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“दिलों को बांटती प्रथा जातिवाद की”

सदियों से चली आ रही प्रथा जातिवाद की,

प्रथा दिलों के बंटवारे की,

भेदभाव से सजी हुई।

धर्म के नाम पर कट्टर होने की

हिन्दू,मुस्लिम, ईसाई के नाम पर मिटती इंसानियत की।

 

शहर-शहर, डगर-डगर लोगों के बंटवारे की,

सदियों से चली आ रही प्रथा जातिवाद की।

प्रथा- छुआछूत फैलाने,

गरीबों के अपमान की,

देश में बढ़ते अपराध,

लगातार होते नरसंहार की।

 

धर्म के नाम पर फैली अनैतिकता,

लोगों से लोगों द्वारा ही होते दुर्व्यवहार,

इन सबकी कारक एक प्रथा जातिवाद की।

 

है कलंक वह इंसानियत पर,

लगा ना सका जो मरहम अपनों के ज़ख्मों पर।

भूल अपना ईमान वो,

इसी में जिए इसी में मर जाएंगे

पर बन ना सकेंगे कभी इंसान वो।

 

इंसानों में ही इंसानियत नहीं

ऐसी दुर्दशा है संसार की,

कुछ ऐसी प्रथा जातिवाद की।

देखा मैंने लोगों को रंग बदलते,

इस प्रथा के नाम पर कटते और मरते।

 

ना जाने क्या होगा मेरे देश का आने वाला हाल,

रहेगा आज़ाद खुशहाल,

बनेगा फिर एकता की मिसाल और महान

या चढ़ जाएगा बलि इस प्रथा के नाम?

कुछ ऐसी प्रथा चली आ रही जातिवाद की,

सम्मान के लिए ही पैदा हुई कहानी असम्मान की।

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