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क्यों ज़रूरी है जलवायु परिवर्तन से होने वाले पलायन का अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनना

साल था 2009, स्थल था कोपेनहेगन। बांग्लादेश का कहना था कि अगले 40 सालों में हमारे 20 लाख लोग पलायन करेंगे और सौ से ज़्यादा ग्रामवासी भू-जल में खारा पानी पिएंगे।

अगर कोई विपरीत संकट आता है, तो उससे बाहर निकलने के लिए सबसे ज़्यादा कठिनाई छोटे देशों को होती है। वैसे तो बांग्लादेश दिखने में बड़ा है और यही उसके लिए मुश्किल बात भी साबित होती है। सिर्फ देश बड़ा होने से कुछ नहीं होता, उसके पास मौजूद लोगों का वजूद और उन सभी लोगों को इस्तेमाल करने के लिए मौजूद सामग्री सबसे ज़्यादा मायने रखती है।

अगर भूमि ही पानी में मिल जाए तो सिर्फ देश बड़ा होने से कुछ नहीं हो सकता। यही कहानी है हम सबकी, खासतौर पर उनकी जो दक्षिण एशिया, सब सहारन अफ्रीका, लैटिन अमेरिका के देशों में जी रहे हैं।

बांग्लादेश की सच्चाई तो सीधे भारत पर वार करती है। वह इसलिए क्योंकि भारत खुद एक बड़ा लेकिन अपने ही लोगों का संघर्ष झेलने वाला देश है। ऐसे में अगर कोई बांग्लादेश जैसे राष्ट्रों से सीधे भारत आ जाए, तो इससे बड़ी चुनौती और क्या साबित हो सकती है?

पर्यावरण की वजह से होने वाले पलायन के मुद्दे की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा

बिहार बाढ़। फोटो सोर्स- Getty

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह चुनौती ठीक से कदम भी नहीं रख सकती। इसका कारण है, शरणार्थियों की पहचान। 1951 का यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन ऑन रेफ्यूजीस वंश, धर्म, राष्ट्रीयता, सामाजिक वर्ग एवं किसी राजकीय सोच को लेकर किए जाने वाले पलायन की पहचान रखता है। यदि किसी समुदाय तथा व्यक्ति ने उसके मूल स्थान पर पर्यावरण को लेकर होने वाली आपदा की वजह से पलायन किया तो 1951 का कन्वेंशन तो क्या, दुनिया का कोई भी समझौता इसे महत्व नहीं देता।

इसका परिणाम किरबाती के इओने टीटियोटो (Ioane Teitiota) नाम के व्यक्ति को बहुत बुरी तरीके से भुगतना पड़ा, जिन्होंने सागर स्तर बढ़ने के कारण, न्यूज़ीलैंड में पलायन किया। जब उनका न्यूज़ीलैंड का वीज़ा खत्म हुआ और उनके बच्चों को न्यूज़ीलैंड के नियमों अनुसार वहां की नागरिकता नहीं मिली, तब उन्होंने न्यूज़ीलैंड की कोर्ट में अपना केस दर्ज करवा दिया लेकिन जलवायु शरणार्थी ऐसी कोई चीज़ इस विश्व के नियमों में दर्ज ना होने के कारण उन्हें यह केस हारना पड़ा।

इससे यह चीज़ सामने आती है कि इस बारे में बातचीत तो होती है लेकिन कोई निश्चित समझौता नहीं बन सका।

ऐसे मामलों में, यह हर राष्ट्र की ज़िम्मेदारी है कि वह अपने लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाए। अमेरिका, चीन और भारत ने पेरिस ऐग्रीमेंट को संतुष्टि तो दी है लेकिन अफसोस यह है कि उसके मुताबिक कोई भी कार्य वे नहीं कर पा रहे हैं। ये वे देश हैं, जो ग्रीन हाउस गैसों का सबसे ज़्यादा उत्सर्जन करते हैं मगर उसके परिणामों के बारे में कुछ भी बोलना पसंद नहीं करते।

अगर जलवायु पलायन की परिस्थितियों को जल्द-से-जल्द नहीं संवारा गया, तो आने वाले समय में इसके नतीजे भी बिल्कुल हाथ से बाहर हो जाएंगे।

विकास और ग्रीन हाउस का कनेक्शन

ग्रीन हाउस गैस और विकास पथ एक दूसरे के साथ मगर बिना दोस्ती किए चलते हैं। इसका कारण है कि औद्योगिक रोज़गार बढ़ने से अगर विकास दिखाई देता है, तो ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी तेज़ी से बढ़ने लगता है। ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन अगर कम करने की कोई देश सोच भी लेता है, तो उस देश को असमान विकास का सामना करने की संभावना दिखाई देती है।

550 मिलियन लोगों की जान भूख से और 170 मिलियन लोगों की जान बाढ़ की वजह से खतरे में हो सकती है। ब्रह्मपुत्रा नदी के अप-क्षरण के कारण लाखों की संख्या में लोग बेघर हो जाएंगे। हालांकि 11% लोग 18% ज़मीन पानी के नीचे आने से अपने घर को खो सकते हैं।

एक स्थिर जीवन की मांग में 20 से 30 उम्र के नौजवान खुद का मूल निवास छोड़कर कहीं और चले जाते हैं। इसमें 80% पुरुष और 17% महिलाएं नज़र आती हैं। पुरुष जब अपना स्थान छोड़कर बड़े शहर में जाते हैं, तो उनकी वह जगह देखने को तो औरत ले लेती हैं लेकिन अगर कोई निश्चित रूप से निर्णय लेनी की बात आए तो वे उस घर के पुरुष की अनुमति के बिना कोई निर्णय नहीं ले सकती हैं।

जलवायु पलायन को महत्व देना कितना उचित है, यह बात समझ में आने लगती है, जब हम देखते हैं कि विश्व में होने वाले सभी निर्वासन में 28% निर्वासन सामाजिक रूप से होते हैं। बल्कि, तूफान, बाढ़ जैसी पर्यावरण से संबंध रखने वाली समस्या के कारण होने वाले निर्वासन का प्रमाण 7% है।

इन सभी विषयों को लेकर पलायन करने वाले किसी भी शख्स को कोई सामाजिक आधार नहीं मिलता है। भारत में बढ़ती आबादी और मौजूद साधन सामग्री में हमेशा दौड़ लगी हुई है। फिर भी भविष्य को नज़रअंदाज़ करते हुए 1951 और 1967 के कन्वेंशन पर हमने साइन नहीं किया है।

जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए हमारे प्रयास

यदि भारत में निर्वासन बढ़ जाता है, तो क्या हमारे योजनाकार उसके लिए तैयार हैं, जिससे पूरा देश फिर से उभर सके? जलवायु पर निर्भर अर्थव्यवस्था को कम करके हमें दूसरे विकल्प की तलाश करनी होगी। ऐसे औद्योगिक माध्यम का स्वीकार करना होगा जो पर्यावरण को कम-से-कम हानी पहुंचाए, ताकि हम पलायन भी रोक सके और कुछ विशिष्ट स्थानों पर आने वाले आर्थिक बोझ को भी कम कर सके।

हम एक ऐसे देश में रहते हैं, जहां आपदा के आने के बाद उसका व्यवस्थापन शुरू होता है। हमारे सामने इतने सवाल होते हैं कि भविष्य में आने वाली आपदा के जवाब वर्तमान में ढूंढना मुश्किल हो जाता है।

फिर भी पुराने कई हादसों के बाद केरल, ओडिशा एवं उत्तराखंड में भेजी गई आपदा व्यवस्थापन की बहुत से यूनिट ने बुरी परिस्थिति का निवारण करना शुरू कर दिया। इसका व्यवस्थापन तभी ठीक से होगा जब हम सब इसे एक नैसर्गिक आपदा से ज़्यादा मानव निर्मित आपदा के तौर पर देखना शुरू कर देंगे, क्योंकि ऐसे हादसों की ज़िम्मेदारी खुद पर लेने से ही हम अपना कार्य समझ सकेंगे।

आपदा व्यवस्थापन को हमें अपने तरीके से भी समझना चाहिए। ऐसे समय में फिट कैसे रहा जाए? खुद का या अपने लोगों का बचाव कैसे किया जाए? इन सभी आवश्यक चीज़ों का अगर प्रशिक्षण मिलता है तो हमें उसका लाभ उठाना चाहिए। हमारी वजह से पूरी धरती पर तापमान का बदलाव आ रहा है, जिससे कुछ कीटक प्रजाति, जो कभी उत्तर ध्रुव पर जाने के लिए अनुकूल नहीं थी, वो आज ध्रुव के तापमान बढ़ने की वजह से वहां जाती नज़र आ रही है। तो क्या ये भी हमारे आचरण के नतीजे से उभरकर आने वाले जलवायु शरणार्थी हैं?

सोच को बढ़ाकर हमारे कार्य को योग्य रूप देने का यही सही समय है।

This post has been written by a YKA Climate Correspondent as part of #WhyOnEarth. Join the conversation by adding a post here.
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