कोई भी विश्वविद्यालय उस देश की प्रगति की बुनियाद होता है। यहीं से देश की ज़रूरत के अनुरूप योग्य मानव संसाधन और सृजनात्मक मस्तिष्क का जन्म होता है। किसी विश्वविद्यालय का निर्माण और स्थापना भी इसलिए होती है, ताकि देश में नए ज्ञान-विज्ञान अनुसंधान के प्रचार प्रसार और प्रोत्साहन को बल मिले।
इन दिनों देश के कुछ प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय चर्चा में हैं। कभी JNU, कभी BHU, कभी दिल्ली विश्वविद्यालय, कभी TISS तो कभी जाधवपुर विश्वविद्यालय। देश की हर शिक्षण संस्थान का एक ही उद्देश्य होना चाहिए, ज्ञान विज्ञान और अनुसंधान परंतु देश के इन शैक्षणिक संस्थानों में भारी उथलपुथल का माहौल है।
JNU का ताज़ा मामला
अभी ताज़ा मामला JNU का है, जिसको सोशल मीडिया का एक तबका देशद्रोही विश्वविद्यालय घोषित कर चुका है और इसको बंद करने को लेकर हैशटैग चलाया जा रहा है। उन लोगों को स्मरण होना चाहिए कि JNU में बस “20-50 तथाकथित बुद्धिजीव लोग” ही नहीं पढ़ते हैं, बल्कि साधारण पृष्ठभूमि के हज़ारों मेधावी स्टूडेंट्स भी यहां पढ़ते हैं, जिन्होंने विश्व के अनेक भागों में भारतीय गौरव को बढ़ाया है।
ध्यान रखना चाहिए कि JNU राष्ट्रीय महत्व की एक संस्थान है, राष्ट्रीय संपत्ति है, अतः उसके खिलाफ दुष्प्रचार करना भी कहीं-ना-कहीं एक प्रकार से देशद्रोह ही है या फिर दूसरे शब्दों में यह कृत्य बख्तियार खिलजी श्रेणी का अपराध है।
हालांकि JNU में जो भी गलत कृत हो रहे हैं, उसपर कठोरतम कर्रवाई होनी चाहिए। कुछ स्वघोषित स्वयंभू वामपंथी विचारक जो अपनी संकीर्ण मानसिकता से ग्रसित हैं, उनको उनके ही तरीके से जवाब देने की आवश्यकता है मगर उसके लिए पूरे विश्वविद्यालय को गलत साबित करना सही नहीं हो सकता है।
आज जब शिक्षा एक ग्लोबल कारोबार का रूप लेता जा रहा है, तब हमें कहीं-ना-कहीं ज़्यादा सतर्क और संवेदनशील होने की आवश्यकता है। यकीन ना हो तो निजी स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ने और अपने बच्चों को पढ़ाने वालों का अनुभव सुन लें, तब सब नारद मोह खत्म हो जाएगा।
कुछ अलग नहीं है BHU की स्थिति
अब आते हैं BHU पर। आजकल BHUअशांत है और परिसर में छोटी-छोटी बात पर पुलिस हस्तक्षेप बढ़ा हुआ है, जबकि BHU अपनी आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था पर भारी धन राशि खर्च करता है।
पहले बच्चे शान से कहते थे यह वह विश्वविद्यालय है, जहां बिना इजाज़त पुलिस नहीं आ सकती है और अब तो जब मन तब पुलिस हॉस्टल में घुसकर स्टूडेंट्स को पीटने के बाद आराम से उसी हॉस्टल में कैंप लगाकर सोती है। परिसर में संवाद की भारी कमी है और बात-बात पर लाठीचार्ज हो रहे हैं।
भ्रष्टाचार चरम पर है और शासन-प्रशासन मौन
एक बात समझ नहीं आती कि जिस कुलपति को खोजने में सरकार को छह महीने लग गए, वह इतने नकारा कैसे हो सकते हैं? इनको कौन समझाए कि कुलपति का पद अकादमिक सह-प्रशासनिक होता है। इस सफलता और विफलता का श्रेय उनको ही जाता है।
हमको एक राष्ट्र के तौर पर कब समझ आएगा कि स्टू़डेंट राष्ट्र के भविष्य हैं, अतः उनसे संवाद ज़रूरी है। वे कोई युद्ध अपराधी या हत्यारे नहीं हैं, जो उनके साथ ऐसा सुलूक किया जाए।
शिक्षा किसी भी स्तर पर हमेशा न्यूनतम शुल्क पर उपलब्ध होनी चाहिए। हमें ध्यान रखना चाहिए शिक्षा कोई व्यवसाय नहीं है, यह तो शिक्षार्थ आइए सेवार्थ जाइए की एक परिकल्पना है। इसके लिए आप महात्मा गॉंधी को पढ़िए, रविन्द्र नाथ टैगोर को पढ़िए या फिर मालवीय जी, स्वामी विवेकानंद या कलाम साहेब या फिर डॉ आंबेडकर को पढ़िए। सभी विद्वान शिक्षा को समाज की उन्नति में सबसे महत्वपूर्ण माध्यम मानते थे।
आजकल निजीकरण के दौर में एक बात तो राष्ट्रीय स्तर पर लागू होती है वह है शैक्षणिक भ्रष्टाचार। यह वह दीमक है जो अंदर-ही-अंदर इस व्यवस्था को बर्बाद कर रहा है। एक प्रकार से यह आर्थिक सामाजिक और राजनैतिक भ्रष्टाचार का मिश्रण है।
शिक्षण संस्थानों में भाई भतीजावाद छाया हुआ है। विभिन्न आर्थिक मदों की लूट मची हुई है और जातीय, धार्मिक, राजनैतिक महत्वाकांक्षा वाले समीकरण का बोलबाला है। हर परिसर के राजनीतिकरण का प्रयास चल रहा है। इन सबके बीच सामान्य पृष्ठभूमि का मेधावी स्टूडेंट पिस रहा है। वह जानता है कि उसकी प्रगति का सिर्फ और सिर्फ एक ही मार्ग है-शिक्षा, जिसके लिए उसने उस संस्थान में दाखिला लिया है परंतु उनसे यह हक छीनने का प्रयास चल रहा है और कुछ नासमझ लोग उसका बकायदा समर्थन कर रहे हैं।