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महिलाओं की बारीकियों को करीब से समझने वाली प्रभा खेतान

प्रभा खेतान

प्रभा खेतान

साल 2007 के जनवरी महीने में पटना स्टेशन से वर्धा (महाराष्ट्र) के लिए संघमित्रा एक्सप्रेस पकड़ने पहुंचा। मैगज़ीन काउंटर जाकर सोचा कोई पत्रिका खरीद लूंगा ताकि समय कट सके। वहां एक किताब “स्त्री उपेक्षिता” पर नज़र पड़ी।

वह किताब लेखिका सिमोन द बुआ लिखी थी, जिसका अनुवाद प्रभा खेतान ने किया था। वह किताब हिंद पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई थी, जिसका मुल्य मात्र 99 रुपये था। महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा में इस किताब की बड़ी चर्चा थी मगर हाथ कभी नहीं लगती थी।

मैंने मैगज़ीन काउंटर वाले से पूछा, “आपके पास इस किताब की कितनी प्रति है?” उन्होंने कहा, “चार।” मैंने चारों खरीद ली। आज मेरे पास अपनी वाली एक भी प्रति नहीं है। एक मित्र की है, जो मैं किसी को देता नहीं।

प्रभा खेतान। फोटो साभार: Getty Images

पता नहीं ऐसा क्या था या है इस किताब में, जो मैंने चारों प्रति खरीद ली। किताबों को लेकर एक सच तो यह भी है कि पढ़ने वाले इन्हें पचाने के फिराक में रहते हैं। खैर, सिमोन द बुआ की किताब “सेकंड सेक्स” जिसका हिंदी अनुवाद प्रभा खेतान ने “स्त्री उपेक्षिता” के नाम से किया, वह स्त्री विमर्श की पूरी दुनिया में बाइबिल सरीखी किताब है।

इस किताब को पढ़कर लगता है कि सिमोन द बुआ ने पूरी दुनिया की आधी आबादी के आत्म अनुभवों को कलमबद्ध कर दिया।

मैंने जब सिमोन के “सेकंड सेक्स” का हिंदी अनुवाद “स्त्री उपेक्षिता” पढ़ना शुरू किया, तब इतनी समझ पहली बार में बनी कि इस किताब को एक बार में पढ़कर पूरी तरह समझने का दावा नहीं किया जा सकता है।

हर एक खंड एक देशकाल में महिलाओं के साथ जुड़ी हुई सभ्यता से गुज़रता है और उस देशकाल की सभ्यता को समझकर किताब के उस खंड को समझा जा सकता है। आज भी जब मैं इस किताब को पढ़ता हूं, तब लगता है कुछ नया पढ़ा और समझा है।

खैर, इस किताब को पढ़ते-पढ़ते मैं प्रभा खेतान के अनुवाद का दीवाना हो गया और उनके साहित्य की तरफ मेरी दिलचस्पी बढ़ने लगी। शायद मैंने पहली बार इतनी बेहतर अनुवाद पढ़ी थी।

उनकी लेखनी से जुड़ना सुखद एहसास

1 नवबंर 1942 में आज़ादी मिलने के उरोज़ वाले दशक में प्रभा खेतान का जन्म हुआ था। “स्त्री उपेक्षिता” पढ़ते हुए मैं जब वर्धा पहुंचा, तब कैंपस में किसी पत्रिका में उनका एक इंटरव्यू पढ़ने का मौका मिला। जिसमें उन्होंने कहा था, “महिलाओं की आज़ादी स्त्री के पर्स से शुरू होती है।” धीरे-धीरे मैंने उनका साहित्य पढ़ना शुरू किया।

प्रभा खेतान की उपन्यास छिन्नमस्ता।

उनके उपन्यास “आओ पेपे घर चलें”, “तालाबंदी”, “छिन्नमस्ता”, “अपने-अपने चेहरे” और “पीली आंधी” उनके मोहपाश में बंधने के लिए काफी था। चूंकि कविताओं में मेरी अधिक रूचि नहीं थी इसलिए मैंने उस पर अधिक ध्यान नहीं दिया।

अब तक वर्धा कैंपस के लाइब्रेरियन वर्मा सर समझ चुके थे कि मैं प्रभा खेतान के लेखन में दीवाना हो रहा हूं। उन्होंने कहा उनका चिंतन भी पढ़ो केवल कविता कहानी से क्या होगा? मैंने एकटक निहारते हुए उनसे पूछा, ‘उन्होंने चिंतन पर भी लिखा है क्या?’

वर्मा सर ने कहा, “गंभीरता से पढ़ो उनको। मैं तुम्हारी बात करा दूंगा कभी।” उनसे बात करने के लालच में मैंने उनकी चिंतन की किताबों को खंगालना शुरू किया। जैसे- “सार्त्र का अस्तित्ववाद”, “शब्दों का मसीहा सार्त्र”, “वह पहला आदमी- अल्बेयर कामू”, “उपनिवेश में स्त्री”, “बाज़ार के बीच बाज़ार के खिलाफ”, “भूमंडलीकरण : ब्रांड संस्कृति” इन सबों को पढ़ा। सार्त्र और कामू के अन्य साहित्य को पढ़ने की भूख मुझे इन किताबों से लगी।

प्रभा खेतान से जब मेरी बातचीत हुई

फिर वह दिन आया जब वर्मा सर ने प्रभा खेतान से मेरी बात करवाई। उनके लेखन और चिंतन पर बहुत लंबी बात हुई। खासकर स्त्री उपेक्षिता पर। उन्होंने कभी कोलकता आने पर मिलने के लिए कहा।

उन्होंने यह भी कहा कि वह इस बार पुस्तक मेले में नागपुर आने वाली हैं। मैं उनसे वहां मिल सकता हूं। नागपुर पुस्तक मेले में मैं उनसे मिला और उन्होंने कहा कि एम.ए. खत्म होने के बाद मैं उनके साथ काम करूं।

प्रशांत प्रत्युष।

अपनी मनपसंद लेखिका के साथ काम करने के मौके से मैं काफी खुश था। उन्होंने कहा, “मैं चाहूंगी अगर स्त्री विषयों पर तुम्हारी इतनी रूचि है, तो तुम उस तरफ बढ़ो। एम.फिल तो है तुम्हारे यहां, तुम एम.फिल में दाखिला ले लेना। हम लोग साथ में काम भी करेंगे और तुम्हारी पढ़ाई भी नहीं रूकेगी।”

मैंने एम.फिल मैं दाखिला ले लिया मगर एक महीने बाद ही 20 सिंतबर 2008  को उनका निधन हो गया। उनके साथ काम करने की सारी योजनाएं धरी की धरी रह गईं मगर उनके साहित्य ने मेरे अंदर सोचने समझने की जो ऊर्जा विकसित की, वह मैं कभी नहीं भूल सकता।

महज़ 12 वर्ष की उम्र में लिखी थी कविता

साहित्य में उन्होंने कई मंज़िलें तय की, जो बेमिसाल हैं। जैसे- “रत्न शिरोमणि”, “इंदिरा गाँधी सॉलिडियरिटी”, “इंडियन सॉलिडियरिटी काउंसिल”, “टॉप पर्सनालिटी अवॉर्ड”, “महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार” और के.के बिड़ला “बिहारी पुरस्कार”।

साहित्य के साथ-साथ उनका जीवन महिलाओं की सक्रियता से चल रहे चमड़े और सिले-सिलाएं कपड़ों के नियार्त के व्यवसाय से भी जुड़ा था। वह अपनी कंपनी न्यू होराइज़न लिमिटेड की प्रबंध निदेशिका भी थीं।

मात्र 12 वर्ष की उम्र में एक कविता लिखकर उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा की शुरुआत की। उस समय वह सातवीं कक्षा में थीं। 80 के दशक से वह साहित्य कर्म में सक्रिय हुईं।

आधी आबादी की महत्ता का परिचायक है उनकी किताब ‘स्त्री उपेक्षिता’

उनके साहित्य में स्त्री यंत्रणा को आसानी से देखा और समझा जा सकता है। अपने साहित्य के माध्यम से उन्होंने स्त्री जीवन को काफी बारीकियों से झांककर साहित्य में पिरोने का काम किया।

आज भी उनसे फोन पर हुई बातें याद आती हैं, जिसमें वह महिलाओं की उन बारीकियों के बारे में बात करती थीं, जिन्हें हम देखते तो रोज़ हैं मगर उन पर ध्यान नहीं देते हैं। जैसे-

मसलन कभी सोचा है क्या कि आज लड़कियों के लिए जो जींस पैंट आती हैं, उनकी जेब इतनी छोटी क्यों होती हैं? क्यों बसों का बायां किनारा ही महिलाओं के लिए रिज़र्व होता है? कभी सुना है क्या कि हमारी सभ्यता या संस्कॄति में पुरुषों के लिए भी कोई उपवास होता है?

आज उनके अभाव में मैं कितना समृद्ध हो पाया हूं, यह तो मैं नहीं जानता मगर उनकी एक किताब “स्त्री उपेक्षिता” ने यह ज़रूर साबित किया है कि दुनिया में आधी आबादी की क्या महत्ता है।

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