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‘प्यासा’ हर उस हारे हुए इंसान की कहानी है जो सुखांत चाहता है

मेरा जन्म 1986 में हुआ। फिल्मों का दीवाना हूं। यूं समझिए कि जब तक रोज़ एक फिल्म ना देख लूं खाना पचता ही नहीं है। अब नौकरी के कारण इतना समय नहीं मिल पाता, फिर भी जो भी खाली समय मिलता है, उसे फिल्मों पर न्यौछावर कर देता हूं।

तो मतलब अब तक हज़ारों फिल्में देख चुका हूं। भारतीय भी, ईरानी भी, जापानी भी, इराकी भी, चीनी भी, अच्छी फिल्में, बुरी फिल्में, लड़ाई वाली, प्यार वाली, बेवकूफ बनाने वाली, खुलकर देखने वाली, छिपकर देखने वाली लेकिन एक फिल्म का असर मेरे दिमाग में हर समय रहा। वह है ‘प्यासा’।

फिल्म प्यासा का पोस्टर, फोटो साभार- सोशल मीडिया

कई हारे हुए इंसानों की कहानी है प्यासा

इस फिल्म के लिए मैं शुक्रगुज़ार हूं दूरदर्शन का, रविवार के दिन दूरदर्शन पर देखी अनेकों ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों में से यह भी एक थी। इसी फिल्म को रंग दे बसंती के डायरेक्टर, दिग्गज फिल्मकार राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने फिल्म मेकिंग की किताब बताया था।

फिल्म प्यासा 1957 में आई थी। इस फिल्म के प्रोड्यूसर,डायरेक्टर और एक्टर गुरुदत्त थे। आप फिल्म देखकर उठेंगे तो मन करेगा कि इस दुनिया के दो टुकड़े कर दें या एक चमाट मार के हर गलत आदमी को ठीक कर दें।

फिल्म में मुख्य किरदार का नाम था विजय। एकदम क्रांतिकारी लेकिन किस्मत से हारा हुआ। विजय शायर है पर उसे कोई काम देने को तैयार नहीं है। हर प्रकाशक उसकी रचनाओं को कूड़ा मानता है। विजय के भाई उसे घर में रखने को तैयार नहीं है, उन्हें लगता है कि वह नाकारा है। विजय प्यार में भी फेल साबित होता है, जिससे वह प्यार करता है, वह उसे छोड़कर एक अमीर आदमी से शादी कर लेती है।

तो भाइयों, इस विजय की किस्मत भी हम में से कइयों की तरह है। होता ये है कि ऐसे में विजय को इस समाज से नफरत हो जाती है, क्योंकि ये स्वार्थी समाज उसके लिए नहीं है। कोई उसका अपना नहीं है लेकिन कोई है, वह है गुलाबो। यानी कि वहीदा रहमान, जिसने फिल्म में एक सेक्स वर्कर का किरदार निभाया है। वही उसकी प्रेरणा बनती है, उसकी मदद करती है।

फिल्म प्यासा का एक दृश्य, फोटो साभार- सोशल मीडिया

अचानक किस्मत पलटा खाती है और विजय रातों रात मकबूल शायर बन जाता है। इसी बीच खबर आती है कि शायर विजय नहीं रहा। जीते जी तो विजय की कोई मदद नहीं करता लेकिन उसके मरने की खबर फैलते ही हर कोई उसका खास बन जाता है।

ज़िंदगी के सच बुनती है यह फिल्म

प्यासा वह फिल्म है जो हमें ज़िंदगी के बारे में कई सच बताती है। गुरुदत्त ने फिल्म में ऐसा काम किया है कि सलमान, शाहरुख आपको पानी भरते नज़र आएंगे। फिल्म का हर गाना दमदार है। जैसे, ‘जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है’।

इस फिल्म को जब भी देखकर उठता हूं, तो रगों में एक हफ्ते तक वीर रस कूट-कूटकर भर जाता है। ऐसी फीलिंग रहती है कि जब भी समाज में कुछ गलत होते देखता हूं, तो मन करता है चिल्ला चिल्ला के गाऊं

हटा लो इसे फूंक डालो ये दुनिया

मेरे सामने से उठा लो ये दुनिया

तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है।

फिल्म के दमदार डायलॉग

फिल्म अपने आप में मास्टरपीस है लेकिन मैं दीवाना हूं इसके डायलॉग्स का। अबरार अल्वी साहब ने क्या कमाल लिखा है। कुछ डायलॉग्स लिख रहा हूं पढ़िए।

फिल्म प्यासा का एक दृश्य, फोटो साभार- सोशल मीडिया

और इस डायलाग को पढ़िए

 मुझे किसी इंसान से कोई शिकायत नहीं, मुझे शिकायत है समाज के उस ढांचे से, जो इंसान से उसकी इंसानियत छीन लेता है। मतलब के लिए अपने भाई को बेगाना बनाता है, दोस्त को दुश्मन बनाता है। मुझे शिकायत है उस तहज़ीब से, उस संस्कृति से जहां मुर्दों को पूजा जाता है और ज़िंदा इंसान को पैरों तले रौंदा जाता है। हां किसी के दुख-दर्द में दो आंसू बहाना बुज़दिली समझा जाता है, झुक के मिलना एक कमज़ोरी समझा जाता है।

https://www.youtube.com/watch?v=yK_5kQ4U8wE

फिल्म के ये डायलॉग्स भी बहुत खूबसूरत हैं।

ऐसे माहौल में मुझे कभी शांति नहीं मिलेगी, मीना! कभी शांति नहीं मिलेगी, इसलिए मैं दूर जा रहा हूं।

कहां? जहां से मुझे फिर दूर ना जाना पड़े।

इस मास्टरपीस का अंत बदलना पड़ा

रोचक बात यह है कि इस मास्टरपीट का अंत गुरुदत्त अपनी मर्ज़ी के मुताबिक नहीं कर पाए। प्यासा का अंत कई लोगों के दबाव में उन्हें बदलना पड़ा।

फिल्म प्यासा का एक दृश्य, फोटो साभार- सोशल मीडिया

वे दुखद अंत चाहते थे, जिसमें उनका किरदार गुज़रे वक्त की प्रेमिका मीना (माला सिन्हा) से यह कहने के बाद कि उसे इस संसार में कहीं भी शांति नहीं मिलेगी, कहीं दूर चला जाएगा, कमरे से बाहर निकलता है और फिर किसी को नहीं पता चलता कि वह कहां गया। लेकिन वितरकों से लेकर इस फिल्म के लेखक अबरार अल्वी तक फिल्म का अंत सुखद चाहते थे।

यह सच भी है, अपने देश में दुखद एंडिंग वाली फिल्मों के चांस कम ही होते हैं। लोग नहीं चाहते कि उनका हीरो अंत में हीरो ना लगे। ऐसे में गुरु दत्त ने फिल्म का अंत उस सीन से दिखाया, जिसमें हताशा से घिरा नायक गुलाब (वहीदा रहमान) से कहता है कि चलो, हम दोनों कहीं दूर चलें और इस तरह दरवाज़े के उस पार फैली रोशनी की तरफ जाते हुए नायक-नायिका पर यह फिल्म खत्म होती है।

जब तक भारतीय सिनेमा ज़िंदा है, फिल्म मेकिंग ज़िंदा है, अदाकारी ज़िंदा है, तब तक यह फिल्म ज़िंदा रहेगी।

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