ठीक है, करो धुनाई
रूई की तरह इन उपद्रवियों की
जो छोड़छाड़ पढ़ाई-लिखाई
राजपथ को गुंजायमान कर रहे हैं
इंकलाब के नारों से।
सत्ता धनधान्य धन से होती है,
विवेक से नहीं
और तुम चाहो पाना
चवन्नी में आसमान भर विवेक
खाओगे सत्ता का
और गाओगे- ‘सत्ता को उखाड़ फेंक’!
बहुत हुआ
सत्तर सालों से जो जमा रहा
देश में इतना मैला धुआं
उसे मिटा शुद्धिकरण का भार
देश-काल ने हमें ही तो दिया है!
हमने ठाना है
शिक्षा के सारे मंदिरों को
सही अर्थों में मंदिर बनाना
विवेक-बुद्धि के पीठ पर
पूंजी और धर्म-पूजकों को बिठाना!
यह सत्कार्य अभी तो शुरू हुआ है
अभी तो तुम्हारे गढ़ को बस छुआ है
राजपथ की रौशनियों को गुलकर
पुलिसिया बल से हमने बस,
लाठियां से कहा है खेलने को खुलकर!
तुम्हें रौंदने को वैसे तो
तरीके और भी हैं हमारे पास।
तो सुनो नौजवानो
देश के कर्णधारो,
यह देश जो अभी बनना है
पूंजी और धर्म-पूजकों का
जो पावन तीरथ गढ़ना है
शपथ तुम्हें कि उसके आगे
इन पथभ्रष्टों-सा
तनिक नहीं तनना है!