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“क्या देश की बेहतरीन यूनिवर्सिटी JNU को देशद्रोहियों का अड्डा कहना जायज़ है?”

कहा जाता है,

सा विद्या या बिमुक्ते यानी कि विद्या वही जो मुक्ति दे।

फिर चाहे वह मुक्ति भ्रष्टाचार से हो, गरीबी से हो, कुपोषण से हो या कोई भी समस्या जो देश और देशवासियों के अधिकारों और विकास को बाधित करता है।

प्राचीन काल से ही भारत उच्च शिक्षा का केंद्र रहा है। इसके अलावा मिस्र, यूनान आदि देशों में भी उच्च शिक्षा दी जाती थी। देश की आज़ादी के बाद उच्च शिक्षा के केंद्र के रूप में देश में बड़े-बड़े विश्वविद्यालय स्थापित किए जा रहे थे।

इसी क्रम में सन 1969 में दिल्ली में जेएनयू विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। जिसे (NACC) राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद द्वारा A++ रेटिंग दिया गया है। जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय एकता ,समाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता, जीवन के लोकतांत्रिक न्याय ,अंतरराष्ट्रीय समाज और सामाजिक समस्याओं के प्रति वैज्ञानिक चेतना है।

इंदिरा वामपंथ और JNU

साठ के दशक के अंत तक 10 राज्यों में गैर काँग्रेसी सरकार बन चुकी थी। दूसरी तरफ जनसंघ तेज़ी से अपना विस्तार किए जा रहा था, जो  काँग्रेस के लिए चिंताजनक थी।

तभी भारतीय राजनीति में सेक्यूलर बनाम सांप्रदायिकता की नींव रखी गई। चूंकि इंदिरा को यह डर लगा होगा कि हिंदुत्व को सांप्रदायिकता के तौर पर प्रचारित करने का काम काँग्रेस खुद करेगी, तो कहीं हिंदू ध्रुवीकरण उसके खिलाफ ना हो जाए और यह जोखिम इंदिरा खुद लेना नहीं चाहती थी। अतः अपने अनुकूल विमर्श को मुख्यधारा में लाने का इंदिरा का ख्याल बिलकुल अंग्रेज़ों जैसा था। अतः इंदिरा ने वामपंथ को इसके लिए चुना और जल्द ही इसकी (वामपंथ) जकड़ JNU तक पहुंच गई।

विवाद और JNU

इसके विरोध में कई कट्टर मुस्लिम एवं हिंदू संगठनों ने प्रदर्शन किया। इस घटना के बाद से जेएनयू की तरफ देखने का पब्लिक का नज़रिया बदल गया।

वह विवाद जिसने JNU के प्रति नफरत फैला दी

9 फरवरी 2016

12 फरवरी 2016

फिर शुरू होता है JNU के प्रति नफरत, गंदे-गंदे बयानों का दौर। किसी ने इसे देशद्रोहियों का अड्डा करार दिया, तो किसी ने यहां तक कह दिया कि JNU को बंद कर देना चाहिए। इस तरह की बयानबाज़ी आज तक जारी है।

लोग यह भूल जाते हैं कि देश में विचित्र (वित्त) मंत्री तथा विदेश मंत्री भी जेएनयू के पूर्व छात्र रह चुके हैं। अभी हाल में ही नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी भी पूर्व जेएनयू छात्र रह चुके हैं।

गरीब, JNU और सरकार

भारत सरकार द्वारा यह तय किया गया है कि ग्रामीण इलाकों में प्रतिदिन 22 रुपये 42 पैसे खर्च करने वाले को गरीब नहीं कहा जा सकता है। इस हिसाब से महीने का 672 रुपये 80 पैसा बना, चलिए इसे 1000 रुपये ही मान लेते हैं। इसका मतलब अगर ग्रामीण इलाके से आते हैं और महीने में 1000 रुपये खर्च करने के काबिल हैं तो आप गरीब नहीं हैं। अगर साल भर की बात करें तो एक साल में 12000 रुपये खर्च करने वाला कोई भी ग्रामीण गरीब नहीं होगा।

आइए एक नज़र फीस को समझते हैं।

फीस बढ़ोतरी के पीछे सरकार का तर्क है कि विश्वविद्यालय में हो रहे खर्च स्टूडेंट्स से वसूल किए जाए।

JNU छात्रसंघ की मांग

जेएनयू के स्टूडेंट्स का कहना है कि फीस की अप्रत्याशित बढ़ोतरी, हॉस्टल की टाइमिंग, पुस्तकालय के समय अवधि में किए गए बदलाव को तत्काल वापस लिए जाएं। सस्ती और मुफ्त शिक्षा सबका अधिकार है।

भारत सरकार द्वारा गरीबी का मानक तय करना और फीस का बढ़ोतरी यह दिखाता है कि भारत सरकार गरीबों को उच्च शिक्षा देना नहीं चाहती है। ऐसे में या तो भारत सरकार को गरीबी रेखा का मानक बदल देना चाहिए या सस्ती शिक्षा के नाम पर खिलवाड़ को बंद कर देना चाहिए।

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