एक टोटल नकारा शासन-प्रशासन की आपराधिक कारगुज़ारियों के चलते अनेक ज़िलाओं समेत राजधानी पटना के लोगों को इस मौसम की बारिश में कैसी नारकीय यातना झेलनी पड़ी, अब यह कहने की बात नहीं है। राजधानी का वह दृश्य इस बात का गवाह है कि कैसे डूबते-बिलखते अपनी जनता की जान की तनिक परवाह ना करते हुए बस, अपने खुद के परिवार की सुरक्षा में तत्पर दिखा इस सरकार का एक सेकेंड सुपरमैन और उसके आला अधिकारी।
उस पर सरकार के मुखिया के इस बयान ने कि इस भयावह आपदा का असली दोषी सरकार नहीं, हथिया नक्षत्र है, शासकीय नकारापन की अश्लीलता पर मानो आधिकारिक मुहर लगा दी।
पटना के कई क्षेत्र के लोग आज भी ठहरे पानी की जानलेवा दुर्गंध और सांप-बिच्छुओं के आंतक के बीच शापित जीवन जीने का दंश झेल रहे हैं। डेंगू तो जैसे महामारी का रूप लेता जा रहा है। दुर्भाग्य है कि ऐसे में अब किसी भी कोने राहत की प्रायः हर गतिविधि स्थगित है। जल-जमाव से मुक्त मुहल्लों में सरकार मच्छर मारक रसायन का छिड़काव भले करवा रही हो मगर इसका असर कितना हो रहा है, इसे इस रूप में देखा जाना चाहिए कि डेंगू के केस में कमी की जगह बढ़ोत्तरी ही हो रही है।
मगर, इस पूरे परिदृश्य में मीडिया खास तौर पर सोशल मीडिया में जिस एक व्यक्ति की चर्चा बड़े ज़ोरदार ढंग से हो रही है तो वह हैं जन अधिकार पार्टी (जाप) के मुखिया और पूर्व सांसद पप्पू यादव। राजधानी में जल जमाव के भीषण दौर के दरम्यान पप्पू यादव ने कमर तक जमे पानी और अपने भारी भरकम शरीर के बीच गजब का संतुलन बनाये रखते हुए जिस नायकत्व अंदाज़ में मुसिबतज़दा लोगों की मदद की, वह सचमुच काबिलेतारीफ है।
जहां दूसरे राजनेता खासतौर पर राजधानी पर हर स्तर पर काबिज़ भाजपा के नेता इस मौके पर शुतुरमुर्ग की तरह बेशर्मी में मुंह छुपाये पड़े रहें, पप्पू यादव ने अपने निजी संसाधनों के बल पर राजधानीवासियों की भरपूर सेवा की। उन्होंने इतने बड़े स्तर पर राहत सामग्री के लिए धन कहां से जुटायी, यह पूछना बेमानी होगी।
हम सभी जानते हैं कि व्यक्तिगत स्तर पर अपनी एक पार्टी चलाने तथा पति-पत्नी के कई दफा सांसद रहने के कारण पप्पू यादव अत्यंत साधन संपन्न नेता हैं। उन्हें राहत सामग्री जुटाने के लिए जनता के बीच धन-संग्रह के लिए जाने की अतिरिक्त कवायद नहीं करनी पड़ी। इसके अतिरिक्त, चूंकि वह एक मंजे और नाटकीय नेता हैं, तो हमने इस पूरे राहत अभियान के दौरान उनके उस लटके झटके को भी बखूबी देखा जो जनता के बीच जाने पर स्वभावतः परिलक्षित हो उठता है। दोनों हाथ जोड़े मुसिबतज़दा लोगों से वह इस तरह मुखातिब लगते दिखे जैसे कोई नायक कह रहा हो, अरे यारो, मुझे पहचानो; मैं हूं…
देवदूत बनी युवाओं की टोली
इस किस्से का एक दूसरा पहलू भी है। यदि कहा जाये कि इसमें मुसिबतज़दा लोगों के बीच देवदूत के रूप में कूदे अनगिनत युवा नायकों/नायिकाओं की अपार निश्छल, निस्वार्थ मगर कठोर सेवा भाव की अनकही कहानियों की भरमार है, तो गलत ना होगा। ये युवा लड़के/लड़कियां मुख्यरूप से राजधानी के विभिन्न कॉलेजों/विश्वविद्यालयों के अध्ययनरत स्टूडेंट तथा अपने-अपने छात्र-संगठनों के प्रतिबद्ध काडर हैं; कुछ संस्कृतिकर्मी भी।
इनमें बहुतेरे निजी या कॉलेजों/विश्वविद्यालयों के छात्रावासों में रहने वाले हैं और खुद भी इस भयावह विपत्ति के शिकार हैं। वे बिलकुल साधनहीन हैं और उनके संगठन भी। मगर, उनमें युवोचित रोमांच है तो भीषण विपत्तियों में घिरे लोगों के आर्तनाद से द्रवित होकर अपनी जान की परवाह ना करते हुए जानलेवा जमे पानी में कूद पड़ने का अपार साहस भी।
उन्होंने अपनी अत्यंत साधनहीनता के बावजूद पीड़ितों को लगातार राहत सामग्री मुहैया कराने की खातिर किसी कॉरपोरेट घराने या थैलीशाह राजनेताओं के आगे हाथ फैलाने की जगह आम जनता तथा छोटे दुकानदारों के आगे झोली फैलाना मुनासिब समझा। और, इस मामले में लोगों ने इन साहसिक युवा राहत अभियानियों को नगद या वस्तुओं के रूप में दिल खोलकर मदद की।
इन प्रतिबद्ध युवा राहत टीमों के पास बड़ी गाड़ियां, ट्रैक्टर, नाव आदि नहीं थीं, तो जहां तक बन पड़ा रिक्शा या ढेले को खुद ही ढेलते हुए चल पड़े, या फिर कमर भर पानी में उतरकर पैदल ही जल जमाव के ऐसे दुर्गम हिस्सों में राहत सामग्री बांटी, जहां जाने में शक्तिशाली बोट पर सवार सरकार के नुमाइंदे भी कतराते रहें।
आप इन तस्वीरों में देख सकते हैं कि ये युवा अभियानी पानी की बोतलों तथा अन्य राहत सामग्रियों को अपने कंधों पर लादे झुग्गी झोपड़ियों के सबसे अधिक संकटग्रस्त लोगों तक पहुंचने का कैसा खतरा उठा रहे हैं। सही मायने में खतरों के ये युवा खिलाड़ी दो-चार दिन के ही मेहमान नहीं रहे जैसा कि अन्य क्षेत्र के राहत अभियानियों को देखा गया। ये अपने राहत अभियान में लगातार दसवें-ग्यारहवें दिन तक देवदूत बनकर लोगों की जीवन रक्षा में डटे रहें।
और, सबसे बड़ी बात यह कि इन्हें कठिनतम दो स्तरों पर अपने काम को अंजाम देने की परीक्षा से होकर गुज़रना होता था।
- पहला, राहत सामग्री जुटाने के लिए चंदा अभियान चलाना।
- दूसरा, तैयार सामग्रियों को पीड़ितों तक पहुंचाना। और, कहना ना होगा कि इन दोनों ही स्तर पर इनके काम स्वर्णिम अक्षरों में लिखे जाने के काबिल रहा।
पप्पू यादव की तरह इन युवाओं की सराहना नहीं हो सकी
मगर, इनके कामों की सराहना पप्पू यादव की तरह नहीं हो सकी, ना मीडिया में ना ही राजधानी के कथित बौद्धिक वर्ग में, तो इसका मात्र कारण है इनके पीछे किसी चकाचौंध या किसी बड़े प्रतिष्ठान का वरदहस्त ना होना।
1975 में आई भीषण बाढ़ में डूबी राजधानी की त्रासदी पर फणीश्वरनाथ रेणु से लेकर अनेक दिग्गज पत्रकारों ने भी जाने कितनी मार्मिक रिपोर्टें एवं टिप्पणियां लिखी थीं, जिन्हें आज भी लोग याद करते हैं। मगर, भारी आचरण की बात है कि इस बार की त्रासदी पर इस वर्ग में घोर चुप्पी छायी रही। उन्होंने ने भी इन युवा राहत अभियानियों की जान पर खेल जाने वाले राहत कार्यों की कोई नोटिस लेने की ज़रूरत नहीं समझी। तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया को क्या कहें, वह तो पहले से ही सरकारों की ताबेदारी करने के मामले में सारी हदें पार कर चुकी है।
फिर भी, इन युवा नायक/नायिकाओं के बेमिशाल राहत कार्यों की अमिट छाप पीड़ित राजधानीवासियों के दिलों में ताउम्र बनी रहेगी जैसा कि भागवत नगर की झुग्गी-झोपड़ी की वस्तुतः मरणासन्न अवस्था में पड़ी झुनिया देवी के कथन में ज़ाहिर हुआ है। उन्होंने भरे आंसुओं समेत बयान किया, “इ बउवा सब तो हमनी खातिर भगवान समान हथिन”। झुनिया देवी के भावविह्वल कथन के साथ पटरी बैठाते हुए इन युवा देवदूतों के प्रति मैं भी सलामी ठोंकने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूं।