बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में मैंने अपने जीवन के अब तक के सबसे महत्वपूर्ण तीन-चार साल बिताएं है। यहां मैंने कई आंदोलनों को देखा जहां स्टूडेंट्स ने अपने उज्जवल भविष्य के लिए यूनिवर्सिटी प्रशासन के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई है। अभी एक महीने पहले ही स्टूडेंट्स ने इसी तरह प्रशासन से अपनी कुछ मांगों को लेकर एक लंबी लड़ाई लड़ी, जिसमें स्टूडेंट्स को सफलता भी मिली। वे मांगे थीं,
- रात में 11 से सुबह 8 बजे तक के लिए लाइब्रेरी के पास एक रीडिंग रूम हो।
- छात्राओं को भी हॉस्टल्स से अनुमति लेकर 10 बजे के बाद भी बाहर जाने का हक हो।
- प्रत्येक आवश्यक स्थान पर गर्ल्स वॉशरूम बनाया जाए।
- लड़कियों के सारे होस्टल्स में कैंटीन बनाई जाए।
- लाइब्रेरी में सारी बुक अपडेट की जाएं।
- विकलांग छात्रों के लिए पर्याप्त सुविधा हों।
- कैम्पस में सेनेटरी वेंडिंग मशीन लगाई जाए।
- 100 से अधिक क्षमता वाले क्लासरूम में माइक लगवाया जाए।
बीएचयू में अपने और साथी स्टूडेंट्स के लिए इसी तरह स्टूडेंट्स ने आवाज़ उठाई है जो कि युवा शक्ति को दर्शाता है। लेकिन आज बीएचयू में स्टूडेंट्स जिस बात को लेकर विरोध कर रहे हैं, वह मुझे व्यक्तिगत तौर पर आहत कर रहा है। यह विरोध है एक अल्पसंख्यक शिक्षक के नियुक्ति का।
विश्वविद्यालय को पूरी तरह से सांप्रदायिक कहना गलत है
बीएचयू में जातीय और साम्प्रदायिक माहौल से अभी पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता है लेकिन कभी किसी शिक्षक की भर्ती को लेकर इस तरह का साम्प्रदायिक माहौल मैंने कभी नहीं देखा। हां, बीएचयू में मैंने मुस्लिम लड़के को हिंदू लड़की के साथ घूमने के कारण पिटते भी देखा है लेकिन इस आधार पर यह कहना भी बिल्कुल गलत है कि बीएचयू पूरी तरह से साम्प्रदायिक है।
यह वही बीएचयू है जहां भीड़ द्वारा हत्या यानि की मॉब लिंचिंग के खिलाफ भी स्टूडेंट्स निकलते हैं। हाल ही में मैंने बीएचयू में स्टूडेंट्स द्वारा विरोध की एक तस्वीर देखी। इस तस्वीर में स्टूडेंट्स विश्वविद्यालय के एक फैसले का विरोध कर रहे हैं।
ये लड़के संस्कृत विद्या धर्म विह संकाय में एक मुस्लिम शिक्षक कि नियुक्ति का विरोध कर रहे हैं। साफ और स्पष्ट तौर पर बात यह है कि ये स्टूडेंट्स संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में एक मुस्लिम शिक्षक की नियुक्ति का विरोध कर रहे हैं।
सवाल यह है कि जब हिन्दू शिक्षक अरबी, उर्दू, फारसी पढ़ा सकते हैं, तो मुस्लिम शिक्षक संस्कृत क्यों नहीं पढ़ा सकते? कहां गई सारी सहिष्णुता? आप ही तो थे जो पहले सहिष्णुता का इतिहास बताते हुए कहते थे कि हिंदुओं से ज़्यादा कोई सहिष्णु नहीं है। तो अब क्या हुआ?
मैं हिंदू धर्म के तथाकथित ठेकेदारों को बताना चाहूंगा कि भाषा किसी सीमा से नहीं बंधी होती है।
संस्कृत एक भाषा है और इसे बतौर भाषा कोई भी सीख सकता है और सीखा सकता है। यह किसी की जागीर नहीं होनी चाहिए। मेरी समझ से संस्कृत, हिंदी तथा तमाम क्षेत्रीय भाषाएं जिन पर धीरे-धीरे अस्तित्व का संकट आ रहा है, उसका कारण यही मठाधीशी या सत्ता का केंद्रीकरण करने वाले हैं। यही वे लोग हैं जो इन बातों को निर्धारित करते हैं। दरअसल, ये उनकी संकीर्ण मानसिकता का परिणाम है।
संकीर्ण मानसिकता की वजह से क्षेत्रीय भाषाओं पर संकट
इससे कोई संदेह नहीं है कि आज हमारी क्षेत्रीय भाषाएं संकट के दौर से गुज़र रही हैं। इसलिए माननीय लोगों इस संकीर्ण और सड़ी-गली मानसिकता से निकल जाईए कि संस्कृत पर सिर्फ ब्राह्मणों का अधिकार है। यकीन मानिए आपकी इसी मानसिकता ने संस्कृत का बेड़ा गर्क कर दिया है।
हमें अपने मुल्क की तमाम क्षेत्रीय भाषाओं को धार्मिक और जातीय बंधनों से मुक्त मानकर उसका गहन अध्ययन करना चाहिए। तभी हम अपनी संस्कृति और अपनी उन तमाम भाषाओं को बचा पाएंगे।
मैं फिर कहूंगा कि बीएचयू में किसी शिक्षक के धर्म को लेकर इस तरह से विवाद कम से कम मैंने तो नहीं देखा है। इसी बीएचयू में लाइब्रेरी के लिए बच्चों ने लगातार संघर्ष किया है, छात्राओं ने अपने अधिकारों के लिए जमकर संघर्ष किया है। ऐसे में इस तरह का नकारात्मक विरोध प्रदर्शन समाज के लिए काफी खतरनाक है।
प्रशासन ने सांप्रदायिकता फैलाने वाले छात्रों को दिया करारा जवाब
बीएचयू प्रशासन ने मुस्लिम प्रोफेसर की नियुक्ति का विरोध कर रहे छात्रों को करारा जवाब दिया है। प्रशासन ने एक प्रेस रिलीज़ निकालकर ना सिर्फ मुस्लिम प्रोफेसर की नियुक्ति का विरोध कर रहे छात्रों की निंदा की बल्कि यह भी बताया कि बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी धर्म, जाति, संप्रदाय, लिंग आदि भेदभाव से ऊपर उठकर शिक्षा के समान अवसर प्रदान करेगा। जो कि राष्ट्र-निर्माण के लिए अति आवश्यक है।
पूरा विश्वविद्यालय अपने इस फैसले के कारण बधाई का पात्र है। मुझे फक्र है कि मैं ऐसे विश्वविद्यालय में पढ़ा, जिसने जातीय और धार्मिक संकीर्णताओं से ऊपर उठकर संस्कृत विद्या धर्म संकाय में नियुक्ति प्रक्रिया को पूरा किया है और एक अल्पसंख्यक समाज का व्यक्ति संस्कृत का शिक्षक नियुक्त हुआ है।
यह पूरे विश्वविद्यालय परिवार के लिए गर्व का विषय होना चाहिए। जहां पर हर जाति व धर्म के लोगों के लिए समान अवसर उपलब्ध है। जिस तरीके से कुछ छात्रों ने प्रोफेसर का विरोध किया है, वह बेहद शर्म की बात है।
अब सवाल हमारे लिए
सवाल ये है कि हम कहां आ गए हैं? जहां एक तरफ हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दंभ भरते हैं, वहीं दूसरी तरफ हम एक खास समुदाय का इसलिए विरोध कर रहे हैं कि वह संस्कृत कैसे पढ़ा सकता है?
क्या हमारा देश इसी नफरत को सहिष्णुता का नाम देता है? एक छात्र होने के नाते मैं ये सोचता हूँ कि कहां हमें नागरिक बनने की तरफ कदम बढ़ाना चाहिए था लेकिन हम नागरिक बनने की प्रक्रिया में आगे बढ़ने की बजाय अब और पीछे की और भागने लगे हैं।
अब सवाल है कि हम कितना पीछे जाकर रूकेंगे? हम कब जाकर ये समझेंगे कि ये मज़हब, जाति, बोली और भाषा से बढ़कर हम सब एक इंसान हैं। हमारे अंदर संवेदना, करुणा, दया, क्षमा जैसी भावनाएं हैं, जो शायद धरती के किसी और जीव में नहीं है।
अगर हमने अपनी संवेदनशीलता छोड़ दी तो यकीन मानिए हम एक पढ़े-लिखे, शानदार स्टाइलिश कपड़े पहने जानवर होंगे। इसलिए इन मज़हब, भाषा, जाति आदि की दीवारों से आगे निकलिए और भारत के एक सच्चे और जागरूक नागरिक बनने की तरफ कदम बढ़ाइए।