31 अक्टूबर को सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती के अवसर पर राष्ट्रीय एकता दिवस मनाकर ढंग से जम्हाई भी नहीं ली थी कि इसके दो दिन बाद दिल्ली की सड़कों पर “पकड़ों मारो, यह गया, वह गया अरे यह रहा, अरे नहीं वह रहा” जैसे शोर गूंज उठे।
ये शोर एक के बाद एक मॉब लिंचिंग करने वाले या किसी पहलू खां या डॉक्टर नारंग की जान लेने वाली किसी आम भीड़ का नहीं था। ये शोर था देश के पढ़ें-लिखे डिग्रीधारक अधिवक्ताओं और कानून का पालन सिखाने वाले पुलिस कर्मियों के बीच हुई झड़प का।
फिर एक के बाद एक वीडियो सामने आने लगे। किसी में वकील हिंसा कर रहे थे तो किसी वीडियो में पुलिस बल उन्हें दौड़ा रहे थे। इसके बाद पहले दिल्ली पुलिसकर्मी अपनी सुरक्षा की गुहार लगाते धरने पर बैठे दिखे, तो बाद में वकीलों के वे नारे सुने जब वे कह रहे थे,
जो हमसे टकराएगा चूर-चूर हो जाएगा।
#WATCH – Shocking visuals of a police officer being assaulted by protesting lawyers outside Saket District Court in New Delhi.
The protest was called by the lawyers to show their resentment over Tis Hazari Court incident on Saturday. pic.twitter.com/yHSZhfliXv
— News18 (@CNNnews18) November 4, 2019
कानून और संविधान तो सड़कों पर चूर-चूर होता हुआ देश ने देख लिया। बाकी अब पता नहीं क्या चूर होगा। शायद सुप्रीम कोर्ट और संसद बची है। इसके बाद जो होगा देखा जाएगा। क्या पता राष्ट्र के कर्णधार देश को तांत्रिक ओझा या बंगाली बाबाओं के भरोसे छोड़ झोला उठाकर चारधाम यात्रा पर निकल जाएं।
यह घटना सिर्फ एक खबर नहीं है
इस स्थिति को राजनितिक चश्मे से देखने के बजाय गंभीरता से देखा जाए तो,
- जब एक ही राष्ट्र के अन्दर संवैधानिक व्यवस्थाओं के बीच हिंसा होने लगती है,
- लड़ने वाले संगठनों के उद्देश्य राष्ट्रहित में ना होकर स्वार्थपूर्ण हो जाते हैं,
- जब कुछ लोग पूरी व्यवस्था पर नियंत्रण पाकर अपनी मनचाही व्यवस्था लागू करना चाहते हों,
तब इसे मात्र एक खबर नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि ऐसे झगड़े जब सीरिया तुर्की अफगानिस्तान और सूडान में होते हैं तो बुद्धिजीवी धड़ा इसे गृह युद्ध कहता है। लेकिन हमारे देश में ऐसी हिंसाओं में दूरबीन लगाकर वोटबेंक देखा जाता है।
Ram Ram ji ? Shameful behaviour by the lawyers of Delhi ? Behaving like illiterates and anti-nationals. #PayalRohatgi #DelhiPoliceVsLawyers pic.twitter.com/1YtxTJ9E81
— PAYAL ROHATGI & Team- Bhagwan Ram Bhakts (@Payal_Rohatgi) November 6, 2019
यूं तो विश्व के कई देशों में गृहयुद्ध छिड़ा हुआ है। भारत गृहयुद्ध की आग में तो नहीं जल रहा लेकिन देश के तकरीबन हर हिस्से में युद्ध ज़रूर छिड़ा हुआ है। वकीलों का गुस्सा देखकर लगता है कि पुलिस बल ही देश के सारे फसाद की जड़, गुंडे-मवाली, आतंक, चोर-उच्चके और बलात्कारी हैं।
नेता इन घटनाओं में ‘नायक’ फिल्म के अमरीश पुरी दिखाई दे रहे हैं। जब वह फिल्म में दिखाई हिंसा के दौरान कमिश्नर से कहते हैं,
कुछ लाशें गिरती हैं तो गिरने दो, आग लगती है लगने दो। पहले चिल्लाएंगे, फिर शांत हो जाएंगे। मैं बाद में एक कमेटी का गठन कर दूंगा।
ये शब्द सुनते ही मुझे देश में हुई हर एक हिंसक घटना याद आने लगती है। उसके बाद हुई कमेटियों की रिपोर्ट या तो आती नहीं और यदि आती है तो वे राजनीति से प्रेरित होती हैं।
यह विवाद सुलझ सकता था
वकील पुलिस विवाद आसानी से सुलझा लिया जा सकता था, अगर पुलिस के जवानों को सस्पेंड किया जा सकता है तो उपद्रवी वकीलों की वकालत डिग्री को भी ध्वस्त की जा सकती थी लेकिन अगर ऐसा हो जाता तो सड़कों पर कानून और संविधान का नंगा खेल कैसे देखने को मिलता?
मैंने गृहयुद्ध नहीं देखा लेकिन देश के 18 राज्यों में नक्सली फैले हुए हैं। आए दिन हिंसक वारदातें हो रही हैं। कश्मीर का अपना अलग मसला है। आरक्षण और जातिवाद को लेकर संघर्ष होना आम बात है। देश के भीतर हर साल जातीय, धार्मिक घटनाओं में हज़ारों लोग मारे जाते हैं। इन हिंसक घटनाओं में हज़ारों घायल होते हैं और सैकड़ों दरबदर होने पर मजबूर हो जाते हैं।
इन सब से अरबों की संपत्ति नष्ट हो रही है। देश के शिक्षण संस्थानों से लेकर धर्म-स्थलों तक जातीय भेदभाव और विचारधाराओं को संरक्षण देने के आरोप लगते रहते हैं।
इसके बाद हम विश्व के किसी बड़े मंच पर खड़े होकर कैसे कह सकते है कि यह देश बुद्ध और गाँधी की विचारधारा का देश है और यहां सब कुछ ठीक चल रहा है।
मैं जानता हूं कि सवालों से अग्नि भड़कती है। कानून और संवैधानिक व्यवस्थाएं सड़कों पर जूतम पैजार हो रही है। धार्मिक, जातीय, सांप्रदायिक संगठन मजबूत हो रहे हैं इन्हें सरकारों और राजनीतिक दलों का भरपूर समर्थन मिल रहा है।
घटनाओं और अफवाहों पर कलाकारों और वक्ताओं की गर्दन उतारने की बोलियां और फतवें जारी हो रहे हैं, भूख से बच्चें मर रहे हैं, हमारे शहर प्रदूषित हो रहे हैं, देश की नदियां दम तोड़ रही हैं तालाब और झीले जहर के कुण्ड बनते जा रहे है, फिर भी यदि सब कुछ ठीक है तो फिर सोमालिया और सूडान को विश्व के विकसित और खुशहाल देशों में गिना जाना चाहिए।
मीडिया और राजनेताओं के झूठ जारी हैं
फेसबुक पर हर तीसरी पोस्ट में मीडिया को दलाल कहा जा रहा है। कल परसों वकील कह रहे थे कि मीडिया बिकाऊ है। कुछ दिन पहले राजनीतिक दल के नेता मीडिया को वेश्या तक बता रहे थे।
मीडिया चैनलों में एंकरों के सामने सरेआम पक्ष रखने वाले मेहमानों में कुटमकुटाई का खेल हो चुका है। पता नहीं फिर भी लोग मीडिया से सच की उम्मीद क्यों लगाये बैठे रहते जबकि सब जानते है कि मीडिया और बाज़ार का रिश्ता नाजु़क होता है।
लोगों को इस सच को स्वीकार करके चलना होगा कि मीडिया समाज का चौथा स्तम्भ होने के साथ- साथ एक व्यवसाय भी है और व्यवसाय में सच की मात्र और स्थान का निर्धारण कैसे तय होता होगा समझना होगा।
हां संवेदना का ज़िंदा रहना ज़रूरी है। यह नियम सबको धारण करना होगा 24 घंटे फील्ड में काम आसान नहीं होता सरकारों को समझना होगा कि सड़कों पर चाहें पुलिस पिटे या पब्लिक उनके बारे में उनके परिवार के बारें में थोड़ा ज़रूर सोचें।
कल्पना करें कि उनकी जगह पर आप होते तो क्या महसूस करते। अगर ऐसा सोच लिया तो फिर राष्ट्रीय एकता दिवस मनाने की कोई ज़रूरत नहीं रहेगी, देश में सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा वरना अब इस देश में ‘पकड़ो मारो’ हर चौराहे पर सुनाई देगा