Site icon Youth Ki Awaaz

तीस हज़ारी केस: “अब न्याय वाले ही आपस में हमला-हमला खेल रहे हैं”

हिंसा के खिलाफ खड़ा होना ही हमारा सत्य भी है और संघर्ष भी है। चाहे वकीलों द्वारा की गई बर्बता हो या फिर समय-समय पर पुलिस द्वारा की गई क्रूरता। दोनों के खिलाफ ही खड़ा होना जायज़ और न्यायिक भी है।

लेकिन दुख इस बात का है कि ये वही वकील हैं, जिन्होंने अभी कुछ साल पहले ही राष्ट्रवाद के नाम पर, हिंसा को अंजाम देकर “नए भारत” की बुनियाद रखी थी। पुलिस द्वारा कानून व्यवस्था के नाम पर आम लोगों पर अत्याचार करना, “पुराने भारत” से लेकर “नए भारत” की ही तस्वीर है।

वैसे दिल्ली पुलिस भारत की कमोवेश अच्छी पुलिस में से एक है लेकिन आज उसके साथ कुछ ही लोग खड़े हैं। ऐसा क्यों है? असल में जो उन्हें सिर्फ पुलिस नहीं बल्कि नागरिक भी समझते थे, उन्हें उनकी जल, जंगल और ज़मीन से कब का रुखसत करवा दिया गया। वो कटती जंगलों की कराह, वो बहती नदियों की वेदना और पैरों से ज़मीन खींच लेने के बाद मरते आदमी की चीखों ने खाकी वर्दी, काला कोर्ट, खादी और सूट-बूट के गठजोड़ को सामने से रूबरू करवा दिया था।

पुलिस और वकीलों के बीच हिंसा, फोटो साभार- ट्विटर

दिल्ली पुलिस को लेकर व्यक्तिगत कोई अनुभव नहीं है, इसलिए कोई भी राय बनाना मुमकिन नहीं है। वैसे अब कुछ भी नामुमकिन नहीं है बल्कि सब मुमकिन है, क्योंकि इस देश के राजा ने ऐलान किया है कि उसके राज में सबकुछ मुमकिन है।

संवैधानिक लोकतंत्र में राजा?

तीस हज़ारी में विरोध प्रदर्शन करते वकील, फोटो साभार-ट्विटर

संवैधानिक लोकतंत्र तो वह होता है, जहां हर व्यक्ति बस नागरिक होता है। ना कोई पुलिस होती है, ना ही कोई वकील, जहां इतने सारे पदसोपान हो, कोई अधिकारी हो, तो कोई जवान और उसमें नागरिक होने का बोध तक ना हो तो वो लोकतंत्र कहां? किसी के पास वर्दी का घमंड है, तो किसी के पास काले कोर्ट का, किसी के पास 15 लाख के सूट का अभिमान है, तो किसी के पास खादी कुर्ते का।

ये सब मिलकर अत्याचार उनपर करते हैं, जिनकी देह पर सिर्फ प्रकृति का दिया चमड़ा है। इस चमड़े को कभी वर्दी ने उधेड़ दिया, तो कभी काले कोर्ट ने इसकी आंत निकाल ली और फिर खादी वालों ने तो इसका दिल ही निकाल लिया। फिर जो ये मरा हुआ शरीर दिख रहा है, वही तो लोकतंत्र था, जिसकी हत्या कर दी गई, इस अलग-अलग कपड़ों में लिपटे रखवालों के द्वारा।

वैसे किसी ने कहा कि संविधान खतरे वाली बात क्या है?

जवाब तब भी दिया था। खैर! जब संविधान की अनदेखी होती है, तभी ऐसा होता है। इस भीड़ ने नागरिक की हत्या तो पहले ही कर दी थी, अब हिंसा की आदत पड़ गई लेकिन शिकार बचा नहीं, इसलिए अब आपस में शिकार-शिकार खेला जा रहा है।

खाकी, काले कोर्ट का शिकार करेगा फिर काला कोर्ट खाकी का शिकार करेगा और फिर जो बचेगा उसका शिकार खादी वाला करेगा। खादी वाले का शिकार सूट-बूट करेगा, असल में सूट-बूट वाले को देश का शिकार करने की खुली छूट देने वाले खाकी वर्दी, काला कोर्ट, खादी में से कोई भी बचेगा नहीं।

बाकी! तीस हज़ारी कोर्ट की हिंसा का विरोध तो होना जी चाहिए। पुलिस को इंसाफ मिलना चाहिए। असल में न्याय तो उसको भी मिलना चाहिए जो न्याय का मखौल उड़ाते रहते हैं।

Exit mobile version