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मीडिया में आदिवासियों की खबरों को नज़रअंदाज़ करने की परंपरा कब खत्म होगी?

लेडी श्री राम कॉलेज की छात्राओं ने खूब बहादुरी दिखाई, जब उन्होंने प्रशासन के ऑडर्स और सख्त निगरानी के बावजूद महिलाओं पर 26 सितंबर को पैनल डिस्कशन आयोजित किया। इसमें महिलाओं के जटिल मुद्दों पर तीव्रता से सवाल उठाए गए। पैनल में विभिन्न क्षेत्रों की महिलाओं ने भाग लिया।

कॉलेज में पैनल डिस्कशन की फोटो।

“मीडिया और वुमेन” पर ये डिस्कशन महिलाओं की मीडिया में भागीदारी, प्रतिनिधित्व और प्रभाव पर आधारित था। इंटर-सेक्शनैलिटी और डायवर्सिटी का बिल्कुल सही अमल कर छात्राओं ने आदिवासी, दलित-बहुजन, उत्तर-पूर्वी और प्रभावित क्षेत्रों की महिलाओं का पैनल बनाया, जिसमें मुझे आदिवासिओं का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला।

नॉन-मीडिया व्यक्ति होकर मैंने कंटेंट-राइटिंग का काम कुछ महीनों पहले ही शुरू किया है। ऐसे में मुझे यह बात खटक रही थी कि मीडिया से ज़्यादा मज़बूती से जुड़े इतने सारे आदिवासियों के बावजूद, मुझे इस भूमिका के लिए चुना गया। यहीं पर मैंने प्रतिनिधित्व (रिप्रजेंटेशन) की बात समझी। अपनी आवाज़ को दर्ज़ करने के लिए ये बहुत ज़रूरी है कि आप कहां से आ रहे हैं।

मीडिया, जिसे हालांकि तो एक फ्री और फेयर साधन समझा जाता है, जिसके ज़रिए कोई भी अपनी बात असीमित क्षमता से कहीं भी पहुंचा सकता है लेकिन वास्तविकता है कि मीडिया भी सत्ता और राजनीति से परे नहीं है।

मीडिया में दलित, आदिवासी मुद्दों का नज़रअंदाज़ किया जाना

16 दिसंबर की गैंग रेप की घटना सबके ज़हन में है लेकिन देशभर में रोज़ाना आदिवासी, दलित, बहुजन महिलाओं को शोषण से गुज़रना पड़ता है, जिसकी खबर कोई नहीं बताता। प्रस्तुत मीडिया दो मुद्दों पर सोचने के लिए मजबूर करती है।

पहला-

दूसरा-

न्यूज़ के अलावा, सिनेमा में भी आदिवासी समेत दलित, बहुजन का बहुत कम प्रतिनिधित्व और इंक्लूज़न है। मणिपुर की मुक्केबाज़ी चैंपियन मेरी कॉम पर आधारित फिल्म “मेरी कॉम” की आलोचना हुई थी, क्योंकि उन्होंने मणिपुर की नहीं बल्कि बहुसंख्ययी उत्तर भारत की एक्ट्रेस को ही मणिपुर की महिला का किरदार दिया।

मणिपुर में प्रतिभावान एक्ट्रेसेस की कमी नहीं है। ये कल्चरल अप्रोप्रिएशन का मुद्दा दिखाता है, जहां बहुसंख्ययी समाज दूसरे समाज के तत्वों को अपने की तरह दिखाए। ऐसे में जो उनके असली हकदार हैं, उन्हें पहचान और अधिकार नहीं मिल पाते हैं।

फिल्म मेरी कॉम के लिए तैयार होती प्रियंका चोपड़ा।

आदिवासी दलित बहुजन से जुड़े मुद्दों पर अब भी मीडिया की नज़र नहीं जाती है। समाचार चैनलों में इनकी खेती, मज़दूरी या वर्किंग क्लास से जुड़े समाचार शायद ही दिखाए जाते हैं।

जंगलों, गॉंव से प्रोजेक्ट्स के लिए हटाया जाना, अपनी पहचान की लड़ाई, सभ्यता को बचाना, ये सब आदिवासियों के मुद्दे हैं लेकिन मीडिया में इसे आवाज़ नहीं मिल पाती है। यहां तक कि यूएन द्वारा घोषित विश्व मूलनिवासी दिवस (International Day of the World’s Indigenous People) पर भी राष्ट्रीय स्तर की मीडिया का कोई कवरेज नहीं था।

मीडिया की खबरें इंसान का रुपांतरण हैं। लोग उन मुद्दों में दिलचस्पी रखते हैं, जो उन्हें प्रभावित करते हैं। ऐसे में गैर आदिवासी-दलित-बहुजन मीडिया इनके मुद्दों को नज़रअंदाज़ कर देती है। इन समुदायों के लोगों को मुख्यता “मेरिट” (योग्यता) के बहाने से प्रोत्साहित नहीं किया जाता है पर आदिवासी जर्नलिस्ट्स ने अपना लोहा खूब मनवाया है।

मीडिया, जो कि मुख्यता प्राइवेट एंटरप्राइज़ है, यह सामाजिक हित से ज़्यादा मुनाफे से संबंध रखती है। गरीबी के कारण आदिवासियों की मीडिया तक पहुंच और सेवन कम है। ऐसे में बहुसंख्ययी मीडिया अपने बहुसंख्ययी आबादी की ही सेवा करती है। ना मीडिया विभिन्न सामाजिक मुद्दों का पता लगा पाती है, ना ही लोग अनेक मुद्दों से परिचित होती है।

मैं इस पैनल में इसलिए पहुंच पाई, क्योंकि मैं Youth Ki Awaaz जैसे जाने माने सिटिज़न जर्नलिज़म के प्लैटफॉर्म से जुड़ी हुई हूं और राजधानी दिल्ली में काम करती हूं। लेकिन बहुसंख्ययी मीडिया, जिसकी पहुंच कई ज़्यादा है, आज भी आदिवासी आवाज़ों को अनसुना कर रही है। आदिवासी विविध साधन जैसे आदिवासी लाईवेस मैटर, आदिवासी रेसुरजेन्स, वीडियो वालंटियर्स इत्यादि इस्तेमाल कर आदिवासी आवाज़ उठाकर मीडिया के क्षेत्र में विकल्प बना रहे हैं। ज़रूरत है कि हम इन आवाज़ों को सुने, समझे और इनसे वार्तालाप करें।

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(लेखिका के बारे में: दीप्ती मेरी मिंज (Deepti Mary Minj) ने जेएनयू से डेवलपमेंट एंड लेबर स्टडीज़ में ग्रैजुएशन किया है। आदिवासी, महिला, डेवलपमेंट और राज्य नीतियों जैसे विषयों पर यह शोध और काम रही हैं। अपने खाली समय में यह Apocalypto और Gods Must be Crazy जैसी फिल्मों को देखना पसंद करती हैं। फिलहाल यह जयपाल सिंह मुंडा को पढ़ रही हैं।)

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