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WHO ने दी चेतावनी कहा भारत के टीनएजर्स का स्वास्थ खतरे में है

मुख्य बिंदु

  • WHO की रिपोर्ट अनुसार विश्व में  85% लड़कियां और 78% लड़के, शारीरिक गतिविधि की वर्तमान सिफारिश को पूरा नहीं कर रहे हैं।
  • भारत इस सूची में 8वें स्थान पर है।
  • स्क्रीन टाईम में ज़्यादा व्यस्त हैं टीनएजर्स
  • शारीरिक गतिविधि ना होने के कारण बच्चों में स्वास्थ संबंधी दिक्कतें।
  • भारत में पारंपरिक खेलों का कम होना।

आज के नये दौर में ना सिर्फ लोगों का रहन-सहन बदल गया है, बल्कि खानपान, मनोरंजन व खेलकूद के तौर-तरीके भी बदल गये हैं। आज जहां देखो बच्चों से लेकर बड़े तक मोबाइल या कम्प्यूटर से खेल रहे हैं और खेल के मैदान खाली दिख रहे हैं।

फोटो साभार- Pixels

वर्तमान समय में अधिकांश टीनएजर्स पर्याप्त शारीरिक गतिविधियां नहीं कर रहे हैं जितनी उन्हें करनी चाहिए। इसकी सीधी-साधी वजह उनका अधिकतम समय टीवी, कंप्यूटर या मोबाईल स्क्रीन के सामने मौजूद होना है।

विश्व स्वास्थ संगठन ने दी है चेतावनी

इन हालातों को देखते हुए विश्व स्वास्थ संगठन(WHO) ने गुरुवार यानी कि 21 नवंबर को एक नए अध्ययन में चेतावनी दी है कि अगर यह टीनएजर्स शारीरिक गतिविधियों में हिस्सेदारी नहीं लेंगे तो इनके स्वास्थ पर बुरा असर पड़ेगा।

द लांसेट चाइल्ड एंड एडोलसेंट हेल्थ जर्नल ( Lancet Child & Adolescent Health)  में प्रकाशित अध्ययन में पाया गया कि 85% लड़कियां और 78% लड़के, प्रतिदिन कम से कम एक घंटे की शारीरिक गतिविधि की वर्तमान सिफारिश को पूरा नहीं कर रहे हैं। अध्ययन के लेखकों ने 11-17 वर्ष की आयु के 1.6 मिलियन विद्यार्थियों के डेटा को उपयोग कर यह  रिपोर्ट तैयार की है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के शोधकर्ताओं ने लैंसेट चाइल्ड एंड अडोलेसेंट हेल्थ में प्रकाशित इस सर्वेक्षण के परिणामों का विश्लेषण किया, जिसमें 146 देशों के 11 से 17 वर्ष के 1.6 मिलियन किशोर-किशोरियां शामिल थे।

कम शारीरिक गतिविधियों के मामले में भारत 8वें स्थान पर

इन बच्चों से सवाल पूछा गया था कि उन्हें स्कूल और घर पर कितनी शारीरिक गतिविधि उपलब्ध हुई? कुल मिलाकर, 81% बच्चों ने डब्ल्यूएचओ की सिफारिशों को पूरा नहीं किया जो कहती है कि बच्चों (Adolescents) को स्वस्थ रहने के लिए कम से कम एक घंटे की शारीरिक गतिविधि करनी चाहिए।

WHO के अनुसार स्क्रीन टाईम में ज़्यादा व्यस्त होने के कारण आजकल विश्व के Adolescents शारीरिक गतिविधियां (Physical Activity) कम कर रहे हैं। 146 देशों पर किए गए डब्ल्यूएचओ के इस अध्ययन में भारत, 8वें स्थान पर है। अर्थात शारीरिक गतिविधि कम करने के मामले में भारत के Adolescents ज़्यादा हैं।

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इस लिहाज़ से यह कहना गलत नहीं होगा कि हमारे देश के टीनएजर्स अस्वस्थ हो रहे हैं और इसकी वजह हमारे पारंपरिक खेलों का विलुप्त होना है।

वर्षों से चले आ रहे पारंपरिक खेल आज विलुप्त हो रहे हैं। यही कारण है कि तमाम तामझाम व भारी भरकम राशि खर्च करने के बाद भी हमारे देश में खेल प्रतिभाएं उभर कर नहीं आ पा रही हैं। जिससे हम विश्व स्तर पर खेलों में पिछड़ते जा रहे हैं।

पारंपरिक खेलों को भूल रहे हैं हम

सरकारी खेलों का आयोजन करना कोई गलत नहीं है लेकिन अपने देशी खेलों को भी नहीं भूलना चाहिए। एक दौर था जब गांव से लेकर शहरों के गलियारों तक कुश्ती, गिल्ली डंडा, खो-खो, मुर्गा झपट, चम्मच दौड़, जलेबी दौड़, कबड्डी, रस्सी कूद, अंठी-कंचे, पकड़म-पकड़ाई, बाघ-बकरी, अड्डू इत्यादि पारंपरिक या देशी खेल खेले जाते थे।

इन खेलों को बच्चे तो खेलते ही थे, बल्कि बड़े भी इन पर विशेष रूचि लेते थे। गाँव में घर के आगन में हो अथवा आसपास के खेतों में या शहर के गली-मुहल्लों में, बिना किसी बजट के इन खेलों के लिए मैदान सुलभ रहता था। सस्ते व सुलभ होने के साथ इन खेलों से बच्चों का शारीरिक विकास होता है और मैत्री की भावना भी बढ़ती है।

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सबसे बड़ी बात यह है कि इन खेलों को सिखाने के लिए कोई प्रशिक्षक नहीं रखना पड़ता, यह स्वतः स्फूर्त खेले जाने वाले खेल हैं, जिनको बच्चे अपने आप साथियों से खेलकर सीख लेते हैं लेकिन आज स्थिति कुछ और है।

वर्तमान समय में बच्चे इन खेलो को खेलना तो दूर इनका नाम भी नहीं जानते हैं। आज की पीढ़ी को मोबाइल या कम्प्यूटर से अगर फुरसत मिले तो वह क्रिकेट खेलना या देखना पसंद करती है। शारीरिक श्रम वाले या मिट्टी से जुड़े खेल तो विलुप्त ही हो गये हैं। अब इन्हें ना खेलने वाले रहे हैं और ना खिलाने वाले।

हां, छुट्टियों के दिनों में या बाज़ार बंदी के दौरान गली-मुहल्लों में कुछ बच्चे क्रिकेट खेलते हुए ज़रूर दिखाई देते हैं। नये दौर के साथ पारंपरिक व देशी खेल भी विलुप्त होते जा रहे हैं।

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कोई संस्था पारंपरिक खेलों को बढ़ावा नहीं दे रही

इन खेलों को बढ़ावा देने के लिए हमारे देश में कोई ऐसी संस्था नहीं है, जो इस पर प्रयास करे। आज चाहे सरकार का खेल विभाग हो या खेल संघ सब क्रिकेट, फुटबाल, वॉलीबॉल, हॉकी, बाक्सिंग, टेनिस आदि खेलों पर ही ध्यान दे रहे हैं।

हां, कुछ राज्य कभी-कभार अपने यहां देशी खेलों का आयोजन करा लेते हैं लेकिन वे भी उपेक्षा का शिकार हो जाते है। स्कूलों में भी पहले जो ऊंची-कूद, लंबी-कूद, रस्साकशी, दौड़, भाला फेंक आदि खेल होते थे, अब उनका रूप क्रिकेट, फुटबाल, बैटमिंटन आदि ने ले लिया है।

इन सरकारी खेलों का आयोजन करना कोई गलत बात नही है लेकिन अपने देशी खेलों को भी अवश्य जीवित रखा जाना चाहिए। इस संबंध में उत्तराखंड ने इन पारंपरिक खेलों को बढ़ाने के लिए कुछ पहल तो की है जिसके तहत पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने एक खेल समिति का भी गठन किया था और कुछ खेलों का आयोजन भी किया गया था लेकिन यह मामला बाद में आगे नही बढ़ सका।

अगर सरकार इन पर थोड़ा ध्यान दे तो राज्य में होने वाले राष्ट्रीय खेलो में देशी खेलों को भी शामिल किया जा सकता है। अगर ऐसा हुआ तो देश  पारंपरिक खेलों को पुनः जीवनदान मिल सकता है और इनके अच्छे दिन फिर लौट सकते है।

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