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“अयोध्या फैसले के बीच आइडेंटिटी के खेल को समझना ज़रूरी है”

इतिहास समय को अपने अनुसार याद रखता है, उस घटनाकाल के समय रहे लोग उतने ही महत्वपूर्ण हो जाते हैं, जितनी कि वह घटना। आज के दिन सब अपने-अपने अनुसार सोच-समझ रहे होंगे।

अयोध्या। फोटो सोर्स- सोशल मीडिया

मैं आज की बात नहीं करूंगी। मैं कल की बात करूंगी-

कल पॉलिटिकल फिलॉसफी की क्लास में हम बात कर रहे थे कि कैसे आप अपनी शर्तों पर ह्यूमनिस्ट नहीं हो सकते। अगर दुनिया में एक देश दूसरे देश/लोगों पर आक्रमण/कब्ज़ा कर रहा हो तो किस मुंह से वह अपनी ज़मीन पर मानवता की बात करेगा।

आप में बहुत मानवता है लेकिन कूटनीतिक लाइसेंस लेकर हर वह काम कर सकते हैं, जो मानवीय नहीं है। सबकुछ होता आया है/आएगा ‘नेशनलिज़्म’ की टेबल के नीचे से।

इसके ठीक बाद प्रोफेसर रबीन्द्रनाथ टैगोर की लिखी ‘गोरा’ के पात्र के बारे में बात करती हैं, पात्र खुद को हिन्दू और हिन्दू होने की अपनी ‘आइडेंटिटी’ को सबसे ऊपर मानता है। गोरा महीनों जेल में काटकर आता है, अब उसकी ज़िद है हिन्दू रिवाज़ अनुसार शुद्धिकरण की। चूंकि उसकी धार्मिक मान्यता के अनुसार विदेश या जेल से आने पर ऐसा किया जाना चाहिए लेकिन उसके पिता मना करते हैं।

कहानी आगे बढ़ती है लेकिन गोरा बार-बार शुद्धिकरण कर्मकांड पर लौट जाता है। एक रोज़ गोरा के पिता उसे बताते हैं कि वह उनकी संतान नहीं है, उसे बगावत के समय कोई छोड़ गया था, वह एक आयरिश परिवार से है, क्रिस्चन। गोरा की नज़र में उसकी पहचान एक ही पल में ढह जाती है। वह पोरेश बाबू, जो कि आर्य समाजी हैं और जिनके साथ हिंदुत्व के कट्टर समर्थक (पुराने) गोरा के कई वाद-विवाद हुए हैं, उनसे वह अब कहता है कि उसे अपना शिष्य बना लें।

‘आइडेंटिटी’ को अपनाने के साथ-साथ इस खेल को समझने की भी ज़रूरत है-

‘लॉयल्टी’ को कई जगह सबसे महवपूर्ण माना गया है। मुझे पता चले कि मेरे किसी रिश्तेदार ने तैश में आकर किसी की हत्या कर दी, अपने कर्तव्य और रिश्ते के प्रति वफा मुझे एथिकल और कई बार भावनात्मक होकर उसके बचाव में खड़े रहने को सिखाता है। यह एथिक्स ‘पहली नज़र का धोखा’ से कम नहीं है। ठीक जैसे ‘कलेक्टिव आइडेंटिटी’ की माया राष्ट्रवाद को जन्म देती है।

व्यक्तिगत या व्यापक स्तर की माया में पड़ना सामान्य बात है। हम सब कहीं-ना-कहीं इसके शिकार हुए हैं, इंसानी प्रवृति है लेकिन जब दौर नाज़ुक हो तब भी आपके लिए माया और मानवता के बीच भेद करना मुश्किल हो तो दिक्कत है।

अयोध्या का फैसला और आइडेंटिटी का खेल

बाबरी मस्जिद तोड़ते लोग। फोटो सोर्स- सोशल मीडिया

अयोध्या का फैसला अपने आपमें एक पूरी केस स्टडी है। कोर्टरूम के अंदर से ज़्यादा कोर्टरूम के बाहर की, राजनीति से ज़्यादा मानवीय व्यवहार की और इसकी कि ‘आइडेंटिटी’ के खेल में आप कितने आर-पार हैं।

बाबरी मंदिर विध्वंस के बाद उस समय के जन्मे तमाम नारों व अपनी ‘आइडेंटिटी’ के दम्भ के बैकग्राउंड स्कोर के साथ होती आई शारीरिक, मानसिक हिंसा में मेजोरिटी और माइनॉरिटी का मामला तो है, आप इससे नकार कैसे सकते हैं।

लेकिन इसके अलावा भी कई छोटी-छोटी कहानियां हैं, जो हम नहीं देख पाएंगे। विध्वंस के दौरान ग्राउंड रिपोर्टिंग कर रहीं महिला पत्रकार रुचित्रा गुप्ता अपने साथ हुई वारदात के बारे में बताती हैं,

लालकृष्ण आडवाणी से जब उन्होंने कहा था कि कुछ लोगों ने पहले उनके साथ गलत व्यवहार किया फिर हिंसा की, लोगों से कह दें कि पत्रकारों को ना मारें। तब भीड़ के बीच से आडवाणी जी ने कहा था कि इतना ऐतिहासिक दिन है मिठाई खाओ।

आज फिर ऐतिहासिक दिन है। कोर्ट सूट, पूरा मामला आपको समझना है तो फैक्ट्स आप किसी विश्वसनीय सोर्स से पढ़ सकते हैं, आसान है। लेकिन यह बात फैक्ट्स जानने के आगे निकल चुकी है, जिस घटना ने इतना अमानवीय रूप लिया, एक प्रोपेगंडा को इतने निचले स्तर पर ले आई, उससे जुड़ी किसी भी बात पर आप मिठाई तो नहीं खा सकते हैं।

इस फैसले में जो होना था वह हो चुका है, फैसले में कही जो बातें होनी हैं, वे होंगी। नागरिक के तौर पर मेरा और आपका बस इतना हिस्सा बचता है कि हम समझें, कैसे व्यवस्थाएं अब मशीन की शक्ल की लगने लगी हैं, एक कल-पुर्जा इधर-से-उधर कर दिया कि मशीन चलती रहे। मशीन चलती रहे, हमें मशीन में नहीं फंसना है।

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