हैदराबाद से उठी चीख
हैदराबाद में हुई घटना महज एक घटना नहीं है, महज एक हैडलाइन नहीं है, यह आईना है हमारे समाज के लिए, यह सवाल है जिसे आज हमें पूछने की जरूरत है। यह घटना हमारी दिन दिन मरती संवेदना का एक भयानक उदहारण है। भूल जाइये पक्ष विपक्ष, रजनीति, अर्थव्यवस्था, धर्म, समाज, सब कुछ, और एक बार महसूस कीजिये उस तड़प को जो पीड़िता ने अपने आखिरी क्षणों में महसूस किया होगा। यह घटना उन लाखों करोड़ों औरतों के लिए कौनसा उदहारण पेश करती है जो इस पुरुषप्रधान समाज मे अपनी पहचान खोजने निकली है। क्या हम एक ऐसा समाज उन्हें देंगे जिसमे वह घुट घुट के हर पल जीती रहें, या ऐसा समाज जहाँ वह रोज घर आकर इस बात का शुक्र मनायें की आज उसका बलात्कार नहीं हुआ, वह आज जिन्दा नहीं जलाई गई।
हम कहाँ जा रहे हैं और क्या कर रहे ?
यह बड़ी बड़ी इमारतें, यह चमकती सड़कें, यह मॉल, यह सुपरमार्केट, सिनेमा हॉल, स्कूल, कॉलेज, क्या एक विकसित समाज के लिए पर्याप्त है। क्या हमें यह बेहतर इंसान बना पाईं है? सामाजिक न्याय महज एक किताबी शब्द या किसी कवि की बेतुकी ख्वाहिश भर है? हमें इन प्रश्नों पर आज नहीं तो कल सोचना ही होगा। अब यह सवाल सवाल नहीं रह गया है, यह एक भयानक दानव का रूप ले चुका है और इसे मारने कोई राम या कृष्ण नहीं आ रहें, हमें स्वत ही इनसे झूझना होगा। फैसला करना होगा हमारी माँ, बहन, बेटी, सखी, जानकर को क्या हम एक बेहतर समाज देना चाहते भी हैं या नहीं।
अगर हाँ, तो हमारी आवाज़ बुलंद होनी चाहिए, इरादे मजबूत होने चाहिए। यह जंग घर से शुरू होती है, और हर घर जाती है। इससे लड़ना आज फ़र्ज़ नहीं हमारा दायित्व बन चुका है और हम इस दायित्व से चूक नहीं सकते। गलत को गलत कहना सीखें, आवाज़ उठाना सीखें, न्याय के शसक्तीकरण के लिए गंभीर होना सीखें, अन्यथा यह महज एक घटना बन भुला दी जाएगी। ऐसा न करें। गलत होता देख तुरंत बोलें, बात करें, काम करें, महज एक मूक दर्शक बन तमाशा ना देखें।
क्या पता एक दिन उस तमाशे के बीच मे आप खुद हो और कोई आवाज़ उठाने वाला ना मिलें.