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विकास के नाम पर आदिवासियों से क्यों छीना जा रहा है जल, जंगल और ज़मीन

आदिवासी समुदाय

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वन मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है लेकिन अफसोस की बात यह है कि यह बात जानने के बाद भी मनुष्य इस जीवनदायिनी ऑक्सीजन के स्त्रोतों को नष्ट कर रहा है। मनुष्य प्राकृतिक सौंदर्य की परवाह ना करते हुए औद्योगिकीकरण, रोड चौड़ीकरण व अन्य विकास कार्यों के नाम पर जंगलों की अंधाधुंध कटाई करते जा रहा है, जो पर्यावरण के लिए खतरा बन चुकी है।

लगातार हो रही वनों की कटाई से वृक्षों की संख्या कम होने के कारण पृथ्वी के वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है। जनसंख्या वृद्धि, रहने के लिए भूमि की आवश्यकता, पेपर उद्योग की आपूर्ति व अन्य कई ऐसे कारण हैं, जो वनों की कटाई को बढ़ावा दे रहे हैं। इसकी वजह से आदिवासियों की जीवन-शैली पर भी विपरीत असर पड़ रहा है।

वन संरक्षण में आदिवासियों की भूमिका 

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विश्व के जंगलों में चहुंमुखी विकास के नाम पर औद्योगिकीकरण, चौड़ीकरण एवं अन्य कार्यों के लिए लगातार हो रही वनों और जंगलों की अंधाधुंध कटाई का असर आदिवासियों के जीवन पर पड़ रहा है। वर्तमान में तेज़ी से घटते जंगल और बदलते हुए पर्यावरण को बचाने के लिए सदियों से जंगलों के साथ जीवन का संबंध निभाने वाले आदिवासी एक अहम भूमिका निभा सकते हैं।

जल, जंगल और ज़मीन को परंपराओं में भगवान का दर्जा देने वाले आदिवासी बिना किसी दिखावे के जंगलों और स्वयं के अस्तित्व को बचाने के लिए आज भी प्रयासरत हैं। वन संरक्षण में सबसे बड़ा योगदान यहां के आदिवासियों का है, जो परंपराओं को निभाते हुए शादी से लेकर हर शुभ कार्यों में पेड़ों को साक्षी बनाते हैं। आदिवासियों के वैवाहिक समारोह में सेमल के पेड़ के पत्तों का होना एक विशेष रस्म माना जाता है।

आदिवासियों के सामाजिक व आर्थिक जीवन में पेड़ों का अलग ही महत्व है, यह वनोपज संग्रहण से अपने परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।

जलवायु संरक्षण और आदिवासी संस्कृति 

आदिवासी जनजातियों की सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक एवं कुटुम्ब व्यवस्था की अपनी अलग पहचान रही है। भारत में लगभग 645 अलग-अलग जनजातियां निवास करती हैं। सभी के रहन-सहन, रीति रिवाज़ एवं परम्पराएं अपनी विशिष्ट विशेषताएं दर्शाती हैं।

कई आदिवासी जनजातियां जंगलों में आनादिकाल से समुदाय बनाकर रह रही हैं। वन-संरक्षण करने की प्रबल प्रवृत्ति के कारण आदिवासी वन एवं वन्य-जीवों से उतना ही प्राप्त करते हैं, जिससे उनका जीवन सुलभता से चल सके और आने वाली पीढ़ी को भी वन-स्थल धरोहर के रूप में दिए जा सके।

इनमें वन संवर्धन, वन्य जीवों एवं पालतू पशुओं का संरक्षण करने की प्रवृत्ति परंपरागत है। इस कौशल दक्षता एवं प्रखरता की वजह से आदिवासियों ने पहाडों, घाटियों एवं प्राकृतिक वातावरण को आज तक संतुलित बनाए रखा है।

स्वतंत्रता से पूर्व समाज के विशिष्ट वर्ग एवं राजा-महाराजा भी इन आदिवासी क्षेत्रों को अपनी गतिविधियों से स्वतंत्र रखते थे। लेकिन भारत देश के ब्रिटिश शासन काल में अग्रेज़ों ने उद्योग धंधों के लिए आदिवासी क्षेत्रों की परम्परागत व्यवस्थाओं को तहस-नहस करते हुए वन एवं वन्य-जीवों पर जमकर कहर बरपाया, जिससे ना सिर्फ यहां का प्राकृतिक वातावरण प्रदूषित हुआ, बल्कि हमारी भारतीय संस्कृति भी प्रभावित होनी शुरू हो गई।

आदिवासियों को जंगलों से किया जा रहा है दूर

आदिवासी समुदाय

पर्यावरण के सबसे बड़े हितैषी एवं रक्षक माने जाने वाले भोले-भाले आदिवासियों की गरीबी, अशिक्षा, बेकारी, पिछड़ापन व अन्य कारणों का लाभ उठाते हुए उनकी आदिम संस्कृति एवं अस्मिता को चालाक व लालची उद्योगपति और व्यापारी आज भी ठगने से बाज नहीं आते हैं। हर कदम पर आदिवासियों की कमज़ोरी का फायदा उठाते हुए उनका आर्थिक, शारीरिक व मानसिक शोषण किया जाता है।

कभी जंगल में शान की ज़िन्दगी जीने वाले आदिवासी समुदाय के लोग आज दिहाड़ी मज़दूर के रूप में कार्य करते हुए नज़र आ रहे हैं। चंद रुपयों में खुलेआम इनके श्रम की खरीद फरोख्त होती है। इन्हें इनकी भूमि और जंगल से हटाया जा रहा है।

पर्यावरण संरक्षण की परंपरा, आदिवासियों के अधिकार और जलवायु परिवर्तन 

ज़्यादातर आदिवासी अब भी खेती करते हैं और कभी भी पेड़ों को जलाते नहीं हैं। महुआ का पेड़ इनके लिए किसी कल्पवृक्ष से कम नहीं होता है। वह इनके फलों का संग्रह करते हैं और पूरे साल इनसे बनी रोटी खाते हैं। इन्हीं फलों को सड़ाकर वे इसकी शराब भी बनाते हैं।

जैसा कि सभी जानते हैं कि आदिवासियों की ज़्यादातर भूमि अत्यधिक उपजाऊ नहीं होती है और ना ही खेती के योग्य, फिर भी वे वनों में रहते हुए वनों के रहस्य को जानते हैं। खेती से अपनी गुजर-बसर तो कर ही लेते हैं, यदि इससे ज़रूरतें पूरी नहीं हो सकती तो कई आदिवासी समुदाय महुआ को भोजन के रूप में लेते हैं या फिर आम की गुठलियों को पीसकर रोटी बनाकर अपना जीवनयापन करते हैं। लेकिन प्रकृति के साथ खिलवाड़ नहीं करते हैं।

जंगलों में रहने के कारण आदिवासियों को हरे-भरे पेड़ पौधों व जड़ी-बूटियों की पहचान होती है। वह यह भी जानकारी रखते हैं कि कौन सा पौधा या जड़ी बूटियां किस बीमारी में काम आती हैं।

चंद रुपयों के लिए ठेकेदारों के इशारों पर आदिवासी समुदाय के लोग अनादिकाल से विरासत में मिले जंगलों में जड़ी बूटियों, ईधन, चारा एवं आवश्यकतानुसार इमारती लकड़ियों के लिए विंध्याचल, हिमालय व अन्य पर्वत शिखर भी काटने को स्वयं मजबूर हो रहे हैं।

आदिवासियों के उत्थान के लिए सरकार द्वारा समय-समय पर पर्वतीय क्षेत्रों में अनेक विकास कार्यक्रम एवं महत्वाकांक्षी योजनाएं चलाई जाती हैं लेकिन इन्हें इसका ज़्यादा लाभ नहीं मिल पाता है। आदिवासियों को संरक्षण प्राप्त ना होने के कारण हालात यहां तक आ चुके हैं कि वन संस्कृति एवं वन्य-जीव सुरक्षा भी दांव पर लगी हुई है। इसके परिणाम के रूप में आर्थिक एवं पर्यावरण असंतुलन भी देखने को मिल रहा है।

पर्यावरणविद प्रभात मिश्र ने बताया कि हमें आदिवासियों की वन एवं वन्य-जीव संस्कृति को बिना परिवर्तन के संरक्षण प्रदान करना होगा।

 

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