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“IIT और दूसरे इंजीनियरिंग कॉलेजों से JNU की फीस की तुलना मैं गलत क्यों मानता हूं”

आज JNU की नहीं, बल्कि वहां हॉस्टल फीस बढ़ाए जाने के विरोध में हुए प्रदर्शन पर आम लोगों की प्रतिक्रिया पर बात करेंगे। JNU क्योंकि एक शिक्षण संस्थान है इसलिए शिक्षा के बारे में भी कुछ चर्चा होनी ही चाहिए।

शिक्षा सुविधा नहीं, अधिकार है

JNU स्टूडेंट्स।

शिक्षा किसी देश के नागरिकों को मिलने वाली कोई सुविधा नहीं होती बल्कि यह प्रत्येक नागरिक का अधिकार होता है। जिस तरह किसी इंसान के लिए रोटी-कपड़ा-मकान बुनियादी ज़रूरतें होती हैं, ठीक उसी प्रकार शिक्षा भी उसकी बुनियादी ज़रूरत है। हम अपने दैनिक जीवन में कई बार इस तरह के वाक्य सुनते रहते हैं, “गरीब घर में पैदा होना ही मेरा सबसे बड़ा गुनाह है”, वहीं एक वाक्य और भी हमने कभी ना कभी सुना होता है, “गरीब पैदा होना गुनाह नहीं है पर गरीब ही मर जाना यह गुनाह है”। पहले कथन से दूसरे कथन तक का सफर शिक्षा से ही तय होता है।

समानता क्या है?

अक्सर हम समानता के अधिकार की बात करते हैं पर यह समानता है क्या? उदाहरण के तौर पर दो आदमी हैं एक अमीर और दूसरा गरीब। तो यहां समानता यह नहीं कि अमीर का पैसा गरीब को देकर दोनों की संपत्ति बराबर कर दी जाए। बल्कि समानता यह होगी कि दोनों के बच्चों को एक समान बुनियादी ज़रूरतें मिले। यहां निम्नतम बुनियादी ज़रूरत की बात कर रहा हूं, वो बराबर मिलनी चाहिए।

अगर अमीर समृद्ध है, उसके घर में एसी, कार वगैरह है तो इससे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए पर दोनों के बच्चों को अगर समान शिक्षा नहीं मिल रही है तो आपत्ति यहां पर होनी चाहिए।

यहां हम मुख्य रूप से शिक्षा की चर्चा कर रहे हैं। तो जब सबको समान शिक्षा मिलेगी तो फिर वहां से जिसकी जितनी क्षमता और मेहनत होगी वह उतना आगे बढ़ेगा। तभी जाकर उपरोक्त पैराग्राफ में पहले वाक्य से दूसरे वाक्य तक का सफर पूरा होगा।

JNU को लेकर सोशल मीडिया पर लोगों की प्रतिक्रिया

अब आते हैं सोशल-मीडिया पर लोगों की प्रतिक्रियाओं पर। सब अपने-अपने तर्कों से JNU की फीस की तुलना कर रहे हैं। कुछ कह रहे हैं उन्होंने बीटेक कोर्स में साल के लाखों रुपये देकर पढ़ाई की है और JNU में लोग 20 से 30 रुपए में हॉस्टल में रह रहे हैं। ये टैक्स के पैसों की बर्बादी है।

तो कुछ यह कह रहे हैं कि जब आईआईटी की फीस लाखों रुपये हो सकती है, जबकि सरकारी संस्थान वह भी है, तो JNU की फीस वृद्धि में क्या दिक्कत है? आखिर 600 रुपए ही तो महीने की हॉस्टल फीस हुई, इसमें इतनी क्या परेशानी?

सबके अपने-अपने तर्क हैं पर दिक्कत यह है कि हमें सिर्फ 600 रुपए ही दिखाए जा रहे हैं। जबकि और भी शुल्क जैसे यूटिलिटी चार्ज आदि जोड़कर कुल वार्षिक फीस 45000 रुपए के करीब हो जाएगी, जो कि किसी गरीब स्टूडेंट के लिए बहुत ज़्यादा है।

व्यावसायिक शिक्षा और ह्यूमैनिटीज़ स्ट्रीम के बीच रोज़गार का फर्क

प्रोटेस्ट करते JNU स्टूडेंट्स

पर इतना सब कहने से पहले सब भूल जाते हैं कि इंजीनियरिंग व मैनेजमेंट वाले या अन्य इस तरह के कोर्स मुख्य रूप से व्यावसायिक उद्देश्य से किये जाते हैं। यहां से कोर्स पूरा करने पर आपको नौकरी मिल जाती है पर सामान्य स्नातक व संबंधित उच्च शिक्षाओं में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती है। यहां से शिक्षा प्राप्त करके सीधे रोज़गार नहीं मिलता है।

तो दोनों की तुलना करना तर्क नहीं कुतर्क होगा। गरीब बच्चे भी इंजीनियरिंग करते हैं पर किसी तरह इंजीनियर बन गए तो नौकरी मिल ही जाती है पर कोई स्टूडेंट बीए करके सीधे नौकरी नहीं पा सकता, इसलिए रोज़गार सृजित करने वाले पाठ्यक्रमों में अगर फीस बीए-एमए से अधिक है तो इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

क्यों ज़रूरी है ह्यूमैनिटीज़ स्ट्रीम की पढ़ाई

अब सवाल यह है कि जब बीए-एमए जैसे सामान्य कोर्स से नौकरी नहीं मिलती तो इसे पढ़ाते ही क्यों हैं? ऐसे तर्क भी शायद कुछ लोग करें तो इसको जानना आवश्यक है कि ऐसे पाठ्यक्रमों से जैसे साहित्यिक विषय से हम अपनी संस्कृति को जीवित रखते हैं, उसपर शोध करते हैं, इतिहास विषय से भूतकाल से वर्तमान की तुलना करते हैं और उससे सीखते हैं, ऐसे ही राजनीति विज्ञान, भूगोल इत्यादि सभी विषयों का अपना महत्व है। इसलिए ये पाठ्यक्रम भी उतने ही ज़रूरी हैं जितने बीटेक व अन्य।

शिक्षा निशुल्क होनी चाहिए और व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में भी वहन करने योग्य होनी चाहिए। शिक्षा और स्वास्थ्य की ज़िम्मेदारी अगर ठीक से सरकार उठाए तो कम आय में भी जीवन आसानी से जिया जा सकता है और यह कोई भीख मांगना नहीं है। 

एक कथन बहुत प्रचलित है कि लोग अपने दुख से उतना परेशान नहीं होते, जितना दूसरे के सुख से। ठीक ऐसा ही हो रहा है। जिनकी फीस अधिक है या लगातार बढ़ाई गई है, जैसे आईआईटी में या अन्य संस्थानों में उनको अपने बढ़ी फीस से आपत्ति नहीं पर कोई कम फीस से शिक्षा ले रहा उससे दिक्कत हो रही है। फीस सबकी कम होनी चाहिए।

फिनलैंड, जर्मनी, साथ ही कुछ अन्य यूरोपियन देश हैं, जहां शिक्षा निशुल्क है या तो बहुत सस्ती है, क्योंकि उन्होंने अपनी प्राथमिकताएं तय की हैं। उन्हें पता है मानव को एक मानव-संसाधन कैसे बनाना है। उम्मीद है हमारे देश में भी ऐसी कुछ व्यवस्था हो।

अंततः एक बात कहना चाहूंगा कि फीस दोंनो तरफ बढ़ी है, इंजीनियरिंग की भी और ह्यूमैनिटीज़ स्ट्रीम की भी पर बीए-एमए के बच्चे अपने अधिकारों के लिए अधिक संघर्ष कर पाते हैं, क्योंकि यह उनके पाठ्यक्रम का एक हिस्सा होता है। लोकतांत्रिक मूल्यों को वे बचाकर रखते हैं, उसे जीते हैं और उसे आगे बढ़ाते हैं।

यहां इंजीनियरिंग या मेडिकल के स्टूडेंट्स ऐसा मुश्किल से कर पाते हैं, इसलिए सबको एकजुट होकर उनका साथ देना चाहिए ना कि उनको दोषी बनाना चाहिए, क्योंकि हमारी किसी मांग को लोकतांत्रिक तरीके से मनवाने के लिए ये छात्र भी हमारे साथ खड़े रहेंगे।

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