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धुंआ-धुंआ हो गई है अपनी दिल्ली

धुंआ-धुंआ हो गई दिल्ली

दिखी नहीं कोई ठंड है।

 

धुंधले-धुंधले रास्ते दिखे

समझ ना आया धुंआ है या धुंध है।

 

सांस उखड़ सी रही सबकी

सच दिल्ली आज कितनी दुर्गन्ध है।

 

आग से धुंआ रिवाज़ है कुदरत का

मगर यहां धुंध ही धुंआ है आग नहीं संग है।

 

दिल्ली में वास्तव अब ज़िन्दगी

धीरे-धीरे हो रही बदरंग है।

 

आज हर बच्चा खांसता दिखा मुझे,

क्यों ऐ-दिल्ली की हवा आज इतनी बेरंग है?

समझने पर पता चला कि

हमारी ही गलतियों का ये एक संगम है।

 

अब नेताओं कि क्या बात करें

उनके तो गिरगिट जैसे अंग हैं।

नीतियों को रख किनारे सत्ता की खेल खेलें

आपस में ही प्रतिदिन गुढ़ते नए प्रसंग हैं।

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