोटो साभार- राजकमल पंडित

सावरकर। फोटो साभार- राजकमल पंडित

भारतीय राजनीति में सावरकर और गोडसे वे नाम हैं, जिनका जिन्न बोतलों से बाहर वक्त बे वक्त निकल ही आता है। महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार के दौरान गृहमंत्री ने सावरकर को “भारत रत्न” देने की बात करके उनके जिन्न को एक बार फिर से बोतल के बाहर निकाल दिया है।

इसपर पक्ष-विपक्ष में कई तरह की दलीलें सामने आ रही हैं मगर भारतीय राजनीतिक इतिहास में थोड़ा सा पीछे जाने पर मालूम होगा कि पिछली बार भी यही दलीलें दी जा रही थी, जिसमें कोई नयापन नहीं है।

वाजपेयी सरकार में भी सावरकर के नाम पर विवाद खड़ा हुआ था

वाजपेयी सरकार के दौर में भी संसद में सावरकर की तस्वीर ने विवाद खड़ा किया था। सवाल उठे थे कि गाँधी के देश में सावरकर का स्थान क्या होना चाहिए? क्या वह सचमुच सरदार भगत सिंह और नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे क्रांतिकारियों की कतार में खड़े किए जा सकते हैं?

इस समय भी एक पक्ष के लिए सावरकर भारत राष्ट्र के मर्म को समझने वाले सबसे बड़े चिंतक और क्रांतिकारी हैं। वहीं, दूसरे पक्ष के लिए अंग्रेज़ों से समझौता करने वाले चरित्र। बहरहाल, सबसे पहले सावरकर के बारे में यह जानना अधिक ज़रूरी है कि कौन थे सावरकर?

नज़रबंद रखने से लेकर सलाखों के पीछे की कहानी

28 मई 1883 को विनायक दामोदर सावरकर महाराष्ट्र के नासिक ज़िले में पैदा हुए। 1901 में मैट्रिक की परिक्षा पास करने के बाद पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में दाखिला लिया। 1904 में उन्होंने “अभिनव भारत” नाम की संस्था की स्थापना की। उनकी बी.ए. की डिग्री तत्कालीन सरकार ने वापस ले ली। बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए लंदन गए मगर उनको वहां डिग्री नहीं दी गई।

फोटो साभार- Flickr

लंदन में ही 1910 में ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उन पर मुकदमा चला और केस की सुनवाई के लिए उन्हें भारत भेजा गया। रास्ते में वह फ्रांस के पास जहाज से निकल भागे। योजना के मुताबिक बंदरगाह पर उनको लेने उनके दोस्त देरी से पहुंचे जिसके बाद फिर से सावरकर को फ्रांस की सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। यहां तक कि उन्हें शरणार्थी बनाने से भी इंकार कर दिया गया।

आखिरकार उनके मामले का फैसला भारत में हुआ। इसके तहत उनको अंडमान में 50 सालों के लिए कठोर आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई। 1911 के बाद अंडमान की जेल में वह बंद रहे। 1921 में उन्हें भारत लाया गया। एक साल तक उन्हें पश्चिम बंगाल के अलीपुर और रत्नागिरी (महाराष्ट्र) की जेलों में रखा गया।

1924 में उनको सशर्त रिहाई मिली। उन्हें रत्नागिरी में उनके घर में नज़रबंद रखा गया। 26 फरवरी 1966 को 82 वर्ष की उम्र में उन्होंने अंतिम सांस ली।

यह उनके जीवन का एक सरल परिचय है। उनके परिचय का दूसरा पहलू होम मिनिस्ट्री की फाइल में दर्ज़ है, जिसे जानने पर उनके बारे में पूरी धारणा ही बदल जाती है। उन्होंने अंडमान जाने के 6 महीने बाद ही रिहा किए जाने के लिए ब्रिटिश सरकार के पास मर्सी पिटीशन भेजी थी कि वह आगे तमाम उम्र ब्रिटिश सरकार का समर्थन करते रहेगें।

सावरकर के बारे में मिथकों को तोड़ती राजनीतिक सच्चाई

क्रांतिकारी त्रिलोकीनाथ चक्रवर्ती अपनी आत्मकथा में सावरकर के बारे में विस्तार से लिखते हैं कि सावरकर अंडमान में दूसरे स्वाधीनता सेनानियों को तो भूख हड़ताल के लिए प्रेरित करते थे मगर स्वयं कभी उसमें शामिल नहीं होते थे। इंग्लैड में उन्होंने मदनलाल ढींगरा को पिस्तौल देकर कर्ज़न विली की हत्या करवाई लेकिन स्वयं पर्दे में रहे। नासिक कॉन्सपिरेसी केस में भी उनका इसी तरह का चरित्र सामने आता है कि उन्होंने अंग्रेज़ अफसर जैक्सन की हत्या करवाई। यह भी कहा जाता है कि पिस्तौल उन्होंने ही दिए थे।

सावरकर। फोटो साभार- Google Free Images

सावरकर के बारे में इतनी बातें उनके स्वतंत्रता सेनानी होने की बात की गवाही तो देता है, क्योंकि ब्रिटिश सरकार के पक्ष में या उनके सुधारवादी प्रयासों के कारण उनकी तारीफ करने वाले भी कई क्रांतिकारी रहे हैं। स्वयं काँग्रेस भी पहले औपनिवेशिक सरकार का कई विषयों पर समर्थन करती रही है। परंतु, जिन्ना के पहले ही दो धर्म के आधार पर देश के बंटवारे की बात और महात्मा गाँधी की हत्या में उनकी सक्रियता उनके जीवन का वह पहलू है, जो उन्हें क्रांतिकारी की उपाधि देने से रोकता है।

सावरकर के बारे में सारी सच्चाई पब्लिक डोमेन में उपलब्ध है। आज़ाद भारत की राजनीतिक यात्रा में भी सावरकर के बारे में कुछ राजनीतिक सच्चाई है, जिससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है। जैसे-

भारतीय राजनीति में तुरुप का इक्का हैं सावरकर

इन ऐतिहासिक सच्चाईयों से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि सावरकर भारतीय राजनीति में तुरुप का वह इक्का हैं, जिसका राजनीतिक फायदा हर कोई उठाने की कोशिश करता है। भारतीय जनता पार्टी से पहले काँग्रेस भी इसका राजनीतिक इस्तेमाल करती रही है। सावरकर का भारतीय राजनीति के इतिहास में एक स्थान है। उनको वहां से हटाना उचित नहीं है मगर उनके नाम पर वोट बैंक की राजनीति करके इतिहास की नई व्याख्या रचने की कोशिश करना भी अच्छी बात नहीं है।

राजनीति इससे बचने का प्रयास तो कभी नहीं कर सकती है। इतिहास का स्टूडेंट होने के नाते उनका मूल्यांकन करने का अधिकार मेरा अपना होगा। कोई भी सरकार उपाधियां, न्यास या डाक टिकट जारी करके चुनावों में वोट पा ले मगर उनकी ऐतिहासिक भूल के लिए किसी भी राष्ट्र नायक को महान बनाकर छोड़ा नहीं जा सकता है।

नोट: लेख में प्रयोग किए गए कुछ तथ्य “सावरकर समग्र वांड्मय” के खंड-10 से लिए गए हैं।

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