आठ- दस साल पहले बनारस के ही एक प्रोफ़ेसर से मिला था वो वेदांत पढ़ाते थे, पर उस धर्म से नहीं थे जिसने आज इसका ठेका ले लिया है। मेरा एक बहुत प्यारा दोस्त है जिसे शिव तांडव स्त्रोत और तमाम श्लोक- मंत्र कंठस्थ है जिसे पढ़ने भर में ठेकेदारों की हवा निकल जाती है। वो भी संस्कृत की ठेकेदारी करने वाले धर्म से नहीं आता। उसकी बहन संस्कृत से अपनी डिग्री पूरी कर रही है। मेरे आस पास कितने कवि-शायर हैं जो उर्दू के उस्ताद हैं लेकिन उनका धर्म वो नहीं है जिसने उर्दू का ठेका ले रखा हो। मेरे पिता को उर्दू से प्रेम है और उर्दू सीखने में धर्म कभी आड़े नहीं आया।
तो जब पहले कोई दिक्कत नहीं थी ऐसी तो अब कैसे हो रही है! कौन हैं वो लोग जो भाषाओं को अपने धर्म की जागीर समझने लगे हैं! ये लोग जो भी हैं देश इनके आईडिया को कभी स्वीकार नहीं करेगा। भाषा हमेशा लिखने, पढ़ने और बोलने वालों की रही है और उन्हीं की रहेगी।