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“मैंने स्कूल में लैंगिक समानता की गलत ट्रेनिंग का उल्टा परिणाम देखा है”

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संविधान व समाज में कहीं भी “चाइल्ड” की जो परिभाषा नज़र आती है, उसमे कहीं पर भी किसी खास लिंग का ज़िक्र नहीं है। सीधे शब्दों में कहूं तो बालक व बालिका में कोई भेद नहीं बताया गया।

18 वर्ष से कम उम्र के सभी लोग बच्चे ही माने जाते हैं। तो यह हम सब की ज़िम्मेदारी है कि सभी बच्चों को बिना किसी लैंगिक भेदभाव के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, शारीरिक व मानसिक रूप से बढ़ने में मदद करें व ऐसे वातावरण का निर्माण करें जहां बालक- बालिकाएं एक दूसरे के विपरीत ना होकर एक दूसरे के पूरक बनकर आगे बढ़ें।

“बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” को विपरीत दिशा में ले जाते स्कूल

विद्वानों ने ऐसी ही परिकल्पना बच्चों के सर्वांगीण विकास की कि है परंतु वास्तविकता कुछ और ही होती जा रही है। खासकर, एक नारे का ज़िक्र करना चाहूंगा “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” मूल रूप से यह नारा गर्भ में बेटियों को बचाने या यूं कहें कन्याभ्रूण हत्या जैसे सामाजिक कलंक को रोकने के लिए दिया गया था।

लेकिन निरन्त स्कूलों, समुदाय या अन्य जगहों पर जब भी लोगों से बच्चों के विषय में संवाद का मौका मिलता है तो चाहे अध्यापक हों,सामाजिक कार्यकर्ता हो या प्रशानिक लोग हों सब ही इस नारे को एक विपरीत दिशा देने में लगे हुए हैं। जहां बालिकाओं को उनके साथी बालकों का ही डर दिखाया जाता है और ऐसा प्रचार हो रहा है कि जैसे उनके साथ पढ़ने वाले बालक ही उनके सबसे बड़े अहितकारी हैं।

स्कूल के स्तर पर जहां हम सब बालक-बालिकाओं को बच्चे कहकर संबोधित करते हैं वहां जो भी कार्यक्रम हों वो जेंडर न्यूट्रल होने चाहिए।

लिंग विशेष कार्यक्रमों में बालकों से दूरी

मैं निरंतर स्कूलों में जाता रहता हूं, देखता हूं कि स्कूलों में ज़्यादातर कार्यक्रम लिंग विशेष के लिए होते हैं जैसे बालिका मंच, जहां स्कूल प्रबंधन नियमित रूप से बालिकाओं को प्रेरणा देने के लिए कुछ रोल मॉडल महिलाओं, जिन्होंने अपने कार्यक्षेत्र में सराहनीय कार्य किया हो और अपनी अलग पहचान रखती हो को आमंत्रित करते रहते हैं।

एक बार ऐसे ही एक प्रोग्राम में मंच सांझा करने का मौका मिला तो देखा कि पूरा स्कूल प्रबंधन व स्कूल की सभी बालिकाएं उस कार्यक्रम में बड़े ही उत्साह से शामिल हो रहे हैं। परंतु मेरी दृष्टि दूर बैठे बालकों पर पड़ी और मैं उठकर उनके बीच चला गया। जब मैंने उन बालकों से बात करना शुरू किया तो उन्होंने अपनी जिज्ञासाओं की झड़ी लगा दी।

कुछ बालक जो बहुत ही छोटे थे बोले,

हमसे मिलने कभी कोई नहीं आता। सब कुर्सियां व बेंच हमने वहां कार्यक्रम के लिए लगाए हैं और हमे वहां बैठने भी नहीं देते।

उन मासूम बच्चों की ये बातें सुन कर मन वहीं ठहर गया। लगा कि ये किसी हीन भावना का शिकार ना हो जाए। जैसे-तैसे बालकों के मन की जिज्ञासाओं को शांत किया, पर अपने मन की जिज्ञासा को शांत नहीं कर पाया।

ऐसे अनुभव लगातार हो रहे हैं। हमे इस पर सोचने की ज़रूरत है कि स्कूलों आदि में इस तरह के जो भी कार्यक्रम हों उनमे स्कूल के सब बच्चों की एक साथ भागीदारी हो।

मैत्रीपूर्ण वातावरण बनाने की आवश्यकता

स्कूलों में जिन रोल मॉडल्स को बच्चों के लिए बुलाया जाता है, वे तो सबके लिए ही प्रेरणा का स्रोत होते हैं। जैसे कि किशोरावस्था में जब शारिरिक बदलावों के विषय में बालिकाओं को जानकारी दी जाए, तो बालकों को भी उनके अंदर आ रहे बदलावों के विषय में समान रूप से बताया जाए क्योंकि किशोरावस्था में दोनों समान रूप से शारिरिक, मानसिक, भावनात्मक व सामाजिक परिवर्तनों से गुज़र रहे होते हैं।

ऐसे में दोनों को सही दिशा दिखाने की ज़रूरत होती है।

यहां मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि मैं खुद लड़िकयों की सुरक्षा व सम्मान का पक्षधर हूं परंतु उसके लिए मैं मानता हूं कि हमें अपने लड़कों को भी इस मुहिम में शामिल करने की ज़रूरत है। उनको ही सबसे ज़्यादा प्रेरित करने की ज़रूरत है कि किस प्रकार से महिलाओं व अपने साथ पढ़ने वाली छात्राओं का सम्मान करना चाहिए।

जो इस मुहिम में सबसे बड़े भागीदार होने चाहिए हम उन्हीं को नज़रअंदाज करते चले जा रहे हैं। हमे बालक व बालिकाओं दोनों को समान रूप से सुनने, जानने, समझने, समझाने, उनकी समस्याओं का निराकरण करने व उनके आगे बढ़ने लिए एक मैत्रीपूर्ण वातावरण बनाने की आवश्यकता है।

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